बकासुर वध - महाभारत में बकासुर की मृत्यु कैसे हुई थी?
बकासुर का वध पांडव पुत्र भीम ने किया था। जब पांडव और कुंती एकचक्र में रह रहे थे, तब बकासुर नाम का एक दानव भी उस नगर में रहता था। वो इस नगर से हर हफ्ते एक बैलगाड़ी भरकर खाना दो बैल और एक व्यक्ति लेता था। एक दिन भीम ने खुद वहां खाना लेकर जाने और बकासुर का भोजन बनने की इच्छा प्रकट की और एक भयंकर लड़ाई में उसने बकासुर का वध कर दिया।
अब तक की कथा: पांडव लाक्षागृह से बच निकले और एक जंगल पहुंचे। वहां एक आदमखोर राक्षस और भीम के बीच एक भयंकर लड़ाई हुई और भीम ने उसे मार गिराया। उस राक्षस के बहन हिडिम्बा भीम के प्रेम में पड़ गयी और उनके पुत्र घटोत्कछ का आगमन हुआ। इसके बाद वे एकचक्र नाम के शहर में रहने चले गए
बकासुर की मृत्यु
जब पांडव और कुंती एकचक्र में रह रहे थे, उन्हीं दिनों बकासुर नाम का एक नरभक्षी राक्षस उस नगर के पास आकर रह रहा था। उसने इस नगर का विनाश करना शुरू कर दिया था।
बकासुर के मरने और लाक्षागृह के जल जाने के करीब-करीब एक साल बाद पांडवों को लगा कि उन्हें अपने अज्ञातवास से बाहर आना चाहिए। चूंकि उन्हें मरा हुआ मान लिया गया था, इसलिए कोई भी आसानी से उन्हें मार सकता था और किसी को शक भी नहीं होता, इसलिए उन्हें बहुत सावधानी से वापसी की योजना बनानी थी। एक बार जब वे जंगल में थे, तो वे झील के निकट आए। वे झील से पानी पीना चाहते थे मगर वहां एक गंधर्व था जिसका नाम अंकारपर्ण था और जो उस झील को अपना समझता था। यह जानकर कि अर्जुन एक महान तीरंदाज है, उसने अर्जुन को चुनौती देते हुए कहा, ‘तुम्हें मेरी झील से पानी पीने से पहले मेरे साथ मल्लयुद्ध करना होगा।’ एक भयंकर मल्ल्युद्धके बाद गंधर्व हार कर अचेत हो गया। एक योद्धा के धर्म का पालन करते हुए अर्जुन को उसे मारना था क्योंकि किसी आदमी को हराकर छोड़ देना उसे शर्मिंदा करना माना जाता था।
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एक क्षत्रिय आम तौर पर हार जाने के बाद जीवित नहीं रहना चाहता था, वह मरना पसंद करता था। अर्जुन उसका सिर काटने ही वाला था कि तभी अंकारपर्ण की पत्नी कुंभनाशी आकर उसके आगे गिड़गिड़ाने लगी, ‘वह क्षत्रिय नहीं हैं। उन्हें हारने के बाद जीवित रहने में कोई आपत्ति नहीं होगी। उनकी पत्नी के रूप में मैं आपसे उनके प्राणों की भीख मांगती हूं। आप दोनों के धर्म अलग-अलग हैं। इसलिए उन्हें मारने की जरूरत नहीं है।’ अर्जुन ने उसकी जान बख्श दी। जब गंधर्व होश में वापस आया, तो उसने कृतज्ञ होकर अर्जुन को बहुत से उपहार दिए जिनमें सौ घोड़े और क्षत्रियों के काम आने वाली बाकी चीजें थीं। साथ ही उसने चतुराई और बुद्धिमत्ता की एक सौ कहानियां सुनाईं। इनमें से हम एक कहानी चुनेंगे जो खास तौर पर पांडवों और उनके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण थी।
शक्ति ऋषि की कथा
अंकारपर्ण ने प्रसिद्ध ऋषि वशिष्ठ के पुत्र ‘शक्ति’ की कथा सुनाई। ऋषि वशिष्ठ की रामायण में महत्वपूर्ण भूमिका थी। एक बार शक्ति वन से गुजर रहे थे और आगे जाकर एक झरने के पास पहुंचे, जिस पर एक पतला सा पुल था। वह पुल पर चढ़ने ही वाले थे कि उन्होंने राजा कल्माषपाद को पुल के दूसरी ओर से उस पर चढ़ते देखा। उनमें से एक को पीछे हटना पड़ता। राजा ने शक्ति से कहा, ‘मैं यहां पहले आया हूं। मुझे रास्ता दो।’ अपने पिता की प्रतिष्ठा पर अहंकार में चूर शक्ति ने कहा, ‘तुम रास्ता दो। मैं ब्राह्मण हूं और तुमसे ऊंचा हूं।’ उसने श्राप दिया कि कल्माषपाद राक्षस बन जाए। राजा नरभक्षी राक्षस बन गया और वहीं पर शक्ति को खा गया।
वशिष्ठ अपने पुत्र को खोकर निराश थे, खास तौर पर इसलिए क्यांकि उन्होंने ही उसे वरदान और श्राप देने की शक्ति प्रदान की थी। शक्ति ने गलत व्यक्ति को गलत श्राप दिया और खुद ही उसके शिकार हो गए। शक्ति का पुत्र पाराशर अपने दादा वशिष्ठ के संरक्षण में बड़ा होने लगा। जब उसे पता चला कि उसके पिता के साथ क्या हुआ था, तो उस युवक ने प्रतिशोध लेने की ठानी।
