लेख : फरवरी 10, 2020

इस श्रृंखला में, हर माह, हमारे ब्रह्मचारियों और संन्यासियों में से कोई एक अपनी व्यक्तिगत पृष्ठभूमि एवं अपने विचारों तथा अनुभवों को साझा करते हैं और ये भी बताते हैं कि इस पवित्र, दिव्यता के पथ पर चलने का उनके लिये क्या अर्थ है!

स्वामी पतंगा: यह यात्रा "मैं पहले से ही सब जानता हूँ" से "मैं कुछ भी नहीं जानता"

तक की है। एक सफल एवं आनंदपूर्ण जीवन के मार्ग पर चलने से पहले, एक किशोर के रूप में, मैं हमेशा "मैं पहले से ही यह जानता हूँ", तथा "मैं हमेशा सही हूँ" के भाव से भरा रहता था। यद्यपि, उस समय मैंने इसे एक आध्यात्मिक यात्रा के रूप में नहीं देखा था, पर फिर भी एक बेहतर मनुष्य बनने की प्यास मेरे अंदर पहले से ही बढ़ रही थी।

जब मैं 11वीं कक्षा में था तब ही इन दो बातों के बारे में मैं एकदम स्पष्ट था। पहली बात, मैं कोई सुरक्षित कारोबार करना चाहता था। दूसरी बात, लोगों तक पहुंचने की मेरी बहुत तीव्र इच्छा थी। पर मुझे इसका कुछ पता नहीं था कि, 'वो क्या है जो मैं लोगों को देना, समर्पित करना चाहता हूँ'।

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स्कूल के दिनों में मैं डरपोक क़िस्म का था पर जब कॉलेज में आया तो मुझे लगा कि अब मैं अपने सही रूप में आ गया हूँ - मैं कई प्रकार की गैर शैक्षणिक गतिविधियों में शामिल हो गया था। मैं हमेशा समूह में, झुंड में रहता था और मेरे चारों ओर काफी मित्र होते थे। एक दिन, मेरे एक मित्र ने एक कार्यशाला में आने के लिये मुझे बाध्य किया, जिसका विषय था, "परिणाम प्राप्त करना तथा संबंधों को मजबूत बनाना"। उस कार्यशाला ने मुझे हिला कर रख दिया और अपने स्वयं की ओर ज्यादा गहरे रूप से देखने के लिये मजबूर कर दिया। मैं जल्दी ही उस संस्था के लिये स्वयंसेवा करने लगा तथा कार्यशाला चलाने के लिये मैंने प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया।

कॉलेज से स्नातक हो कर निकलने के एक वर्ष बाद, 1994 में, मैंने एक मित्र के साथ भागीदारी में, कंप्यूटर प्रशिक्षण देने वाली एक कंपनी शुरू की और बाद में उस कारोबार को काफी बढ़ाया। फिर मैंने एक समाचार पत्रिका शुरू की जिसमें हम अपने आसपास घट रही प्रेरणादायक, सकारात्मक घटनाओं के बारे में बताते थे। हमने, 'आप के अंदर का मानव', इस विषय पर कार्यशालायें तथा संगोष्ठियां आयोजित करना शुरू किया जिनका लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता था। कई अर्थों में, इस सब ने जीवन के बारे में मेरा ज्ञान बढ़ाया पर इससे मैं एक खतरनाक भाव में आ गया कि 'केवल मैं ही जानता हूँ'।

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मेरे अंदर का आंधी तूफान

अपने अंदर बड़ेपन की अनुभूति के साथ मैं 1996 में 13 दिन के ईशा योग कार्यक्रम में गया और वहाँ से कुछ पाठ सीख और उनकी गहनता को स्वीकार कर के बाहर आया। पर वो उतना ही रहा, मैंने क्रियायें जारी नहीं रखीं।

लगभग डेढ़ वर्ष बाद, बदलाव का क्षण चुपचाप और बिना बुलावे के आ गया। अचानक ही मैंने शक्तिचलन एवं शून्य ध्यान की क्रियायें दिन में दो बार करने का मंडला शुरू किया और उसे पूरा भी किया। मैं नहीं जानता कि उन 40 दिनों में मेरे अंदर क्या कुछ हुआ ? आँधी - तूफान या समुद्री चक्रवात या सुनामी ?? और इस सब के बीच मैं सद्‌गुरु नाम की लहर में बह गया। कई प्रकार से, उस समय से मेरा जीवन मेरे हाथों में नहीं रहा है।

