जाने-माने फि ल्म अभिनेता अनुपम खेर जब ईशा आश्रम आये तो उन्होंने अपने अनुभवों को शब्द देने की कोशिश की। उनके अनुभवों की पहली कड़ी हम पहले प्रकाशित कर चुके हैं। पेश है उसी अभिव्यक्ति की अगली और अंतिम कड़ी:



ईशा योग केंद्र में जो ईशा होम स्कूल की सोच है, वह अपने आप में जबरदस्त है। मुझे खुद सद्गुरु और यहां के वाइस प्रिंसिपल ने इस स्कूल का दौरा कराया था। इस स्कूल के पीछे की पूरी सोच ही आश्चर्यजनक है। हालाँकि मैंने गुरुकुल परंपरा का स्कूल नहीं देखा, लेकिन मुझे लगता है कि वह भी कुछ ऐसा ही होगा। इस स्कूल की सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसके आसपास का परिवेश बेहद शानदार है। आप घाटी के बीच में हैं, जहां चारों तरफ  पहाड़ हैं। स्कूल को कुछ इस तरह से बनाया गया है कि आपको लगता ही नहीं कि आप किसी स्कूल की चारदीवारी के भीतर हैं।

ईशा होम स्कूल में कुछ समय बिताने की इच्छा

मुझे बेहद अच्छा लगेगा अगर मैं इस स्कूल का हिस्सा बन सकूं। मैंने उनसे कहा कि मैं हर छह महीने में यहां विद्यार्थिंयों के साथ एक्टिंग की कोई वर्कशॉप या फि र कुछ और भी करना चाहूंगा। यहां की कक्षाएं काफी हैरान कर देने वाली हैं।

दरअसल, मेरा मन बहुत अशांत है। अशांत इस संदर्भ में कि मैं बहुत ही बैचेन हूं। मुझे ढेर सारी चीजें करना पसंद है, इसलिए मैं हजारों चीजें करता रहता हूं।
मेरा मानना है कि इस जगह की कलात्मकता अपने आप में जबरदस्त है। स्कूल देखकर मैंने कहा, ‘आप इसे एक कला स्कूल कह सकते हैं’, क्योंकि यहां की हर चीज, हर सज्जा, हर पेंटिंग, हर कलाकृति यह बताती है कि यह स्कूल किस तरह का है। तब उन्होंने हमें ईशा होम स्कूल के पीछे की सोच बताई। यहां बीस-बीस बच्चे एक-एक पैरेंट यानी अभिभावक को दे दिए जाते हैं, जो दरअसल उनके टीचर्स होते हैं और उनके हाउस में उनको शिक्षा देते हैं। फिर आठवीं, नौंवी, दसवीं और ग्यारवीं में वे लोग स्कूल की मुख्य इमारत में क्लास के लिए जाते हैं।

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सातों दिन चलने वाला स्कूल

यहां जो पेड़ लगे हैं, वे भी बहुत खूबसूरत हैं। इस स्कूल की महक ही जबरदस्त है। तो फिर बच्चे भला ऐसे माहौल में क्यों नहीं पढऩा चाहेंगे? सद्गुरु ने बताया कि यह स्कूल सातों दिन चलता है। उनका कहना था कि जब वह छुट्टी नहीं करते तो बच्चे छुट्टी क्यों करें? दरअसल, वह यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि अगर सातों दिन कुछ रचनात्मक किया जा रहा है तो फि र इसे हर रोज खुला रखने में क्या समस्या है? इस स्कूल में आना एक बेहद सुकून भरा और विनम्र अनुभव रहा। अगर आप अपना मन खुला रखते हैं तो यहां का कोना-कोना आपको कुछ न कुछ देता है और आपके भीतर कुछ बदलाव करता है। मुझे लगता है कि यहां से मैं एक बदले हुए इंसान के रूप में जाऊंगा और यह बदलाव मेरे व मेरे आसपास के लोगों की बेहतरी के लिए होगा।

मैं खुद योग सिखाया करता था

यह अजीब इत्तेफाक है कि एक समय मैं योग सिखाया करता था। जब मैं मुंबई आया तो मुझे पता चला कि मैं गंजा हो रहा हूं और इतना दुबला था कि दरवाजे के होल से मैं अपनी दोनों आंखों से पूरा देख सकता था। मेरे भीतर इतना साहस जरूर था कि मैं काम मांग सकूं, हालाँकि कोई मुझे काम देने वाला नहीं था।

