देवता और राक्षस : बस जरा सा अंतर है
मानव की कुछ आदतों को राक्षसी प्रवृत्ति और कुछ अन्य आदतों को दैवी प्रवृत्ति की संज्ञा दी जाती है। किस आधार पर इन प्रवृत्तियों को अलग-अलग किया जा सकता है...आइये जानते हैं सद्गुरु से:
मानव की कुछ आदतों को राक्षसी प्रवृत्ति और कुछ अन्य आदतों को दैवी प्रवृत्ति की संज्ञा दी जाती है। किस आधार पर इन प्रवृत्तियों को अलग-अलग किया जा सकता है...आइये जानते हैं सद्गुरु से:
दुनिया में दो तरह के प्राणी होते हैं। कुछ प्राणी जो प्राप्त करते हैं, उसे वे अपने तक ही सीमित रखते हैं और कुछ प्राणी उसे बांट देते हैं। अगर आप बांटने का चुनाव करते हैं तो आप देव बन जाते हैं।
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अगर आप उसे जमा करते जाते हैं तो आप राक्षस बन जाते हैं। आप राक्षस इसलिए नहीं बनते, क्योंकि आप जो कर रहे हैं, वो दूसरों की नजरों में बुरा है, बल्कि इसलिए बनते हैं क्योंकि आपमें देने का कोई भाव नहीं है। देव ऐसे प्राणी होते हैं जो तेजस्वी होते हैं, जिनमें बिखेरने का गुण होता है।
देने का भाव होने से मतलब यह नहीं है कि ये चीज देना या वो चीज देना। इसका मतलब बस इतना है कि आपकी जीवन प्रक्रिया ही ऐसी हो जाए कि आप हमेशा कुछ दे रहे हों। जो भी दिया जा सकता है, उसे दे दिया जाए, जहां भी उसकी जरूरत हो। इसमें यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आपको कहां देना है, कितना देना है और क्या देना है। इस तरह के हिसाब से सब बेकार हो जाता है। अगर आप अपने जीवन को ‘मैं क्या पा सकता हूं’ से ‘मैं क्या दे सकता हूं’ में रूपांतरित कर दें, तो आप देव बन जाते हैं।
सिर्फ परोपकार के बारे में सोच कर आप तेजस्वी नहीं बन जाते। आप तेजस्वी तब बनते हैं, जब आपके भीतर रख लेने का भाव खत्म हो जाता है। आप जीवन को थोड़ा ध्यान से देखने की कोशिश करें। आप पाएंगे कि यहां कुछ भी ऐसा नहीं है जो दिया जा सके, क्योंकि यहां ऐसा कुछ भी नहीं है जो आप अपने साथ लेकर आए थे। आज आपके पास जो कुछ भी है, वह सब कुछ आपने इसी धरती से लिया है। जरा सोच कर देखिए, ‘अगर मैं सब कुछ दे दूं, तो मेरे साथ क्या होगा?’ तब होगा ये कि सारी दुनिया आपकी हो जाएगी। हम अकसर सोचते हैं, ‘अगर मैं यह दे दूंगा, तो इतना चला जाएगा, अगर मैंने वह दे दिया तो उतना चला जाएगा।’ जबकि ये सब हिसाब-किताब बेकार है, घटिया है। सच तो यह है कि अगर आप अपना जीवन अपने आसपास मौजूद हर इंसान से बांटते रहते हैं, उनको देते रहते हैं, तो हर कोई आपकी देखभाल करेगा।
‘मुझे क्या करना चाहिए? अपनी तनख्वाह का कितना हिस्सा मुझे दान करना चाहिए?’ बात इसकी नहीं है। आपको खुद को रूपांतरित करना होगा। क्या आपको लगता है कि एक नारियल का पेड़ ये हिसाब लगाता है कि मुझे कितने नारियल देने चाहिए? अगर मैं सौ नारियल दे दूंगा, तो ये लोग ज्यादा पैसे बना लेंगे।
इस जीवन को तेजस्वी बनाने के लिए आपको धर्मग्रंथ पढ़ने की जरूरत नहीं है- ज्यादा धर्मग्रंथ आपको हजम नहीं होंगे। देवताओं को पाने के लिए ऊपर या नीचे मत देखिए। इस अस्तित्व में बस एक प्राणी को चुन लीजिए। अगर आपको कीड़ा सही लगता है तो कीड़ा ही ले लीजिए। अगर आपको पेड़ अच्छा लगता है तो पेड़ को चुन लीजिए। बस किसी भी एक जीवन को चुन लें, फिर उसे खूब ध्यान से देखें। आप पाएंगे कि सारे के सारे प्राणी जितना ज्यादा से ज्यादा जीवन हो सकता है, वे दे रहे हैं।
ये सिर्फ इंसान ही है, जो चीजें अपने पास रोके रखने की कोशिश कर रहा है। शायद इसकी वजह यह है कि उसकी बुद्धि तो तार्किक है, लेकिन वह उसका सही इस्तेमाल करना नहीं जानता। इस अस्तित्व ने, सृष्टा ने आपको बुद्धि इसलिए दी है, कि आप उसका वैसे इस्तेमाल कर सकें, जैसे संसार के दूसरे प्राणी नहीं कर सकते- ऊंचा उठने के लिए, अपने रूपांतरण के लिए, न कि संचय के लिए। यह बुद्धि आपको इसलिए दी गई थी, कि आप उन चीजों तक पहुंच सकें, जो इस दुनिया से परे की हैं। प्रकृति को विश्वास था कि आप उस असीम प्रकृति को खोजने की कोशिश करेंगे, न कि हिसाब लगाने में उलझ जाएंगे।