उन चालीस दिनों में, मैंने अपना कारोबार बंद कर दिया। मैंने ईशा योग शिक्षक का प्रशिक्षण लिया और फिर, टी. नगर, चेन्नई में ईशा योग कक्षायें आयोजित करने में सक्रिय हो गया। ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा के पहले, सद्गुरु के साथ कड़ापा जाने का भी मुझे सौभाग्य मिला। बाद में, मैं ध्यानयात्रा पर भी गया।

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ध्यानयात्रा के दौरान, सद्‌गुरु के जन्मदिवस, 3 सितंबर 1998 के दिन, मैंने बहुत हिम्मत कर के उन्हें, अपनी एक छोटी सी कविता के साथ, एक छोटा सा उपहार दिया। उपहार था गौतम बुद्ध के अभिलेख वाला एक छोटा सा चाबी होल्डर और वो कविता ये थी:

'आप के जन्मदिवस पर,
मैं आप को क्या दे सकता हूँ?
मैं आप को क्या दे सकता हूँ?
प्रेम और कृतज्ञता के आंसुओं के सिवाय?'

मैंने बाद में सुना कि सद्‌गुरु ने उस चाबी होल्डर का उपयोग कुछ समय तक अपनी कार की चाबी के लिये किया था!

दो मुलाकातें

उस समय में, मेरी सद्‌गुरु से दो बार मुलाकातें हुईं।

पहली बार, एक उलझन में फंसे व्यक्ति की तरह, जो अपनी बहकी हुई उर्जायें बहाता था - सांसारिक मोह ममता से बाहर निकल नहीं पाता था और फिर भी, ईशा में पूर्णकालिक आना और सद्‌गुरु के साथ रहना चाहता था। सद्‌गुरु ने जो संदेश मुझे दिया वो था, "जब तुम ईशा के सिवाय और कहीं रह न सको, तब आना"।

दूसरी बार, जब मैं उनसे मिला तो मैंने एक खिला हुआ, निर्मल फूल उनके चरणों में रख दिया। आँसुओं से भरी हुई आँखों के साथ मैंने उनसे विनती की, "मैं, बस, पूरी तरह से ईशा में आना चाहता हूँ"।

मेरे जीवन का अंत हो गया

'मेरे' जीवन का अंत हो गया,
जब मेरे गुरु ने मुझे ढूंढ लिया।
अब 'मेरा' या 'मैं'--
ऐसा कुछ भी नहीं रहा,ये सिर्फ वे हैं, और वही हैं।

मैं तो बस दिव्यता की अधिकता, प्रचुरता के अनुभव में बहा जा रहा था।

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ऋण चुकता करना

कुछ व्यावहारिक चिंताओं की चर्चा करने के बाद, सद्‌गुरु ने दिसंबर 1998 में, ईशा में पूर्णकालिक आने के लिये मुझे आज्ञा दे दी।

यद्यपि मैंने अपना कारोबार बंद कर दिया था, मुझे अभी भी काफी बड़े ऋण चुकाने थे। मेरे पास कोई नौकरी नहीं थी पर मुझे आश्रम में दिसंबर तक आने की जल्दी थी, जो अभी भी तीन से चार महीनें दूर था। भीख मांगने से ले कर चीजें बेचने तक, मैंने हर तरह की बातें करने के प्रयत्न किये - कुछ स्वतंत्र काम करने, कुछ व्यापार करने से ले कर ऋण माफी मांगने तक सब कुछ - वो सब कुछ, जिससे मैं ईशा जा सकूँ। और, दिसंबर 1998 में मैं आश्रम आ गया।

तब मैंने देखा कि अगर मैं एक कदम भी और आगे बढ़ा होता तो मैंने अपना पैर अत्यंत गर्म पायसम से भरी हुई बाल्टी में डाल दिया होता।

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रहस्यमय दिन

मैं उन विशेष आश्रमवासियों में से था जिन्हें ध्यानलिंग प्राणप्रतिष्ठा के दौरान गुम्बद के अंदर रहने का सौभाग्य मिला था। हम दीवार की ओर मुंह कर के बैठे थे और मुझे कुछ भी पता नहीं चल रहा था कि वहाँ क्या हो रहा था पर सब कुछ रहस्यमय लग रहा था। उन दिनों रहस्यमय बातें भी सामान्य लगती थीं - ध्यानलिंग के पत्थर के सामने बैठ कर मुँह नीचे कर के ध्यान की गहराई में उतर जाने से ले कर सद्‌गुरु को एक ही समय में दो अलग अलग स्थानों पर देखने तक, कुछ भी।

