अध्यात्म में रंगों की भूमिका
अलग अलग तरह की आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के लिए हम अलग अलग तरह के रंगों का प्रयोग करते हैं। क्या रंगों का अध्यात्म से कोई संबंध है?
अलग अलग तरह की आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के लिए हम अलग अलग तरह के रंगों का प्रयोग करते हैं। क्या रंगों का अध्यात्म से कोई संबंध है?
रंगों का महत्व इस मामले में है कि जिस रंग को आप परावर्तित (रिफ्लेक्ट) करते हैं, वह अपने आप ही आपके आभामंडल से जुड़ जाएगा। जो लोग आत्म-संयम या साधना के पथ पर हैं, वे कुछ भी पहनना नहीं चाहते, क्योंकि वे खुद से किसी भी नई चीज को नहीं जोडऩा चाहते। उनके पास जो है, वह उसके साथ ही काम करना चाहते हैं। आप अभी जो हैं, उस पर ही काम करना बहुत महत्वपूर्ण है। एक-एक करके चीजों को जोडऩे से जटिलता पैदा होती है। इसलिए उन्हें कुछ नहीं चाहिए। वे नग्न घूमते हैं। नंगे घूमने में अगर सामाजिक रूप से परेशानी होती है तो वे लंगोट पहन लेते हैं, ताकि सामाजिक रूप से कोई समस्या न हो। दरअसल, विचार यह है कि वे जो भी हैं, उससे ज्यादा वे कुछ भी नहीं लेना चाहते। उन्हें पता है कि वो जो भी हैं, वही बहुत है।
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अलग-अलग तरह की आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के लिए हम अलग अलग तरह के रंगों का प्रयोग करते हैं। जो लोग आध्यात्मिक पथ पर हैं, लेकिन साधना कम करते हैं और वे जीवन के तमाम पहलुओं में उलझे हैं, वे सफेद पहनना पसंद करते हैं। जो लोग एक ऐसी तीव्र साधना में लगे हैं, जिसका संबंध आज्ञा चक्र (दोनों भौंहों के बीच) से है, वे गेरुआ रंग पहनते हैं, क्योंकि आज्ञा चक्र का रंग गेरुआ ही है। वे इस रंग को फैलाना चाहते हैं, क्योंकि पूरी की पूरी प्रक्रिया आत्मज्ञान पाने की है, और बोध की एक खास अवस्था तक पहुंचने की है, ज्ञान तथा बोध के उस पहलू को खोलने की है जिसे तीसरी आंख कहा जाता है। इसलिए वे लोग हमेशा गेरूआ या नारंगी रंग की तलाश में होंगे, क्योंकि यही आज्ञा चक्र का रंग है।
किसी सन्यासी के पहनने के लिए दूसरा सबसे अच्छा रंग काला हो सकता है आमतौर पर हमने काले रंग को बहुत से अशुभ पहलुओं के साथ जोड़ दिया है, इसलिए काले रंग से दूर रहने की कोशिश की जाती है, लेकिन परंपरागत रूप से ईसाई भिक्षुकों ने हमेशा काला या काले जैसा रंग पहना है। अगर वे बाहर भूरा रंग भी पहनते हैं तो भी अंदर के कपड़ों का रंग हमेशा काला ही होता है। ईसाई नन और संन्यासियों को देख लीजिए, उनका सिर से बांधने का कपड़ा काला ही होगा। चूंकि उनके यहां बहुत सी सभाएं होती हैं, इसलिए अपनी एक अलग पहचान बनाने के मकसद से वे भूरा या कोई दूसरा रंग पहन रहे हैं। नहीं तो मूल रूप से कैथलिक-परंपरा में रंगों के लिए यह नियम है कि सिर के लिए काला, दिल के लिए सफेद और बाकी शरीर के लिए गहरे भूरे रंग का पोशाक होना चाहिए। क्योंकि दिल पवित्र है, सिर ज्ञान की अवस्था में है। बाकी शरीर के लिए बादामी रंग है, जो कि बेहद स्थिर और स्थाई रंग है। भूरा रंग ऐसा है जो अपने आपको उलझाता या फंसाता नहीं है। आपको पता है, भूरा एक ऐसा रंग है जिसे आपकी आंखें आसानी से चूक सकती हैं। इसलिए यह बाहरी दुनिया में शामिल होने से बचाता है।
