सद्‌गुरुसाधु और सन्यासियों द्वारा भिक्षा माँग कर खाना योग परम्परा का एक हिस्सा है। क्यों बनाई गयी थी ये परंपरा? आइये जानते हैं कि कैसे भिक्षा मांगना और खाली पेट रहना आध्यात्मिक साधना में मदद करता है।

भिक्षा मांगना परम्परा का अंग रहा है

अपने देश में भिक्षा मांगना आध्यात्मिक परंपरा का अंग रहा है। लोग अपने भोजन को खुद नहीं चुनते थे। वे बस भिक्षा मांगते थे और जो कुछ भी मिल जाता था, खा लेते थे। यह बड़े गौरव की बात समझी जाती थी कि आध्यात्मिक मार्ग पर चल रहा कोई शख्स आपके दरवाजे पर खड़ा आपसे भिक्षा मांग रहा है, और आप उसे कुछ भेंट दे रहे हैं। आजकल ऐसी परंपराओं का दुरुपयोग हो रहा है। ऐसे तमाम लोग हैं, जो आध्यात्मिक साधक का चोला धारण करके भोजन और पैसों की तलाश में भीख मांगते नजर आते हैं। ये सामान्य भिखारी ही होते हैं। लेकिन जब लोग पूरी जागरूकता के साथ मांगते थे, तो उसमें अलग तरह की संभावना होती थी, उसका अर्थ ही अलग होता था।

क्या भिक्षा मांगने वाले की मदद करनी चाहिए?

जब कोई आपके सामने हाथ फैलाता है और आपको यह लग जाए कि यह भिक्षा मांगने के रिवाज का दुरुपयोग कर रहा है तो आप उसे भीख देने से मना कर सकते हैं। लेकिन अगर आपको ऐसा लगता है कि वह मजबूरी में अपनी सही जरूरतों को पूरा करने के लिए ऐसा कर रहा है तो एक अच्छे इंसान के नाते उसकी मदद जरूर कीजिए। जरा सोचकर देखिए, यूं ही सडक़ पर किसी के सामने हाथ फैलाना कितना मुश्किल काम है। वह इंसान इस सबसे गुजर रहा है।

एक आध्यात्मिक इंसान भिक्षा इसलिए मांगता है क्योंकि वह अपने अहम को छोड़ना चाहता है।
भिखारी अपनी असहायता के चलते यह सब कर रहा है, लेकिन संन्यासी ऐसा अपने आध्यात्मिक विकास के लिए पूरी जागरूकता के साथ कर रहा है, जिससे कि उसे अपने पर जरूरत से ज्यादा अहंकार न हो जाए। एक सामान्य भिखारी का ऐसा कोई लक्ष्य नहीं होता। वह अपनी किसी अक्षमता की वजह से काम नहीं कर सकता और इसलिए अपना पेट भरने के लिए यह सब कर रहा है। आपको यह समझना होगा कि अक्षमता एक हाथ या पैर न होने को ही नहीं कहते। जीवन के बारे में आपकी सोच भी आपको अक्षम बना सकती है। देखा जाए तो जीवन के प्रति सोचने का जो लोगों का तरीका है, उसके कारण एक बड़ी आबादी मानसिक और भावनात्मक रूप से अपंग हैं। इसी तरह भिखारी ने अपने आपको दूसरों से अलग कर लिया है और उसकी सोच ऐसी बन गई है कि आजीविका कमाने का सबसे आसान तरीका भीख मांगना ही है।

क्यों मांगते हैं आध्यात्मिक साधक भीख?