एक दिन, जब मैं ट्रैंगल ब्लॉक से बाहर आ कर ध्यानलिंग की ओर जा रहा था तो मैंने सद्‌गुरु को शून्य कुटीर में जाते देखा। पर जब मैं ध्यानलिंग के उत्तरी दरवाजे तक पहुँचा तो मैंने उनको उसी दरवाजे से ध्यानलिंग में प्रवेश करते देखा। "अरे ! ये यहाँ कैसे हो सकते हैं"? मैंने सोचा। मैं जानता था कि सद्‌गुरु के लिये मुझसे पहले वहाँ पहुंचना संभव नहीं था। फिर एक क्षण के लिये मुझे लगा कि उन्हें शायद प्राणप्रतिष्ठापन के संबंध में कोई काम होगा और उस बात को भूल कर मैं आगे बढ़ गया। किसी सोचने विचारने वाले, तर्कशुद्ध मन के लिये, ये किसी मायाजाल की तरह लग सकता है पर उन दिनों ऐसे अनुभव हमारे लिये साधारण मामले थे।

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एक अन्य समय, मुझे याद है, सम्यमा कार्यक्रम के दौरान, मैं अंतिम दिन तक ॐ नमः शिवाय का जाप करना बंद नहीं कर पा रहा था। तो अंतिम दिन, अंतिम सत्र के पहले, भोजन क्षेत्र के आसपास, मैं ॐ नमः शिवाय चिल्लाते हुए चारों ओर कूद रहा था और मेरी आँखें बंद थीं। इस अवस्था में, जब मैं पूर्ण रूप से मग्न था तो अचानक मेरे अंदर ऐसा कुछ हुआ कि मैंने आँखें खोल दीं और रुक गया। तब मैंने देखा कि अगर मैं एक कदम भी और आगे बढ़ा होता तो मैंने अपना पैर अत्यंत गर्म पायसम से भरी हुई बाल्टी में डाल दिया होता। मैंने उसे एक क्षण देखा और फिर ज्यादा कुछ सोचे बिना आगे बढ़ गया। मैंने अपनी आँखें बंद की और फिर से कूदना एवं चिल्लाना शुरू हो गया, "ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय".. वो ऐसे पागलपन वाले दिन थे।

महाशिवरात्रि 2000 के दिन मुझे ब्रह्मचर्य की दीक्षा मिली।

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लोगों की प्रतिक्रियाओं का अत्याचार

ब्रह्मचर्य की दीक्षा के 3 दिनों के अंदर, मैं फिर अपने शिक्षक वाले कार्यक्रम में लग गया। एक शिक्षक के रूप में हम अपने कार्यक्रम के प्रति वही सन्मान, वही आदर रखते थे जो भगवान के लिये रखते हैं। हमारा सारा जीवन उस कार्यक्रम के चारों ओर घूमता था। जब कक्षा शुरू होती थी तब हम प्रतिभागियों, स्वयंसेवकों एवं हमें अपने घरों में ठहराने वाले लोगों के साथ ही पूर्ण रूप से लगे रहते थे - इस हद तक कि हमें ऐसा लगता था जैसे कार्यक्रम समाप्त होने पर हमारा जीवन ही समाप्त हो जायेगा। पर जब अगले कार्यक्रम के लिये हम एक नये स्थान पर जाते थे तो ऐसी अनुभूति होती थी कि प्रतिभागियों, स्वयंसेवकों एवं नये मेजबानों के घरों के एक नये समूह के आसपास हमारा पुनर्जन्म हो गया है। मेरे कुछ सर्वाधिक संतोषप्रद, परिपूर्ण करने वाले दिन वो थे जब मैंने 13 दिनों के ईशा योग कार्यक्रमों में सह शिक्षक के रूप में, पढ़ाने में मदद की।

