असतो मा सद्गमय : यह सिर्फ मंत्र ही नहीं, जीने का तरीका है
असतो मा सद्गमय - इसे आप क्या कहेंगे - एक सूक्ति या मंत्र या फिर जीवन जीने का एक तरीका? चाहे आप कुछ भी कह लें, जरुरी है इसको जीना। आज के स्पाॅट में सद्गुरु बता रहे हैं कि आखिर कैसे जिया जाए इसे?
असतो मा सद्गमय - इसे आप क्या कहेंगे - एक सूक्ति या मंत्र या फिर जीवन जीने का एक तरीका? चाहे आप कुछ भी कह लें, जरुरी है इसको जीना। आज के स्पाॅट में सद्गुरु बता रहे हैं कि आखिर कैसे जिया जाए इसे?
आमतौर पर मेरा जोर इस बात पर रहता है कि ईशा में जब भी कोई बैठक या मीटिंग हो, लोग उसमें - असतो मा सद्गमय - का जाप करें। इस जाप का मकसद किसी संस्कृति को स्थापित करना नहीं है। असतो मा सद्गमय - एक आह्वान है जो याद दिलाता है कि आप जो कर रहे हैं, वह काम हरेक के कल्याण के लिए है या नहीं। यह हर उस चीज पर लागू होता है, जो हम रच रहे हैं, फिर चाहे वह हमारे भीतर पैदा होने वाले विचार हों या फिर बाहरी तौर पर पैसा कमाने के लिए किए गए काम हों, जैसे बिजनेस, नौकरी आदि, या फिर बड़े पैमाने की बात करें तो राजनीति, अर्थव्यव्स्था या युद्ध जैसी चीजें हों। हालात चाहें जो भी हों, लेकिन सभी में यह बुनियादी सवाल आता है कि हम जो भी कर रहे हैं, वह हरेक के कल्याण के लिए काम कर रहा है या नहीं? या फिर कम से कम यह बड़ी आबादी के लिए काम कर रहा है या नहीं? अगर आप चाहते हैं कुछ इस तरह से चीजें की जाएं, जो कारगर हों, तो आपको अपनी भीतरी प्रकृति और अपने आसपास की दुनिया से जुड़े जीवन के उस पहलू से जुड़े सत्य को खोजना होगा।
शरीर और मन पर ध्यान न देने से दुखी होना तय है
योग का मतलब ही एक ऐसे जीवन की ओर आगे बढ़ना है, जहां हर चीज बेहतर तरीके से काम करती है - आपका शरीर, आपका मन, आपकी ऊर्जा, आपकी भावनाएं यहां तक कि आपके आसपास की स्थितियां भी। अगर आप सिलसिलेवार इस बात पर गौर करें कि कैसे शरीर काम करता है, फिर देखें कि वो क्या चीज है जो आपके मन को ठीक रखती है, क्या चीज आपकी भावनाओं को खुशहाल बनाती है, क्या आपकी उर्जाओं को बेहतर काम करने देती है, फिर यह पता करना मुश्किल नहीं होगा कि कौन सी चीज दुनिया को बेहतर बनाती है। लेकिन फिलहाल हमने ऐसी सामाजिक स्थिति बना रखी है, जहां आपको इस बात की परवाह नहीं है कि आपका शरीर और मन कैसे काम करता है, आप बस इतना चाहते हैं कि आपका बैंक अकाउंट ठीक से काम करे। ऐसे में आपका पीड़ित होना तय है। अगर आप अपने पांवों को मजबूत बनाए बिना चलेंगे तो जाहिर सी बात है कि आपके चेहरे धूल में सन रहे होंगे। सबसे पहले अपनी प्राथमिकताओं को तय करना सबसे जरूरी है।
जीवन जीने का तरीका
मेरी दिलचस्पी हर उस चीज में है, जो काम करे। आमतौर पर मशीनें काम करती हैं। इसीलिए कभी-कभी मैं कार के विज्ञापनों को पढ़ता हूं . लेकिन आमतौर पर मैं देखता हूं कि उनमें ज्यादातर एक्स्ट्रा चीजों का ही जिक्र रहता है, मसलन स्टीरियो, कार के खास तरह के पेंट या उसकी सीटों पर लगने वाले कवर आदि का।
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आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब अपनी प्राथमिकताओं को तय कर खुद से जुड़ी हर चीज को इस तरह अलाइन करना या सीध में लाना है कि हर चीज अच्छी तरह से काम करे। अगर आप अपनी प्राथमिकताओं को सही तरह से तय नहीं करेंगे तो आप ये भी नहीं जान पाएंगे कि शांतिपूर्वक कैसे बैठा जाए। आज लगभग 90 फीसदी जनता को शांतिपूर्वक बैठने के लिए सीख की जरुरत है। एक गधा हो या गाय, जब उसका पेट भर जाता है तो वे भी शांतिपूर्वक बैठ जाते हैं, लेकिन इंसान शांतिपूर्वक भी नहीं बैठ पा रहा। लोग अपने लिए बेइंतहा दुख जुटा लेते हैं, वह भी बिना किसी बाहरी मदद के। अगर उनकी अनचाही चीजें घटित हों तो उन्हें दुख होता है। अगर लोगों के साथ मनचाही चीजें घटित न हों तो उन्हें और ज्यादा दुख होता है। आध्यात्मिक प्रक्रिया मतलब कहीं जाने या पहुँचने से नहीं है, इसका मतलब सारी चीजों को सही तरीके से देखने से है। अगर आप सभी चीजों को उसी तरह से देखेंगे, जैसी कि वे हैं तो फिर प्राथमिकताएं अपने आप उसी हिसाब से तय होंगी।