एक आध्यात्मिक इंसान भिक्षा इसलिए मांगता है क्योंकि वह अपने अहम को छोड़ना चाहता है। आमतौर पर लोगों की सोच होती है कि मैं अपनी आजीविका कमाता हूं, मेरा अपना पैसा है, मेरा अपना भोजन है, मेरा अपना घर है - ये विचार आपके अहम को बढ़ाते हैं। एक दिन एक आदमी कुछ फूल लेकर गौतम बुद्ध के पास आया। यह हमारे यहां परंपरा रही है कि जब हम किसी गुरु से मिलने जाते हैं, तो उनके लिए फूल ले जाते हैं। जब वह इंसान फूल लेकर गौतम बुद्ध के पास पहुंचा तो उन्होंने कहा, ‘गिरा दो’। उस शख्स ने इधर-उधर देखा और सोचा कि गौतम उससे क्या गिराने को कह रहे हैं। उसे लगा कि उसे फूल गिराने हैं। उसने हिचकिचाते हुए कहा कि ये फूल तो मैं आपके लिए लेकर आया हूं। गौतम ने फिर कहा - ‘गिरा दो’। उस इंसान ने फूलों को गिरा दिया। गौतम ने फिर कहा - ‘गिरा दो’। उस आदमी ने कहा कि मैंने फूल तो गिरा दिए। मैं आपके लिए फूल लाया था, लेकिन जब आपने कहा कि गिरा दो तो मैंने फूल गिरा दिए। अब आप क्या गिराने की बात कह रहे हैं? गौतम ने कहा - ‘नहीं, पहले अपने अहम को गिराओ। फूल कोई समस्या नहीं है। तुम मेरे लिए फूल लाए, अच्छी बात है, मैं इन्हें स्वीकार कर लूंगा, लेकिन पहले अपने अहम को छोड़ो।

भिक्षा : अपने अहंकार को तोड़ने का साधन

इस तरह भिक्षा मांगने को अपने अहम को छोड़ने के एक साधन के तौर पर प्रयोग किया जाता था। क्योंकि आजीविका कमाने के चक्कर में आपके भीतर बहुत सारा अहम इकठ्ठा हो जाता है। लेकिन किसी के सामने हाथ फैलाते ही आप अपने अहम को त्याग देते हैं। आपको अच्छी तरह पता होता है कि आप समर्थ हैं, आप एक राज्य चला सकते हैं, फि र भी आप भिक्षा मांगने को चुनते हैं। किसी इंसान के भीतर यह एक जबर्दस्त बदलाव है। तो हमारे यहां ऐसी परंपरा रही है कि साल में एक बार आपको भिक्षा मांगने के लिए निकलना चाहिए जिससे कि आप अपने बारे में बहुत बड़ी-बड़ी बातें सोचना बंद कर सकें। लोग आपको भोजन दे सकते हैं या आपको दरवाजे से भगा भी सकते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन एक भिखारी बनना कोई छोटी बात नहीं है।

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आध्यात्मिक होने का मतलब यह कतई नहीं है कि आप मंदिर जाएं और प्रार्थनाएं करें। यह आध्यात्मिकता नहीं है। यह तो भौतिकता है।
आध्यात्मिकता क्या है? आध्यात्मिक होने का मतलब यह कतई नहीं है कि आप मंदिर जाएं और प्रार्थनाएं करें। यह आध्यात्मिकता नहीं है। यह तो भौतिकता है। अगर भगवान नीचे उतर आएं और खुलकर कहें कि वे आपकी किसी भी भौतिक जरूरत को पूरा नहीं करेंगे, तो ज्यादातर लोग उनसे नाता ही तोड़ लेंगे। आपको लगता है कि आपके देवता आपके लिए सौभाग्य, पैसा, स्वास्थ्य और सफलता लेकर आते हैं, इसलिए आप उनसे जुड़े होते हैं। यह आध्यात्मिकता नहीं है, यह तो भौतिकता है।

आप स्वर्ग जाना चाहते हैं, यह आध्यात्मिकता नहीं है। स्वर्ग का अर्थ है कि जो भी सुख सुविधाएं और विलासिता के साधन हो सकते हैं, वे सब वहां हर वक्त मौजूद हैं, इसलिए आप वहां जाना चाहते हैं। जाहिर है स्वर्ग जाने की चाह अपने आप में भौतिकवादी इच्छा ही है।

अभी आप हर चीज को अपनी पांचों इंद्रियों की सीमा में रहकर देखते-समझते हैं। इस वजह से आपके जीवन का पूरा अनुभव भौतिक है। अध्यात्म का मतलब है उस चीज की खोज करना जो भौतिकता से परे है। अगर आप ऐसी चीज को खोजना चाहते हैं जो भौतिकता से परे है, तो यह जरूरी नहीं है कि आप भौतिकता को इन्कार करें, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि आप भौतिकता से परे जाने के इच्छुक हों।

