किसी भी तरह की सीमा या कैद में जीना इंसान के लिए हमेशा कष्‍टदायक होता है। खुले आसमान का परिंदा है इंसान, पर वह अनजाने में खुद के बनाये पिंजड़े में कैद है। गुरु पूर्णिमा एक अवसर है इस पिंजड़े से मुक्‍त होने का, खुले आसमान में उड़ान भरने का...

गुरु पूर्णिमा - प्रथम गुरु आदियोगी शिव की रात है

गुरु पूर्णिमा की रात को प्रथम गुरु- आदिगुरू शिव की रात माना जाता है। वह पहले गुरु हैं और वही आखिरी भी हैं। बीच वाले सिर्फ उनके सहायक हैं।

इसी दिन मानव जाति के इतिहास में पहली बार, लोगों को यह याद दिलाया गया था, कि उनका जीवन पहले से तय किया हुआ नहीं हैं- वे फंसे हुए नहीं हैं। अगर वे कोशिश करना चाहें, तो अस्तित्व का हर द्वार खुला है।
इसी दिन मानव जाति के इतिहास में पहली बार, लोगों को यह याद दिलाया गया था, कि उनका जीवन पहले से तय किया हुआ नहीं हैं- वे फंसे हुए नहीं हैं। अगर वे कोशिश करना चाहें, तो अस्तित्व का हर द्वार खुला है। मनुष्य ने अभी तक इस ज्ञान की गहराई,और इसकी क्षमता को पूरी तरह नहीं समझा है। मनुष्य का विवेक इतना विकसित है कि उसे खुद पर लगाई गई सीमा से कष्ट होता है। उसे यातना से अधिक कैद से कष्ट होता है। जिस पल वो कैद में महसूस करता है, उसे अत्यंत पीड़ा होती है ।

इसलिए यह सम्भावना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकी इससे मनुष्य प्रकृति की बंदिशों से मुक्त हो सकता है। हम भारत की और थोड़ा-बहुत अमेरिका की जेलों में कार्यक्रम करते रहे हैं। मैं जब भी जेल में प्रवेश करता हूं, मुझे वहां के माहौल में पीड़ा महसूस होती है। वहां हवा में बहुत अधिक पीड़ा होती है। इस अनुभव को मैं कभी बयान नहीं कर सकता। मैं भावुक किस्म का आदमी नहीं हूं; लेकिन ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि मैं जेल गया और मेरी आंखें आंसुओं से ना भर गई हों। वहां के माहौल में ही बहुत पीड़ा होती है, सिर्फ पीड़ा, क्योंकि यह कैद की पीड़ा है। एक इंसान को किसी और चीज से अधिक कैद से कष्ट होता है। इसे जानते हुए - एक इंसान की इस मूल प्रकृति को समझते हुए, आदियोगी ने मुक्ति की बात की।

इस संस्कृति ने मुक्ति को सर्वोच्च और इकलौते लक्ष्य के रूप में अपनाया है। यहां  आप अपने जीवन में जो कुछ भी करते हैं, वह सिर्फ आपके मोक्ष के लिए होता है। कैद चाहे किसी भी किस्म की हो- चाहे वह कैद जेल के पहरेदारों ने लगाई गई हो, स्कूल के शिक्षकों ने लगाई हो, शादी ने लगाई हो, या बस प्रकृति के नियमों का बंधन हो। चाहे उसकी वजह कुछ भी हो, मनुष्य कैद को बर्दाश्त नहीं कर सकता क्योंकि उसकी स्वाभाविक चाह मोक्ष की होती है।

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इसी दिन शिव ने ज्ञान संचारित करना शुरू किया था

कुछ हजार साल पहले, सभी धर्मों के बनने से पहले इसी दिन पहली बार आदियोगी ने उपदेश दिया था। खुशकिस्मती से उस समय पृथ्वी पर संप्रदायवादी धर्मों की कोई धारणा नहीं थी।

