धर्मनिरपेक्ष होने का वास्तविक अर्थ
सद्गुरु इस बात की पड़ताल करते हैं कि धर्मनिरपेक्ष होने का क्या मतलब है और यह शब्द आज किस तरह से गलत समझा जाता है। वे समझाते हैं कि भारतीय संस्कृति हमेशा से स्वाभाविक रूप से धर्मनिरपेक्ष रही है।
इसलिए ‘धर्मनिरपेक्ष’ का अर्थ किसी आस्था, विचारधारा या विश्वास प्रणाली से नाता तोड़ना नहीं है, बल्कि एक सामूहिक समझ है कि जैसे आपका अस्तित्व है, वैसे ही दूसरों का अस्तित्व है। यह आस्था को नकारना नहीं है, बल्कि हर किसी को खुशहाली और मुक्ति की खोज करने की आजादी देने का निर्णय है, उसके लिए वे चाहे जो भी तरीका चुनें। इसका मतलब है कि हर मत के व्यक्तियों को उसी देश में पूरी बराबरी से रहने देना।
इसलिए यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द पर सिर्फ कुछ राजनीतिक दलों, समूहों या व्यक्तियों का अपने ब्रांड के रूप में दावा है। जिनसे आप सहमत नहीं हो सकते या जिन्हें आप पसंद नहीं कर सकते, उन्हें अलग कर देना धर्मनिरपेक्ष होने का बिलकुल उल्टा है।
साथ ही, हमें सावधान रहना होगा कि हम किसी ऐसे मॉडल को गैरआलोचनात्मक रूप से न अपनाएं जो मूल रूप से हमारे पास दूसरे संदर्भ से आया हो। यह विचार कि जो धार्मिक है वह तर्क पर खरा नहीं उतरेगा, मूल रूप से एक यूरोपीय विचार है, जो आस्था और तर्कसंगतता के बीच कथित विभाजन पर आधारित है। ऐसे में जो उचित है वह ‘धर्मनिरपेक्ष’ हो जाता है और जिस पर विश्वास किया जाता है वह ‘धार्मिक’ हो जाता है।
हालांकि इस उपमहाद्वीप में, धर्म का विचार हमेशा से अलग रहा है। यह खोजियों की आध्यात्मिक संस्कृति है, विश्वासकर्ताओं की नहीं; तलाश की संस्कृति है, धर्मादेश की नहीं। यहां, जिसे धार्मिक या पवित्र माना जाता है, उस पर बहस की जा सकती है। इसका पालन करना जरूरी नहीं होता।
Subscribe
‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द की वर्तमान गलत समझ मूल रूप से विनाशकारी है। यह सोच कि हजारों सालों के आध्यात्मिक इतिहास को मिटाने और उसे एक आधुनिक संविधान से बदलने की जरूरत है, बस बचकानी ही नहीं, बल्कि गैरजरूरी है। जब हालात चरम पर होते हैं, जब सवाल मनुष्य के जीवन-संरक्षण का होता है, तो आप लोगों को यकीन दिला सकते हैं कि उनके जीवन के लिए प्रशासनिक दिशानिर्देश काफी हैं। लेकिन जब व्यवस्था मौजूद होती है, जब आर्थिक और सामाजिक हालात अपेक्षाकृत स्थिर होते हैं, तब प्रशासनिक दिशानिर्देश कभी पर्याप्त नहीं होंगे। एक संविधान व्यवस्था प्रदान कर सकता है, लेकिन यह मानव चेतना के लिए कभी सहारा प्रदान नहीं करेगा।
मनुष्य में जानने, विस्तार करने, और असीम बन जाने की एक बुनियादी लालसा होती है। यह सिर्फ इस प्राचीन मानवीय तलाश से पैदा हुई सवाल करने की भावना है जो इस लालसा को बुझाएगी। इस उपमहाद्वीप के आध्यात्मिक इतिहास ने इस तथ्य को हमेशा पहचाना है।
इस धरती पर जब ऐसी हस्तियां आईं जिन्हें हम दिव्य मानते हैं, तब भी हमने यूं ही उनका आज्ञा पालन नहीं किया। हमने उनसे बहस की। हमने उन पर सवालों की झड़ी लगा दी! हमने यह पहचाना कि वे हमारे लिए विश्वासकर्ता से खोजी बनने का अवसर प्रस्तुत करते हैं।