एक पहलू, जो मेरे विकास में बहुत सहायक हुआ वह था प्रतिभागियों की, मुख्य शिक्षक की प्रतिपुष्टि, प्रतिक्रिया मिलना। सभी ईशा शिक्षकों की यह सामान्य पद्धति है कि कार्यक्रम के अंत में, कार्यक्रम के बारे में उनकी प्रतिक्रिया लेते हैं। प्रतिक्रियायें इस बारे में होती हैं कि कहाँ आप में कुछ कमी रह गयी, आप से क्या कुछ छूट गया और कहाँ आप ने अच्छा किया ? पर, अधिकतर, ये हमारी कमियों के बारे में ही होता था। नकारात्मक प्रतिक्रियायें मुझे दुःखी और विद्रोही बना देतीं, क्योंकि अपने अंदर मैं यह मानता था कि 'मैं गलत नहीं हो सकता'। मैं सभी सीमाओं तक जा कर यह प्रयत्न करता था कि मेरा काम एकदम सही हो और मैं कोई गलती न करूँ। फिर भी, हरेक कक्षा में, मुख्य शिक्षक हमेशा वही चीजें बताते थे जिनकी तरफ मेरा ध्यान नहीं गया होता - फर्श पर बिछी दरी एक सीधी लाईन में नहीं थी, विंडो स्क्रीन्स बंद नहीं किये गये थे, किन्हीं टैग्स पर नाम अच्छे ढंग से नहीं लिखे गये थे.... आदि, आदि - ये सूची जारी ही रहती थी।

जब खुशियाँ टलती रहती हैं

एक बार, कुछ स्वयंसेवकों की सहायता से, एक सह शिक्षक के रूप में, मैं मायलापोर, चेन्नई में सुबह और दोपहर की कक्षायें आयोजित कर रहा था तथा शाम की कक्षा लगभग 25 किमी दूर, क्रोमपेट में लगती थी। हम मायलापोर की कक्षा दोपहर में पूरी कर लेते थे, और बाद में उस हॉल का उपयोग शाम में एक संगीत समारोह और फिर भोजन के लिये होता था। तो हर रात, क्रोमपेट की कक्षा पूरी कर के हम मायलापोर के हॉल पर वापस आते, जिससे उसे दूसरे दिन सुबह की कक्षा के लिये तैयार कर सकें। हर बार, जब हम हॉल पर पहुँचते तो सारी जगह पर कागज़, प्लास्टिक, खाना और सभी तरह की चीजें फैली हुई मिलतीं। फिर हम सारे हॉल को साफ करते जिससे वहाँ का माहौल अगली सुबह की योग कक्षा के लिये अनुकूल बनाया जा सके। जब तक हम सोने के लिये जा पाते, रात के 2 बजे होते, और सुबह 5.15 पर हम फिर वहाँ वापस आ जाते। पूरे 13 दिन यही होता रहा।

उनमें से एक रात को, जब हम सद्‌गुरु के साथ, अलाव जला कर उसके चारों ओर बैठे थे और प्रश्न पूछने का समय आया, तो मैंने हाथ उठाया और बड़े दब्बूपन से, नर्मी से पूछा, "खुशी क्या है?"

अंतिम सत्र एक शनिवार को था। हमने एक नया स्थान लेने की योजना बनायी जहाँ ज्यादा बड़ा हॉल हो और तीनों कक्षाओं के कुल 140 प्रतिभागियों को एक साथ बैठाया जाये। ये हॉल एक भवन के 8 वें माले पर था और उसमें काँच की बड़ी बड़ी खिड़कियाँ थीं। शुक्रवार को देर तक भारी वर्षा हुई तो हम रात में हॉल को अगली सुबह के सत्र के लिये तैयार नहीं कर सके। हम वहाँ सुबह तीन बजे पहुँच सके और देखा कि हॉल बरसात के पानी से भरा हुआ था जो खिड़कियों से अंदर आ गया था। किसी तरह से, बहुत कोशिश कर के, हमने सारा पानी निकाला और फिर हॉल को तैयार किया। .35 बजे हमने हॉल को खोल दिया, सत्र 6 बजे शुरू होना था।

मुख्य शिक्षक लगभग 5.45 पर आये और उन्होंने देखा कि हमने अतिरिक्त बैटरी का उपयोग ऑडियो सिस्टम को चलाने के लिये किया था। हमको ऐसा इसलिये करना पड़ा था क्यों कि प्लग लगाने वाला सॉकेट थोड़ा दूर था और हम एक्सटेंशन बॉक्स लाना भूल गये थे। शिक्षक ने इस लापरवाही के लिये मुझे डाँटा। अब, जब मैं उस घटना को याद करता हूँ तो मैं उनके साथ पूरी तरह सहमत हूँ - अगर सत्र के बीच में माइक बंद हो जाता तो सारा सत्र व्यर्थ हो जाता - पर उस समय मैं बहुत ही अपमानित और टूटा हुआ अनुभव कर रहा था और उस प्रतिक्रिया को सहन नहीं कर पा रहा था। हमने जल्दी ही एक एक्सटेंशन बॉक्स की व्यवस्था कर ली थी और वह समापन सत्र बहुत अच्छी तरह सम्पन्न हुआ पर उस समय तक मैं बहुत निराश और दुःखी था और सोच रहा था, "मुझसे क्या छूट रहा है"?

