भगवान मुफ्त में क्यों नहीं मिलते?
हाल की में एक भेंटवार्ता के दौरान सद्गुरु एक सवाल का जवाब दे रहे हैं कि ईशा योग प्रोग्राम मुफ्त में क्यों नहीं किए जाते। आलोक: भगवान मुफ्त में क्यों नहीं मिलते? सद्गुरु: कौन कहता है कि उनके लिए कोई पैसा लगता है? आध्यात्मिक प्रक्रिया के लिए कोई ...
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हाल की में एक भेंटवार्ता के दौरान सद्गुरु एक सवाल का जवाब दे रहे हैं कि ईशा योग प्रोग्राम मुफ्त में क्यों नहीं किए जाते।
आलोक: भगवान मुफ्त में क्यों नहीं मिलते?
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सद्गुरु: कौन कहता है कि उनके लिए कोई पैसा लगता है? आध्यात्मिक प्रक्रिया के लिए कोई पैसा नहीं लगता।
आलोक: और आध्यात्मिक कोर्स के लिए?
सद्गुरु: अब देखिए अगर अभी आप यहां बैठे हैं, तो रोशनी जल रही है, बिजली खर्च हो रही है। यहां बैठने और खड़े होने के लिए भी हर चीज की एक कीमत देनी होती है। यह कीमत कौन चुकाएगा? आपका ख्याल है कि कोई और अगर इसकी कीमत चुका दे, तो आप आध्यात्मिक हो जाएंगे। अगर आप कीमत चुकाते हैं, तो यह आध्यात्मिक नहीं है। नहीं, मैं ऐसा नहीं सोचता। यह विचार बहुत ही कायरता-पूर्ण है।
हमारा 70 फीसदी काम गांवो में होता है और यह सारा-का-सारा बिल्कुल मुफ्त है। आध्यात्मिक प्रोग्राम मुफ्त हैं, स्कूल मुफ्त हैं, अस्पताल मुफ्त हैं, और गांवों में हम जो भी सामाजिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं वे सब बिलकुल मुफ्त हैं। शहर में इनके लिए शुल्क लगता है। यहां भी अगर आप पैसे नहीं देना चाहते, तो अगर मैं यह प्रोग्राम किसी झोपड़ी में करूं तो क्या आप वहां आएंगे? नहीं आएंगे, क्योंकि आप यह प्रोग्राम किसी स्टार होटल में चाहते हैं, और साथ ही चाहते हैं कि यह मुफ्त हो। अगर आपको एक दर्जे की सुविधा और आराम चाहिए, अगर आपको लंच, डिनर और तमाम सेवाएं चाहिए, तो आपको पैसे तो देने होंगे। आध्यात्मिक प्रक्रिया मुफ्त है, क्योंकि आप मेरे लिए या दूसरे शिक्षकों के लिए कोई फीस नहीं दे रहे हैं। वे सारे लोग पूरी तरह से स्वयंसेवक हैं। आप तो सिर्फ सेवाओं की कीमत चुकाते हैं।
पहले हम ये प्रोग्राम मुफ्त में किया करते थे, पर तब लोग उसकी इज्जत नहीं करते थे और अपनी मर्जी से आते-जाते रहते थे। दुर्भाग्य से ज्यादातर लोग अपने पैसे की जितनी कीमत समझते हैं, उतनी अपनी जुबान की नहीं। अगर वे कहते हैं, “मैं आउंगा”, तो कोई जरूरी नहीं कि वो आएंगे ही, लेकिन अगर वो शुरू में ही पैसे जमा कर दें तो उनका आना लगभग तय हो जाता है।
जब हमने देखा कि मुफ्त के प्रोग्राम ठीक से चल नहीं पा रहे, तो हमने कहा कि आप अपनी मासिक आमदनी का 20% दे दें। तब हमने देखा कि लोग हमारे पास उस तरह से आ रहे हैं जैसे वे इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में जाया करते हैं – झूठ का पुलिंदा ले कर। इस तरह हम अपने प्रोग्राम झूठ की बुनियाद पर शुरू कर रहे थे। फिर हमने फैसला किया कि अलग-अलग तबके के लोगों के लिए हम अलग-अलग फीस रखेंगे। शहरों में अलग फीस, छोटे कस्बों में कम और गांवों में बिलकुल मुफ्त।
ऊंचे स्तर के प्रोग्राम बिलकुल मुफ्त होते हैं। जब आप सम्यमा के लिए आते हैं, तो वहां कोई शुल्क नहीं देना पड़ता, क्योंकि उस प्रोग्राम में जो लोग आते हैं, वे बहुत समर्पित और प्रतिबद्ध होते हैं। आठ दिन के सम्यमा कार्यक्रम में भाग लेने वाले एक हजार लोगों पर अच्छा-खासा पैसा खर्च होता है, लेकिन यह सबके लिए बिलकुल मुफ्त है। लोग अपनी इच्छा से अपनी क्षमता के अनुसार जैसे चाहे वैसे मदद करते हैं। लेकिन जब हम आम लोगों के लिए कोई प्रोग्राम शुरू करते हैं, तो बिना फीस के यह बेतुका हो जाता है। समर्पण और निष्ठा न होने पर लोग प्रोग्राम में अपनी मर्जी से आते-जाते हैं। दुर्भाग्य से उनको बांधे रखने का एक ही तरीका है और वह है पैसा।