उन्हें कई बार कई अलग-अलग तरीकों से धोखा दिया गया था। इससे भी बढ़कर उनके प्राण लेने की कई कोशिशें की गई थीं। इस बार तो उनकी मां समेत पांचों को खत्म करने की खुल्लम खुल्ला साजिश की गई थी। वे बदला लेने के लिए तड़प रहे थे। उन्हें यह कहानी सुनाने के बाद अंकारपर्ण ने उन्हें सलाह दी, ‘प्रतिशोध पर अपना समय और ऊर्जा नष्ट मत कीजिए। आप राजा बन सकते हैं। इसलिए पहले एक पुरोहित खोजिए, फिर शादी कीजिए, जमीन हासिल कीजिए, खुद अपना राज्य बनाइए और राजा बन जाइए। बदला लेने की कोशिश मत कीजिए।’ इस कहानी को सुनने के बाद वे प्रतिशोध लेने के बारे में थोड़ा और सतर्क हो गए, मगर उनके दिल से वह निकला नहीं था। उन्होंने पहले एक पुजारी की तलाश की। वे देवला मुनि के छोटे भाई धौम्य के पास गए, जो करीब के एक आश्रम में रहते थे और उनसे अपना पारिवारिक पुरोहित बनने का अनुरोध किया।
द्वापर युग में एक पारिवारिक पुरोहित होना बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि हर अवसर पर शक्तिशाली यज्ञ जरूरी होते थे। उन्हें धौम्य के रूप में एक काबिल पुरोहित मिल गया जो हमेशा उनके पक्ष में खड़ा रहता था। फिर पांडवों ने सुना कि पांचाल देश के राजा द्रुपद ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर आयोजित किया है, जिसका मतलब था कि राजकुमारी अपना होने वाला पति चुनने वाली थी। द्रुपद ने द्रोण के साथ भारद्वाज ऋषि, जो द्रोण के पिता थे, के संरक्षण में अध्ययन किया था। वहां द्रुपद और द्रोण घनिष्ठ मित्र बन गए थे। तेरह वर्ष की उम्र में द्रुपद और द्रोण ने एक-दूसरे से वादा किया था, ‘चाहे हम कितनी भी संपत्ति जमा कर लें, अपने जीवन में जो भी उपलब्धि हासिल कर लें, हम उसे एक-दूसरे के साथ बांटेंगे।’
द्रोण और द्रुपद का टकराव
शिक्षा पूरी होने के बाद द्रुपद पांचाल लौट गए और राजा बन गए। द्रोण अपने अलग जीवन में चले गए और कृपाचार्य की बहन कृपी से विवाह कर लिया। उनका अश्वत्थामा नाम का एक पुत्र था। जन्म के समय किसी अश्व यानी घोड़े की तरह हंसने के कारण उसका नाम अश्वत्थामा पड़ गया था। उस समय के कृषि प्रधान समाज में दूध मुख्य भोजन होता था। मगर अश्वत्थामा का परिवार बहुत गरीब था जिसके पास न तो जमीन थी, न ही गायें, इसलिए इस बालक ने कभी दूध देखा ही नहीं था। एक बार शहर जाने पर उसने दूसरे लड़कों को दूध पीते देखा और उनसे पूछा कि वह क्या है। उन्हें एहसास हुआ कि अश्वत्थामा ने पहले कभी दूध नहीं देखा है। इसलिए उन्होंने थोड़ा चावल का आटा पानी में मिलाकर अश्वत्थामा को दे दिया। वह उसे दूध समझ कर खुशी-खुशी पी गया।
दूसरे लड़के उसका मजाक उड़ाने लगे क्योंकि वह दूध के बारे में जानता तक नहीं था। जब द्रोण को इस घटना के बारे में पता चला तो वह बहुत क्रोधित और बेचैन हो गए। फिर उन्हें याद आया कि उनके मित्र द्रुपद, जो अब एक बड़े राजा बन चुके थे, ने उनसे वादा किया था कि वह अपनी हर चीज द्रोण के साथ बांटेंगे। वह द्रुपद के दरबार में पहुंचे और कहा, ‘तुम्हें वह वादा याद है, जो हमने एक-दूसरे से किया था? तुम्हें अपना आधा राज्य मुझे देना चाहिए।’ उस वादे को कई साल हो चुके थे।
द्रुपद ने द्रोण को देख कर कहा, ‘तुम एक गरीब ब्राह्मण हो। तुम इसलिए क्रोधित हुए क्योंकि तुम्हारे पुत्र का अपमान किया गया। मैं तुम्हें एक गाय देता हूं, उसे लेकर चले जाओ। अगर तुम्हें और चाहिए, तो मैं तुम्हें दो गायें देता हूं। मगर एक ब्राह्मण के तौर पर तुम कैसे मेरा आधा राज्य मांग सकते हो?’ द्रोण ने कहा, ‘मैं तुमसे एक गाय नहीं आधा राज्य मांगने आया हूं। मुझे तुम्हारी खैरात की जरूरत नहीं है। मैं यहां मित्रता के नाते आया था।’ फिर द्रुपद ने कहा, ‘मित्रता बराबरी वाले लोगों में होती है। एक राजा और एक भिखारी मित्र नहीं हो सकते। तुम सिर्फ दान ले सकते हो। अगर तुम चाहो तो गाय ले लो, वरना यहां से जाओ।’ गुस्से से उबलते हुए द्रोण वहां से चले गए और इसका बदला लेने का प्रण किया।