ये बहुत अच्छा हुआ कि इस कक्षा के तुरंत बाद मुझे ब्रह्मचारियों की एक बैठक में शामिल होना था। इसके लिये हम सद्‌गुरु के साथ मैंगलोर समुद्र तट पर गये थे। उनमें से एक रात को, जब हम सद्‌गुरु के साथ, अलाव जला कर उसके चारों ओर बैठे थे और प्रश्न पूछने का समय आया तो मैंने हाथ उठाया, और बड़े दब्बूपन से, नर्मी से पूछा, "खुशी क्या है"?

सद्‌गुरु को यह सुन कर आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई। उन्होंने मुझसे पूछा, "मैं कैसे खुशी को परिभाषित कर सकता हूँ"? तुमने इसका अनुभव किया है, तुम्हें पता होगा ! क्या तुमने खुशी का अनुभव नहीं किया है ? मैंने कहा, "हाँ"। वे पूछते रहे...

"जब तुम एक शानदार सूर्यास्त देखते हो तो क्या तुम खुश नहीं होते"? "हाँ'।

"जब तुम चिड़ियों को चहचहाते सुनते हो तो क्या तुम खुश नहीं होते"? "हाँ"।

"अगर कुछ भी नहीं हो तो भी क्या तुम खुश हो सकते हो"?

मैं कुछ देर तक चुप रहा पर बिना कुछ सोचे बोल पड़ा, "हाँ"।

उस सत्र के बाद हम बिना किसी कारण के, खुशी निर्माण कर रहे थे, समुद्र तट पर खेल रहे थे। मैंने देखा कि सद्‌गुरु हमें दूर से देख रहे थे और फिर वे अपने तंबू में चले गये। इस सत्र ने, कई प्रकार से, जादुई ढंग से, जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोण में बहुत बदलाव ला दिया। 'कोई भूल न हो - के लिये काम करने' से मैंने अपने आप को उस मार्ग पर ला दिया जहाँ मैं 'जो आवश्यक है, उसको करने' के लिये अपने आप को अर्पण कर रहा था। अब मैं प्रतिक्रियाओं के बारे में खुल गया, स्वीकार करने को तैयार हो गया और अब मैं यह देखने लगा कि मुख्य शिक्षक परिस्थिति को किस प्रकार से देख रहे हैं ? इसके कारण मैं अब चिंतामुक्त, भरा पूरा एवं कृतज्ञ महसूस करने लगा।

जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया

2003 में, चेन्नई में, पहले महासत्संग का आयोजन किया गया। हमने इसे एक बड़ी संभावना के रूप में लिया कि हम चेन्नई के सभी लोगों तक सद्‌गुरु को ले जा सकें, उनकी बात पहुँचा सकें। पहली बार, ईशा के इतिहास में ये हो रहा था कि हमने इस कार्यक्रम को एक सुनियोजित ढंग से प्रचारित करने का निर्णय लिया। चूंकि मैं चेन्नई में जन्मा, पला और बढ़ा था तथा ये शहर मुझे बहुत प्रिय था, मेरी ये हार्दिक इच्छा थी कि मैं महासत्संग के आयोजन की गतिविधि में भाग लूँ। और ये हुआ। कार्यक्रम के 3 सप्ताह पहले मुझे चेन्नई जाने को कहा गया। वहाँ जाते समय अचानक ही, पता नहीं कहाँ से, मैंने ये अपने आप ही तय कर लिया कि मैं सारे शहर में 100 विज्ञापन बोर्ड लगाऊँगा और सद्‌गुरु की तस्वीरों से शहर को भर दूँगा। उस समय तक, ईशा में न तो ऐसा कुछ किया गया था न ही मुझे वास्तव में इसकी कोई समझ थी कि ये सब करने के लिये क्या क्या करना पड़ेगा, ये कैसे होगा?