पीले कपड़े बौद्ध भिक्षुकों द्वारा पहने जाते थे, क्योंकि शुरुआती अवस्था के लिए बौद्ध भिक्षुकों को गौतम ने जो प्रक्रिया बताई थी, वह बिल्कुल बुनियादी थी। उन्होंने लोगों के लिए वह प्रक्रिया इसलिए चुनी, क्योंकि इसमें किसी खास तैयारी की आवश्यकता नहीं थी। वह जागरूकता की एक लहर चलाना चाहते थे। वह एक दिन से ज्यादा किसी शहर में नहीं रुकते थे, लगातार एक गांव से दूसरे गांव, एक शहर से दूसरे शहर घूमते रहते थे। किसी भी तरह के अभ्यास के लिए लोगों को तैयार करने का उनके पास समय ही नहीं था, इसलिए जो अभ्यास उन्होंने लोगों को बताया, वह बड़ा बुनियादी था। फिर भी वह लोगों को भिक्षुक बनाते रहे, उनके जीवन को ठीक करते रहे, लेकिन शुरुआती तैयारी काफी नहीं करा पाए। इसलिए उन्होंने लोगों से पीले वस्त्र पहनने को कहा, क्योंकि पीला रंग मूलाधार का रंग है। शरीर में सबसे बुनियादी चक्र मूलाधार ही है। दरअसल, वह लोगों को स्थिर बनाना चाहते थे। एक भिक्षुक के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वह अपने जीवन में स्थायित्व पाने का अभ्यास करे। गौतम का मकसद यह नहीं था कि लोगों को परमानंद का अनुभव हासिल हो। उन्हें फौरन ज्ञान हासिल करने की जरूरत नहीं है, उन्हें किसी अवस्था को प्राप्त नहीं करना है, उन्हें बस स्थिर रहना सीखना है। दरअसल गौतम दुनिया को झकझोरने और जगाने के लिए सैनिक तैयार कर रहे थे। उन्होंने लोगों को पीले वस्त्र पहनने को कहा। जब आप कुछ जन्मों तक चलने के लिए एक आध्यात्मिक पथ तैयार कर रहे होते हैं, तो इस तरह की प्रक्रिया सिखाई जाती है। बौद्ध जीवन शैली में यह परंपरा अब भी जारी है। वे इस पर और ज्यादा काम करने के लिए बार-बार वापस आते रहते हैं, क्योंकि प्रक्रिया ही ऐसी है। यह प्रक्रिया स्थायित्व लाने के लिए है, आत्मज्ञान के लिए नहीं, इसीलिए पीले रंग की बात कही गई है।
बाद में जब लोगों ने अरहत की उपाधि हासिल कर ली, जैसा कि बौद्ध परंपरा में कहा जाता है, उन्होंने भारतीय सन्यासियों की तरह गेरुए रंग के कपड़े पहनने शुरू कर दिए। लेकिन गौतम बुद्ध के चले जाने के बाद जब इन लोगों ने बौद्ध जीवन-शैली का प्रचार-प्रसार करने का प्रयास किया तो भारत में लगभल एक तिहाई लोग स्वभाव से सन्यासी या भिक्षुक थे। यहां की संस्कृति ही कुछ ऐसी थी। इस संस्कृति के लिए और यहां के लोगों के लिए भिक्षुकों का यह बस एक और समूह था, जिसे उन्होंने सहज रूप में स्वीकार कर लिया और वे उनका ही एक हिस्सा बन गए। वे अपनी खास पहचान को बरकरार नहीं रख पाए। वे इधर-उधर घूमते दूसरे संन्यासियों और भिक्षुकों में मिल जाते थे। अपनी अलग पहचान स्थापित करने के लिए बाद में उन्होंने थोड़ा गहरा मरून रंग अपना लिया।
इस तरह रंगों का कुछ प्रभाव होता है। ये बेशक कुछ चीजों को प्रभावित करते हैं, लेकिन रंग ही सब कुछ नहीं हैं। आप लाल रंग पहनकर भी खराब मूड में हो सकते हैं। काला रंग पहनकर भी आप जोशीले हो सकते हैं। ऐसा संभव है। लेकिन क्या इनसे आपको मदद मिलती है? सवाल यह है कि आप जो भी कर रहे हैं, क्या उसमें इनसे आपको मदद मिलती है? तो इस मायने में रंगों की एक भूमिका होती है।
तो जब आप आध्यात्मिक पथ पर होते हैं तो आप हर सहारे का इस्तेमाल करना चाहते हैं, क्योंकि आपको अपने लिए एक सही वातावरण बनाना होता है। इस मायने में रंगों की एक भूमिका होती है।