जड़ों को मजबूत करना होगा
अगर आप एक पेड़ उगाना चाहते हैं तो आप सहज रूप से दिखने वाले उसके हिस्सों - पत्तियों व शाखाओं या तने को पोषित करेंगे या आप दिखाई न देने वाले उसके हिस्से - जड़ को पोषित करेंगे।
कुछ दिन पहले मैं एक व्यक्ति से मिला। मैंने उनसे मजाक में पूछा, ‘तो आप जो कुछ भी कर रहे हैं, लोग उसकी तारीफ कर रहे हैं?’ उन्होंने जवाब दिया, ‘आप चाहे जो कर लीजिए, ईशा में कोई उसकी तारीफ नहीं करेगा। यहां सिर्फ यह बताया जाएगा कि आप क्या गलत कर रहे हैं।’ मैंने कहा कि यह तो अच्छी बात है कि उन्होंने कुछ संस्कृति मुझसे भी ली है। जो चीज काम नहीं कर रही है, केवल उसी पर ध्यान दिया जाना चाहिए। जो चीज या काम आप अच्छा कर रहे हैं, मुझे उसकी सराहना करने की जरूरत नहीं है। फल तो वैसे ही मिलेगा और आप उसका स्वाद भी लेंगे। अगर आप वो करेंगे, जो सृष्टि के बुनियादी नियमों से अलाइन्ड नहीं है या मेल नहीं खाता तो यह काम नहीं करेगा। यह जड़ों की ही ताकत है, जो फलों को पैदा करती है। अगर आप किसी ऐसे फाॅर्मूला का इस्तेामल करें जो कृत्रिम रूप से कुछ दिनों में फलों को बड़ा कर दे, तो हमें यह पता नहीं होगा कि उसका पेड़ पर और उसकी जड़ों पर कैसा असर होगा।
पहले योग की स्थिति, फिर कर्म
आध्यात्मिकता का मतलब है कि आप चीजों के मूल को देखें, उसके फल को नहीं। यह कुछ उसी तरह से है, जैसा गीता में कहा गया है कि आपको कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिएं। गीता भी यह कहती है- ‘योगस्थ कुरु कर्माणि’।
आपमें कैसे फल आएंगे यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आप किस तरह के पेड़ हैं। अगर आप एक नारियल के पेड़ हैं और आप आम की उम्मीद कर रहे हैं तो आपका फेल होना तय है। अगर उस पेड़ में नारियल आता है तो आप उसे एक फल के तौर पर नहीं पहचानेंगे। मैंने कई लोगों के साथ ऐसा होते देखा है। उनके जीवन में सर्वश्रेष्ठ चीजें आईं, लेकिन उनके पास इतनी समझ ही नहीं थी कि वे उसे पहचान सकें। वे किसी ऐसी चीज की उम्मीद लगाए रहते हैं, जो उनके लिए कभी हो ही नहीं सकती। जीवन में जो आपको मिल ही नहीं सकता, अगर उसकी उम्मीद में जो आपको मिल रहा है, आप उसका आंनद नहीं उठाना जानते तो यह जिंदगी व्यर्थ चली जाएगीै। गलत उम्मीदें इंसान को पागल बना देती हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि समाज गोल-ओरिएंटेड या लक्ष्य की ओर केन्द्रित हो चुका है। लोगों की रुचि इसमें नहीं है कि उन्हें कैसा होना चाहिए, उनकी रुचि इस बात में है कि उनके पास क्या होना चाहिए। आज समाज आपको इस आधार पर नहीं पहचानता कि आप क्या हैं, बल्कि इस आधार पर पहचानता है कि आपके पास क्या है। अगर आप किसी को बडा़ आदमी कहते हैं तो इसका मतलब यह नहीं होता है कि उसका दिमाग बड़ा है या उसका दिल बड़ा है, या वो बहुत बुद्धिमान है। इसका मतलब है कि उसकी जेब बड़ी है। आज के जमाने में सिर्फ एक ही चीज महत्व रखती है कि ‘उसके पास क्या है’। लोग अपने पास इकट्ठा करने को ही सिर्फ अपनी तरक्की या बड़ा होना मानते हैं।
आसपास की चीज़ें जीवन की प्रकृति नहीं तय करतीं
आज हमारे पास जो भी है, वह सब हमने इसी धरती से लूटा है। कुछ हद तक हमें अपने जीवन-यापन के लिए यह सब करना पड़ता है।