मेरे सामने एक बड़ा आश्चर्य प्रगट होने वाला था!

मुझे पता चला कि एक विज्ञापन बोर्ड लगाने के लिये तीन तरह के खर्चे थे : फ्लेक्स बैनर के मुद्रण का खर्च, बोर्ड लगाने का भाड़ा तथा इसे लगाने का खर्च। फ्लेक्स बैनर के मुद्रण और बोर्ड के भाड़े की जो दरें हमें बतायी गयीं वो हमारे बजट से बहुत ही ज्यादा थीं। दो दिनों में ही मुझे पता चला कि उस समय फाउंडेशन को जो दान राशी मिली थी उसमें तो हम सही ढंग से एक बोर्ड लगाने का सपना भी नहीं देख सकते थे!

पर बहुत सारी बाजीगरी करने और हमें आर्थिक सहायता करने वालों के साथ कई बैठकें करने के बाद तथा जहाँ कहीं संभव था, खर्चे कम करने के बाद हमने सारे चेन्नई में सद्‌गुरु के 112 विज्ञापन बोर्ड लगाये। आज, चेन्नई जैसे बड़े शहर में इतनी संख्या में बोर्ड लगाना समुद्र में बूंद समान लग सकता है पर 2003 में हमने उन बोर्डों से सारे शहर को हिला कर रख दिया था।

हमने टी. नगर में, एक अति व्यस्त सड़क पर, मीडियन ट्रिप पर, दो ट्रैफिक लेन्स के आरपार, एक 12×10 फ़ीट का विज्ञापन बोर्ड लगाया था। उस रास्ते पर सारा दिन ट्रैफिक चलता रहता था और उस विज्ञापन बोर्ड की स्थिति ऐसी थी कि उस मार्ग पर जा रहा कोई भी व्यक्ति उस बोर्ड को और उस पर लगी सद्‌गुरु की तस्वीर को देखने से चूक नहीं सकता था। जब हमने उस बोर्ड को लगा दिया तो ऐसा लग रहा था जैसे चेन्नई के सभी लोगों तक सद्‌गुरु की पहुँच हो गयी थी। उस स्थान से जब मैं वापस आया तो इतना ज्यादा उल्लासित एवं गर्वित अनुभव कर रहा था कि वहाँ चल रही ईशा शिक्षकों की एक समीक्षा बैठक में घुस गया और घोषित करने लगा, "येन पिरावी पयनल अदैनथेन"(मेरे जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया है)!

हमारे इस अभियान की ओर मीडिया का भी ध्यान गया और बाद में एक प्रेस मुलाकात के दौरान, एक रिपोर्टर ने सद्‌गुरु से पूछा, "इतने बड़े, व्यवस्थित प्रचार अभियान के लिये आप ने कौनसी विज्ञपन एजेंसी का उपयोग किया था"? हमनें अपने विज्ञपन बोर्डों पर सद्‌गुरु की जो तस्वीर लगायी थी, उसमें सद्‌गुरु आकाश की ओर देख रहे थे और ये इतनी लोकप्रिय हो गयी कि बहुत से लोगों ने, कई महीनों बाद,सद्‌गुरु को 'वानम पारथा गुरुजी' (आकाश की ओर देखने वाले गुरुजी) कहना शुरू कर दिया।

एक दिवसीय मैच

उसके बाद के वर्षों में मैं ईशा कम्युनिकेशन सेंटर (आईसीसी) से जुड़ा जिसमें उस समय जन सम्पर्क (पी आर), प्रसार माध्यम (मीडिया) व धन संग्रहण (फंड रेजिंग) ये तीन गतिविधियाँ थीं। बाद में आई सी सी को तीन अलग अलग विभागों में बाँट दिया गया और मुझे धन संग्रहण दल का नेतृत्व करने का अवसर मिला। हमनें न केवल ईशा की परियोजनाओं तथा अन्य ईशा कार्यक्रमों के लिये धन इकट्ठा किया बल्कि लोगों को ईशांगा 7% भागीदार होने में भी मदद की और लोगों को अपने घरों में देवी यंत्र ले जाने के लिये प्रेरित किया। देवी यंत्र जिन घरों में हैं, सिर्फ उन्हीं लोगों को लाभ नहीं पहुँचाते बल्कि सारी दुनिया को प्राणप्रतिष्ठित करने के सद्‌गुरु के महास्वप्न को पूर्ण करने में भी योगदान देते हैं।