मुझे सद्‌गुरु की यह मुद्रा पसंद है, जहां वह खुद को गुरु जैसा महसूस नहीं कराते। वह खुद को एक गुरु की तरह प्रचारित नहीं करते।
अस्सी के शुरुआती दशक में फि ल्मों में काम करने के लिए आपके सिर पर बाल होना, एक्टिंग जानने से ज्यादा जरूरी हुआ करता था। तब मैंने तय किया कि मैं फि ल्म निर्माताओं व निर्देशकों को योग सिखाया करूंगा। फि र मैंने यश चोपड़ा को योग सिखाना शुरू किया, उनके पास मैं एक योग टीचर के तौर पर जाने लगा। इसी तरह महेश भट्ट को भी मैंने योग सिखाया। मैंने उन लोगों को बताया नहीं कि मैं एक अभिनेता हूं। शायद मैंने भट्ट साहब को बताया था कि मैं एक एक्टर हूं, लेकिन यश चोपड़ा को तो मैंने नहीं बताया। योग मैंने अपने तीन साल के ड्रामा स्कूल के पढ़ाई के दौरान सीखा था।

योग से जुड़ी कुछ पुरानी यादें

यह बात आज मैं पहली बार बता रहा हूं, जिसे अब तक कोई नहीं जानता। कितनी अजीब बात है कि मैं यह बात अब यहां कर रहा हूं। एक दिन की बात है मैंने यशजी के साथ अपना योग का सत्र खत्म किया और वह शवासन में लेटे थे। मुझे लगा कि उन्हें अपने बारे में कुछ बताने का यही सही वक्त है। जब वह शवासन में फर्श पर आराम से लेटे थे, मैंने उनके चेहरे पर एक मुस्कान देखी, मैं समझ गया कि वह आनंद की अवस्था में हैं। मैंने उनसे कहा, ‘यशजी योग के अलावा मैं अभिनय भी करता हूं।’ उसी तंद्रिल अवस्था में बिना अपने चेहरे के भाव बदले उन्होंने मुझसे कहा, ‘कल से आने की जरूरत नहीं है।’ वो एक मजाकिया मौका था।
मेरे दादा जी एक योग स्कूल में योग टीचर थे, साथ ही वहां के प्रिंसिपल थे। मैं अपने जीवन में योग की फि र से शुरुआत करना चाहूंगा। पिछले आठ महीनों में मैंने कोशिश करके चौदह किलो वजन कम किया है।

अभिवादन करने के लिए नमस्कार

अगर मुझे ईशा योग केंद्र के अपने अनुभव के बारे में कुछ बोलना हो तो मैं चुप रहना पसंद करूंगा। मेरा मानना है कि कई बार मौन शब्दों से कहीं ज्यादा मुखर होता है। आप जो भी वास्तव में महसूस करते हैं, शब्द वो सारी भावनाएं कहीं खो देते हैं। मुझे लगता है कि इस जगह का मौन बहुत कुछ कहता है। मुझे इसकी यही चीज सबसे जबरदस्त लगती है।

अस्सी के शुरुआती दशक में फि ल्मों में काम करने के लिए आपके सिर पर बाल होना, एक्टिंग जानने से ज्यादा जरूरी हुआ करता था।
और मुझे यहां के नमस्ते का भाव भी बहुत अच्छा लगता है। यहां तक कि मेरे एक्टिंग स्कूल में भी विद्यार्थियों को नमस्ते कहना होता है। यहां जब कोई सद्‌गुरु से नमस्ते कहता है तो सद्‌गुरु व्यक्तिगत तौर पर उनका नमस्ते लेते हैं, जो अपने आप में एक शानदार बात है। मुझे सद्‌गुरु की यह मुद्रा पसंद है, जहां वह खुद को गुरु जैसा महसूस नहीं कराते। वह खुद को एक गुरु की तरह प्रचारित नहीं करते। मुझे लगता है कि उनकी यह बात और उनकी खुद अपने साथ की सहजता लोगों को सबसे ज्यादा आकर्षित करती है। अगर मुझे इस जगह को शब्दों में बयां करना हो तो मैं कहूंगा, ‘अगर कोई जगह अनुपम खेर को शांत करती है, और वो ईशा फाउंडेशन की जगह हो सकती है, तो कुछ भी हो सकता है।’

खुद से मिलना संभव हुआ

दरअसल, मेरा मन बहुत अशांत है। अशांत इस संदर्भ में कि मैं बहुत ही बैचेन हूं। मुझे ढेर सारी चीजें करना पसंद है, इसलिए मैं हजारों चीजें करता रहता हूं। मेरी मां कहती हैं, ‘तू कितनी चीजें करता है?’ जब वह यह कहती हैं तो उन्हें मेरे दादाजी का डॉयलॉग याद आ जाता है। मेरे दादा जी कहा करते थे कि एक व्यस्त आदमी के पास हर चीज के लिए समय होता है। लेकिन मेरी खुद से अपनी मुलाकात यहीं हुई। मुझे लगता है कि वो मेरा यहां का सबसे बेहतरीन अनुभव रहा। बहुत-बहुत शुक्रिया।