आत्मरक्षा की सीमाएं कैद की सीमाएं तब बन जाती हैं, जब आप भूल जाते हैं कि आपने ये सीमाएं किस लिए बनाई थीं। और ये सीमाएं किसी एक रूप में नहीं होती। ये बहुत सारे जटिल रूप अपना लेती हैं।
उन्होंने न सिर्फ लोगों को याद दिलाया, बल्कि उन्होंने इस कैद से बाहर निकलने के तरीकेभी बताए। वरना इससे पहले लोग सिर्फ ‘थोड़ा-और’ पाना चाहते थे। वे सबकुछ एकसाथ पाने के बारे में कभी नहीं सोचते थे। आदिगुरू शिव ने अचानक से अस्तित्व और सृष्टि के स्रोत के बारे में लोगों के अनुभव और समझ में भारी बदलाव ला दिया। उन्होंने सृष्टि के एक छोटे अंश और सृष्टि के स्रोत के बीच खुद को पुल बना दिया। उन्होंने कहा, ‘अगर आप इस मार्ग पर चलें, तो आप और आप जिसे स्रृष्टा कहते हैं, इन दोनों के बीच कोई फर्क नहीं रह जाएगा।’ यह सृष्टि से सृष्टा तक का सफर है। इसी दिन मानव जाति को इतना शानदार अवसर हासिल हुआ। कुछ समय पहले तक इस दिन को इस देश और इस संस्कृति में सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता था। इस आध्यात्मिक संभावना का असर इस देश से दूर देशों में भी फैला।

जब आदिगुरू शिव ने उपदेश दिया, तो उन्होंने न धर्म की बात की, न सिद्धांत  की, न ही वह किसी तरह के मत को प्रचारित कर रहे थे।वह एक वैज्ञानिक पद्धति की बात कर रहे थे, जिससे आप प्रकृति द्वारा मानव जीवन के लिए तय की गई सीमाओं को नष्ट कर सकते हैं।उन्होनें ये बताया, कि कितने तरीकों से आप मोक्ष पा सकते है,और प्रकृति ने जीवन के लिए किस तरह की सीमाएं तय की हैं। हम जो भी सीमाएं बनाते हैं, शुरुआत में उनका मकसद सुरक्षा होता है। हम आश्रम के चारों ओर भी बाड़ लगाते हैं लेकिन उसका मकसद सुरक्षा होता है।आत्मरक्षा की सीमाएं कैद की सीमाएं तब बन जाती हैं, जब आप भूल जाते हैं कि आपने ये सीमाएं किस लिए बनाई थीं। और ये सीमाएं किसी एक रूप में नहीं होती। ये बहुत सारे जटिल रूप अपना लेती हैं।

सीमाओं से परे ले जाने वाले साधन

मैं सिर्फ उन मनोवैज्ञानिक सीमाओं की बात नहीं कर रहा, जो आपने अपने लिए बनाई  हैं। मैं आपकी सुरक्षा और खुशहाली के लिए प्रकृति द्वारा बनाई गई सीमाओं की भी बात कर रहा हूं। मानव स्वभाव ऐसा है, कि जब तक आप सीमाओं को पार नहीं करते, तब तक आप परम आनंद का अनुभव नहीं कर सकते। यही मानव की दुर्दशा है। जब आप खतरे में होते हैं, तब आप अपने चारों ओर किला बना लेते हैं। लेकिन जैसे ही खतरा टल जाता है, आप उसे नष्ट करना चाहते हैं। पर जब ऐसा नहीं होता, तब आप खुद को कैद में महसूस करते हैं।

आदिगुरू शिव ने हमें जागरूकता पाने के ऐसे साधन दिए है, जो हमें इन सीमाओं के पार ले जाते हैं। साथ ही वे हमें सुरक्षित रखते हैं, और हमें कैद नहीं करते। खुद प्रकृति के मूल मायावी स्वभाव का उपयोग करते हुए उन्होंने बहुत से तरीके बनाए। बदकिस्मती से मुट्ठी भर इंसानों में भी अपनी सीमाओं के परे जाने के लिए जरूरी एकाग्रता, धैर्य और दिलचस्पी नहीं है। उन्हें लगता है कि वे कैद से निकलने के लिए नशीली दवाएं ले सकते हैं, धुआं उड़ा सकते हैं, या शराब पी सकते हैं, या खूब खा सकते हैं, या फिर खूब सो सकते हैं।

ईशा योग केंद्र में मनाए जा रहे गुरु पूर्णिमा के सीधे प्रसारण के लिए इस लिंक पर जाएं