हमें जरूरत है देशी नेता की
भारत में नेतृत्व के विषय पर ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के दीपल गाला से सद्गुरु ने विस्तार में बातचीत की। जानिए इस विषय पर सद्गुरु की बेबाक राय:
एक ऐसे नेता की जरूरत है जो देश की संस्कृति मे पला-बढ़ा हो और अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखता हो। वरना आप इस देश के निर्माण में हर किसी को सक्रियता से शामिल नहीं कर सकते।
दीपल गाला: संभावना और हकीकत के बीच का अंतर दूर करने का तरीका क्या है? ऐसा करने के लिए आपके अनुसार किस तरह के नेतृत्व की जरूरत है?
सद्गुरु: राष्ट्र एक विचार है। अगर विचार को कारगर बनाना है, तो हमें उसे हर चीज से आगे रखना होगा। उस विचार को हर एक इंसान के भीतर बैठाना होगा। ऐसा करने का एक ही तरीका है कि इस विचार के प्रति गर्व की भावना पैदा की जाए। अगर गर्व नहीं होगा, तो कुछ कर गुजरने के लिए ईमानदार लोग नहीं होंगे। आजादी से पहले, लोग देश के लिए अपनी जिन्दगी न्यौछावर करना चाहते थे और 65 सालों में वे देश को ही नष्ट कर देना चाहते हैं।
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हमारी संस्कृति में बेहतरीन तरीकों के बारे में व्यापक ज्ञान मौजूद है कि किसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए तन और मन का इस्तेमाल कैसे किया जाए। सबसे बढ़कर, इस बारे में काफी ज्ञान मौजूद है कि हमारे अंदर क्या संभावनाएं हैं। इन सब को अनदेखा कर दिया गया है। हाल में, मुझे बताया गया कि ब्रिटेन के किसी विश्व विद्यालय ने कहा है कि सूर्य की किरणें ॐ की ध्वनि से गूंजती हैं। मैंने कहा कि भारत में यह ज्ञान तो हमेशा से रहा है। लेकिन हम अपने ज्ञान पर तभी यकीन करते हैं जब वह विदेश से आता है।
मुख्य रूप से देश के नेताओं ने खुद को हमेशा इसी तरह प्रस्तुत किया है। भारत के भीतर से उपजे विचार और ज्ञान को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया है। इसलिए एक ऐसे नेता की जरूरत है जो देश की संस्कृति मे पला-बढ़ा हो और अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखता हो। वरना आप इस देश के निर्माण में हर किसी को सक्रियता से शामिल नहीं कर सकते।
दीपल गाला: क्या हमारी मानसिकता ठीक नहीं है? क्या हमारे अंदर उस राष्ट्रवाद और गर्व की भावना की कमी है, जिसकी वजह से आजाद भारत का जन्म हुआ था?
सद्गुरु: इस देश का मूल पहलू है जनतंत्र। हम कहते हैं कि हम एक लोकतंत्र हैं लेकिन हमारी मानसिकता सामंती है। हम जाति, वर्ग, धर्म के आधार पर चुनाव करते हैं, इसमें लोकतंत्र कहां है? लेकिन यह देखने के लिए भी हमें आजाद हो कर सोचना होगा। ऐतिहासिक रूप से यह शिक्षा व्यवस्था हमें इसलिए दी गई ताकि हम अपने ऊपर राज करने वाली शक्तियों की सेवा कर सकें। आजादी के बाद कम से कम हमें अपने इतिहास को फिर से लिखना चाहिए था। तब हम खुद को दास बनाने वाले लोगों के लिखे हुए इतिहास को नहीं पढ़ते। आजादी के बाद शुरुआती कुछ सालों में, हम उन लोगों से रौब खाते थे जो अंग्रेजी बोलना जानते थे। कोई भी अंग्रेजी चीज श्रेष्ठ समझी जाती थी और हर भारतीय चीज निम्न कोटि की। यह भावना बहुत गहराई में बस गई है। अगर हम इस पर रोक न लगाएं, तो मेरा यकीन कीजिए, हम कभी पश्चिमी देशों के निवासियों की तरह नहीं हो सकते। हमें अपनी स्वाभाविक क्षमताओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए आगे बढ़ना होगा, फिर हम वहां पहुंच पाएंगे। हम जो हैं नहीं, वैसा बनने की कोशिश बंद करनी होगी। हम किसी न किसी रूप में दास बन जाते हैं क्योंकि इस देश में कोई स्वाभाविक सोच नहीं है।
अगर पश्चिमी देश आसानी से वीजा देने लगें, तो अस्सी फीसदी लोग समुंदर पार करके भारत से विदेश चले जाएंगे। इसका क्या मतलब है? यह एक जेल है, कोई देश नहीं। हो सकता है कि आर्थिक और भौतिक स्थितियों को तत्काल नहीं बदला जा सकता, लेकिन हम भारतीय होने का गर्व अपने अंदर भर सकते हैं। हमारे अंदर यह गहराई से समाया हुआ है कि देश में जो है, वह अच्छा नहीं है और अच्छा नहीं हो सकता है। यह हम पर शासन करने वाले लोगों की दी हुई शिक्षा व्यवस्था का नतीजा है।