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धन संग्रहण में कुछ बड़ी चुनौतियाँ तब सामने आतीं थीं जब सद्‌गुरु अचानक से, आश्चर्य में डालने वाली, किसी विशाल परियोजना की घोषणा कर देते थे - जैसे नदी अभियान(रैली फ़ॉर रिवर्स)। इस मामले में योग्य, उचित आर्थिक सहायता करने वालों को ढूंढने के लिये हमारे पास 60 दिन से भी कम समय था। शुरुआत में इसके लिये एक अलग धन संग्रहण समिति बनायी गयी थी पर अंत में ये काम हमारे दल के पास ही आ गया, और उसका अर्थ था - और भी कम समय!

पहली बार हमनें हर ईशा सेंटर में एक अलग धन संग्रहण समिति बनायी और स्थानीय स्वयंसेवकों को बड़े पैमाने पर धन संग्रहण करने के लिये अधिकार दिये। ये परियोजना अत्यंत रोमांचक बन गयी जैसे एक दिवसीय क्रिकेट मैच होता है, जहाँ हमें समय के साथ दौड़ लगानी थी पर सारा समय हमें पता था कि उनकी कृपा से सब कुछ ठीक होगा - जैसा हमेशा होता है, बस हमें अपने आप को पूरी तरह से समर्पित कर देना था और वही करना था जो आवश्यक था। सारा ईशा परिवार नदी अभियान के लिये एक साथ काम पर लग गया और 140 से भी ज्यादा कार्यक्रम शानदार ढंग से आयोजित किये। इन कार्यक्रमों के लिये तथा इस अभियान के लिये जो भी धन आवश्यक था, वो हमने इकट्ठा किया।

जब मौन में हों

ईशा में आने के पहले ही दिन से, मैंने सद्‌गुरु को हमसे यह कहते सुना है कि हर कोई शरीर और मन के परे, इस जीवन का अनुभव कर सकता है। अभी हाल ही में, जब मैं तीन महीनों के लिये मौन में था तब इस बात की मुझे अत्यंत तीव्र ढंग से अनुभूति हुई। मुझे यह समझ में आया कि 'एक विचारक्कड़ (विचारों के नशे में रहने वाले व्यक्ति, भौतिकताग्रस्त ) होने की अपेक्षा, एक सर्वथा अलग ढंग से हम हो सकते हैं'।

मौन अवधि में कुछ दिन बीतने के बाद, मुझे एक अनुभव हुआ कि 'मैं कुछ भी नहीं जानता' ! मैं यह स्पष्ट रूप से देख पाया कि 'मैं वास्तव में कुछ भी नहीं जानता' !! मैंने अपने मन में जो इकट्ठा किया है वो अत्यंत थोड़ा सा है, जिसकी कोई कीमत नहीं है। इस अनुभव ने मुझे ऐसी अवस्था में पहुँचा दिया है जहाँ मैं हर चीज़ के सामने झुक सकता हूँ और अपने आप में, स्वतंत्रता एवं कृतज्ञता की अनुभूति कर सकता हूँ।

उन क्षणों में मेरे अनुभव में आने वाली बात को यहाँ मैं कुछ पंक्तियों में कह रहा हूँ......

क्या ये आप हैं - शंभो?

मैं विशाल, शक्तिशाली वेलियनगिरी

की ओर देखता हूँ,

मैं सभी पहाड़ों और पठारों

के आगे झुकता हूँ।

मैं सदैव प्रसन्न रहने वाले सूर्य की किरणों की

अनुभूति करता हूँ,

इनकी कृपा पाने वाले हरेक जीवन

के सामने मैं झुकता हूँ।

मैं नशे में हूँ

नागलिंग फूलों की सुगंध से,

मैं झुकता हूँ

सभी वनस्पतियों के सामने।

मैं अनजाने प्रकारों के पक्षियों का

चहचहाना सुनता हूँ,

मैं पशुओं के पूरे राज्य के सामने झुकता हूँ।

उस मधु का स्वाद लेते हुए

जो मधुमक्खी लाती है,

मैं सभी कीड़ों के सामने झुकता हूँ।

झुकना या सिर्फ होना, मुझे

भौतिक की बेड़ियों से मुक्त करता है,

मुझे आनंद और कृतज्ञता से

भर देता है।

मैं यहीं और अभी, जीवन का

आलिंगन करने के लिये तैयार हूँ,

क्या ये आप हैं - शंभो ?