भिक्षा मांगना एक साधना है

गौतम कहते हैं कि अगर आप बहुत ज्यादा भूखे हों और उस वक्त आप अपने आगे का भोजन किसी दूसरे को दे दें तो आप बहुत शक्तिशाली हो जाते हैं।
आमतौर पर जब कोई पारिवारिक जीवन जीता है, तो भौतिकता बहुत अहम हो जाती है। भौतिक शरीर को आराम में रखना और उसे दुलारना, यानी ठीक से खाना या अच्छा पहनना, बेहद अहम हो जाता है। जब आपका भौतिक शरीर आपके भीतर इतना महत्व पा लेता है, जब आप अपने शरीर के साथ इतनी गहराई के साथ जुड़ जाते हैं तो आप भौतिक को रूपांतरित करने की कोई कोशिश ही नहीं करते। भौतिकता से परे जाने की आपकी जरुरत व लालसा आपके भीतर से धीरे-धीरे खत्म होने लगती है। ऐसे में आप इस भौतिक को बढ़ाने का काम शुरू कर देते हैं। इस भौतिक से परे क्या है, आप उसे खोजने की कोशिश ही नहीं करेंगे। योग में ऐसे कई तरीके हैं, जो आपकी अपने भौतिक शरीर की सीमाओं से परे जाने में मदद करते हैं। इनमें से ही एक तरीका है परिव्रजक या भिक्षुक।

जब आपको पता होता है कि आपको 7 बजे भोजन तैयार मिलेगा, तो आपकी जिंदगी एक तरीके से चलती है। जब आपको पता नहीं होता कि आपको अगला भोजन कब मिलेगा, तो जीवन बिल्कुल अलग तरह का होता है। भोजन आपके लिए बेहद मामूली बात है, अगर वह आपके पास है। लेकिन अगर आपके पास भोजन नहीं है तो आपके लिए यह बहुत बड़ी चीज है। आपको नहीं पता कि कई दिनों तक भूखे रहने और फिर भी पूरी जागरूकता और शालीनता के साथ चलते रहने के लिए किस चीज की जरूरत होती है। ऐसा करने के लिए किसी इंसान के भीतर जबर्दस्त शक्ति का होना जरूरी है।

अपने देश में भिक्षा मांगने को अपमानजनक नहीं माना जाता था। बहुत सारे महान लोग, ऐसे लोग जिनकी इस देश में पूजा होती है, वे भिक्षुक थे। इसलिए हमें भिक्षुक बनने में शर्माने की कोई जरूरत नहीं है। भिक्षा को हम अपनी गुणवत्ता बढ़ाने और अपनी सीमाओं से परे जाने के एक साधन के तौर पर देखते हैं।

खाली पेट रहने से जागरूकता का नया स्तर आ सकता है

हर इंसान के लिए यह अच्छा है कि वह कुछ समय बिल्कुल बिना किसी सहारे के रहे। जब आपका पेट भरा होता है तो आप अपने जीवन में बहुत सारी बुनियादी वास्तविकताओं को भूल जाते हैं। भूख वह वक्त है जब आप पूरी तरह से शरीर बन जाते हैं। जब आप भूखे होते हैं, तो आप बैठ कर सोचिए कि मैं शरीर नहीं हूं - यह अपने आप में शानदार बात होगी। जब पेट भरा होता है और आप कहते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं, तो इसमें वह बात नहीं है। जब आप भूखे होते हैं, तो वास्तव में आप शरीर होते हैं। उस वक्त अगर आप अपनी जागरूकता को संभाल सकें और पूरी शालीनता के साथ चल सकें, तो आप कुछ और ही बन जाते हैं। गौतम कहते हैं कि अगर आप बहुत ज्यादा भूखे हों और उस वक्त आप अपने आगे का भोजन किसी दूसरे को दे दें तो आप बहुत शक्तिशाली हो जाते हैं। किसी तार्किक दिमाग वाले इंसान को यह बात मुश्किल से समझ आएगी। वह तो आपसे यही कहेगा, अरे नहीं, शक्तिशाली होने के लिए रोजाना आपको इतनी कैलरी, इतना प्रोटीन, इतने मिनरल लेने ही होंगे। सचाई यही है कि जब आप बहुत ज्यादा भूखे हों और आप अपने भोजन को किसी दूसरे को दे दें, तब आप जबर्दस्त शक्ति महसूस करते हैं। तब कोई और ही चीज आपके भीतर प्रवेश करती है। यह एक अलग तरह की शक्ति होती है जो भोजन आपको कभी दे ही नहीं सकता।

संपादक की टिप्पणी:

यह लेख ईशा लहर मासिक पत्रिका से लिया गया है।