इस संस्कृति में विश्वास को एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में, अस्थायी सांत्वना के एक साधन की तरह देखा गया था, लेकिन जानने के बदले में कभी नहीं। विश्वास तर्क के विरोध में नहीं था क्योंकि आप पूरी तरह यह जानते हुए किसी विश्वास को अपनाते हैं कि वह विश्वास आपका है और हो सकता है कि उसका हकीकत से कोई लेना-देना न हो, और आपके आस-पास किसी का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है।
इसी कारण एक ही घर में, बिना किसी मनमुटाव या विवाद के, परिवार का हर सदस्य पांच अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा कर सकता है। कोई कथित विभाजन नहीं था क्योंकि देवी-देवताओं को मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक साधन के रूप में देखा जाता था। जितने आप चाहें, आपको उतने भगवान बनाने की आजादी थी। लेकिन जब तक कि आपको सत्य को स्वयं खोजने की ताकत नहीं मिल जाती, विश्वास को एक अस्थायी सांत्वना के रूप में देखा जाता था।
इस धरती की आध्यात्मिक विरासत शिष्यों और गुरुओं के बीच रोचक और गूढ़ कहानियों से भरी हुई है। जिन प्राणियों को उनके जीवनकाल में अवतार या दिव्यता के मूर्तरूप की तरह देखा जाता था, उनसे भी दुष्कर सवाल पूछे गए थे।
मिसाल के लिए, शिव और पार्वती के बीच प्रसिद्ध वार्तालाप, पति और पत्नी के बीच गहनतम अंतरंगता में हुए जोशपूर्ण संवाद को उजागर करते हैं, जिसमें शिव से गहरे और तीखे सवाल पूछे गए थे। उतना ही लोकप्रिय संवाद कृष्ण और अर्जुन के बीच युद्धभूमि में हुआ था। एक अंतरंगता की स्थित में हुआ और दूसरा चरम हिंसा के कगार पर हुआ। लेकिन दोनों स्थितियों में, दिव्य हस्ती की उपस्थिति को चरम महत्व के सवाल पूछने, जीवन और मृत्यु के मामले पर स्पष्टता खोजने, और जिज्ञासा को अधिक गहरा बनाने के जबरदस्त अवसर की तरह देखा गया, न कि सिर्फ सांत्वना से शांत हो जाने के एक मौके की तरह।
एक ऐसे संदर्भ में, धर्मनिरपेक्ष होना और आध्यात्मिक होना विरोधाभासी नहीं हैं। इसलिए ‘धर्मनिरपेक्ष’ कोई नई सोच नहीं है जिसे हमें एक आधुनिक संविधान को अपनाने के जरिए अपने ऊपर थोपना है। सिर्फ धर्मादेश के सम्मान पर आधारित धर्मशास्त्रों में ही तर्क एक विरोधी दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है।
धर्मनिरपेक्ष होना मानव बुद्धिमत्ता की प्रकृति में है। दुर्भाग्य से, हम इस अनिवार्य प्रकृति का उल्लंघन करने की कोशिश करते हैं, क्योंकि हम निश्चितता और नियंत्रण खोजते हैं। एक असली आध्यात्मिक प्रक्रिया कभी नियंत्रण पर आधारित नहीं होती। वह हमेशा तरल, खुली हुई और बहस के लिए खुली होती है। भारतीय संविधान भी आदेशों का समूह नहीं है। अगर वह बहस के लिए खुला हुआ हो, सिर्फ तभी वह एक धर्मनिरपेक्ष संविधान होगा। अगर हम उसे आदेशों की एक कड़ी की तरह देखते हैं, तो हम बस धार्मिक अधिकारवाद के एक प्रकार को राजनीतिक अधिकारवाद से बदल दे रहे हैं!