सद्‌गुरुपांचों पांडव भाई वन में खूब अच्छी तरह बड़े हुए। सही मार्गदर्शन में जंगल की बीहड़ता सबसे अच्छी शिक्षा साबित हो सकती है। ऋषि-मुनियों ने उनकी शिक्षा पर ध्यान दिया, मगर सबसे बढ़कर प्रकृति की गोद ने उनके अंदर बुद्धि और शक्ति भरी। वे शक्तिशाली, धैर्यवान, बुद्धिमान और शस्त्रकला में निष्णात युवकों के रूप में बड़े हुए।

पांडु – कामना ने कर दिया भाग्य का फैसला

चूंकि उनके पिता पांडु को श्राप मिला हुआ था कि यदि वह कभी भी सहवास की इच्छा से अपनी पत्नियों के पास जाएंगे, तो उनकी मृत्यु हो जाएगी, इसलिए पांडु ने यह व्यवस्था की थी कि उनकी पत्नियां दूसरे तरीकों से संतान पैदा करें। सोलह सालों तक वह अपनी पत्नियों से दूर, ऋषि-मुनियों की संगत में रहे। उन्होंने ज्ञान अर्जित किया, ब्रह्मचर्य की साधना की और एक शक्तिशाली प्राणी बन गए। मगर एक दिन जब वह वन में एक निर्जन नदी के पास पहुंचे, तो उनकी दूसरी पत्नी माद्री उसी समय स्नान करके पानी से बाहर निकली। उसे निर्वस्त्र देखकर पांडु के अंदर कामना ने इतना जोर मारा कि इतने सालों के बाद वह खुद पर से नियंत्रण खो बैठे और माद्री के पास चले गए।

माद्री श्राप के बारे में जानती थी, इसलिए उसने तगड़ा विरोध किया। मगर किस्मत पांडु को माद्री की ओर खींचती रही और आखिरकार उन्होंने माद्री की बाहों में दम तोड़ दिया। वह भय से चिल्लाने लगी। वह सिर्फ पति की मृत्यु से नहीं बल्कि इस बात से भी आतंकित थी कि उसके लिए पांडु की कामना ने उन्हें मार डाला था। उसके चिल्लाने की आवाज पर कुंती उस ओर भागी और वस्तुस्थिति को देखकर वह गुस्से से भर गई। दोनों पत्नियों के बीच इतने सालों से दबी भावनाएं अचानक उभर आईं।

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थोड़ी देर बाद, अपने बच्चों के बारे में सोचकर कुंती शांत हो गई। अपराधबोध और निराशा से भरी माद्री ने पति के साथ चिता में जलने का फैसला किया। कुछ देर तो कुंती ने दिखाया जैसे वह भी माद्री के रास्ते पर चलना चाहती है, मगर वह दिल ही दिल में ठंडे दिमाग से एक दृढ निश्चय कर चुकी थी। उसने निर्ममता से वह किया जो एक रानी के रूप में उसे करना चाहिए था। फिर ऋषियों के साथ, कुंती और पांचों पांडव लगभग सोलह साल बाद हस्तिनापुर की ओर चल पड़े।

पांडव कुरुवंश की राजधानी हस्तिनापुर लौटे

जब यह खबर फैली कि पांडव कुरुवंश की राजधानी हस्तिनापुर लौट रहे हैं, तो दुर्योधन जलन और नफरत से भर उठा। वह यह सोचते हुए बड़ा हुआ था कि वह हस्तिनापुर का भावी सम्राट है। उसके पिता दृष्टिहीन होने के साथ-साथ उसके प्रति प्रेम में भी अंधे थे, इसलिए एक तरह से वह पहले ही राजा बन चुका था और उसे आदत हो चुकी थी कि सारी चीजें उसके हिसाब से चलें। मगर अचानक से उसका एक प्रतिद्वंदी उभर आया था, जो सिंहासन का कानूनी उत्तराधिकारी था। उसे यह बात बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं थी। उसने अपने भाइयों को भड़काना शुरू कर दिया, जो उसके मुकाबले मंदबुद्धि थे और उनके अंदर राज्य चलाने के लिए जरूरी जोश नहीं था। उसे सौ में से दूसरे नंबर के भाई दु:शासन के रूप में अपना उपयुक्त सहयोगी मिला।

दुर्योधन और दु:शासन का क्रोध

पांडवों के पहुंचने से पहले ही दोनों भाई उनके प्रति रोष से भरे हुए थे। जनता पांडु से प्यार करती थी, जो सिंहासन पर न बैठने के बावजूद व्यावहारिक रूप से राज-काज चला रहे थे। उन्होंने राज्य को धन-दौलत से भर दिया था, दूसरे राज्य जीते थे और प्रशासन की पूरी देख-रेख उनके हाथों में थी। वह सोलह सालों से अपनी इच्छा से एक निर्वासित जीवन जी रहे थे और अब उनकी मृत्यु हो चुकी थी। लोगों ने उनके बच्चों को अब तक नहीं देखा था, इसलिए वे उन्हें देखने के लिए रोमांचित थे।

उत्सुकता और प्यार के कारण पूरे राज्य की जनता इकट्ठा हो गई। जब पांडव अपनी माता कुंती के साथ शहर पहुंचे, तो भीड़ ने शोर मचा कर उनका अभिवादन किया। पांचों युवक जंगल में रहकर काफी बलशाली हो चुके थे, महल में रहते हुए वे इतने ताकतवर नहीं हो सकते थे। सौ कौरव बंधु, धृतराष्ट्र, गांधारी, भीष्म, विदुर और सभी श्रेष्ठजन उनके स्वागत के लिए शहर के द्वार पर खड़े थे। धृतराष्ट्र बचपन से ही दुनिया को देखने और मदद के लिए पांडु पर निर्भर थे और छोटे भाई ने हमेशा उन्हें करुणा और दया की दृष्टि से देखा था। इस समय उनके अंदर भी मिली-जुली भावनाएं उभर रही थीं। उन्हें लगता था कि वह अपने भाई से प्रेम करते हैं, इसलिए वह अभी अपने अंदर चलने वाली भावनाओं को समझ नहीं पा रहे थे, जब उन्हें लग रहा था कि उनके बच्चे राजा नहीं बन सकते।

दुर्योधन और भीम में कुश्ती

पांडवों और कुंती का स्वागत किया गया। पांडु का अंतिम संस्कार किया गया। जैसे ही पांडवों ने महल में प्रवेश किया, किस्मत अपना रूप दिखाने लगी। भीम और दुर्योधन सभी भाइयों में सबसे तगड़े थे। भीम का शरीर विशालकाय था और दुर्योधन शारीरिक बल में उसकी बराबरी कर सकता था। भीम जीवन में पहली बार महल देखकर बहुत रोमांचित था। उत्साह से भरपूर भीम अपने गंवारूपन और सरल स्वभाव के कारण चारो ओर घूम-घूमकर हर किसी का मजाक बनाता और मौका मिलते ही दुर्योधन समेत सभी कौरव भाइयों से भिड़ जाता।

उनका पहला सीधा टकराव कुश्ती के अखाडे़ में हुआ। दुर्योधन को पूरा विश्वास था कि कोई कभी कुश्ती में उसे हरा नहीं सकता। वह सौ भाइयों में सबसे बलशाली था और उसकी उम्र का कोई और उसे कुश्ती में नहीं हरा सकता था। जब उसने भीम को एक के बाद एक मुकाबला जीतते और हर किसी का प्रियपात्र बनते देखा, तो उसे लगा कि महल में पूरे परिवार के सामने कुश्ती के मुकाबले के लिए न्यौता देना भीम को अपनी औकात बताने का सबसे अच्छा तरीका है। दूसरों के लिए यह एक दोस्ताना मुकाबला होगा मगर उन दोनों के लिए जीवन और मरण की लड़ाई होगी। मगर भीम ने लड़ाई शुरू होने से पहले ही उसे पटखनी दे दी। दुर्योधन का घमंड चूर हो गया। हार की शर्म ने उसके गुस्से और नफरत को और भड़का दिया। अब उसके लिए अपनी भावनाओं को काबू में रखना या छिपाना मुश्किल था।

आगे जारी...