प्रश्न : सदगुरु, जीवन का मतलब क्या है ?

सदगुरु : आप जीवन के बारे में ऐसे बात कर रहे हैं जैसे आपके लिये ये कोई बाहरी चीज़ हो। आप खुद ही जीवन हैं पर आपको, चारों ओर से, आपकी सोच और भावनाओं ने, आपके विचारों ने, आपकी विचारधाराओं और दार्शनिक बातों ने और आपके धर्मों और पूर्वाग्रहों ने ऐसे घेर रखा है कि उन सब ने आपके जीवन की प्रक्रिया को पूरी तरह अपने वश में कर लिया है। आजकल अधिकतर लोग जब "मेरा जीवन" ऐसा कहते हैं तो आपको समझना चाहिये कि वे नौकरी, कारोबार, परिवार, कार, संपत्ति, पार्टी आदि की बात कर रहे हैं। वे उस जीवन के बारे में बात नहीं कर रहे जो वे खुद हैं।

"जीवन क्या है"? मैं आप को याद दिला रहा हूँ कि आप ही जीवन हैं।

इन सब सामानों का मतलब, उनकी जरूरत सिर्फ इसलिये है कि आप ही जीवन हैं और अभी जीवित हैं। चूंकि आप जीवित हैं, बस इसीलिये आपकी नौकरी, कार, आपका घर, आपके संबंध, इन सब का कुछ मतलब है, इनकी कुछ ज़रूरत है। आप जो पहनते हैं, जो बोलते हैं, जिनके साथ आप कुछ जुड़े हुए हैं, इन सभी का कुछ भी मतलब सिर्फ इसीलिये है क्योंकि आप जीवित हैं। सबसे मूल चीज़ ये है कि आप जीवन हैं। पर अभी तो आपका मनोवैज्ञानिक नाटक आपके जीवन की प्रक्रिया से बड़ा हो गया है। यूरोप ने ये बड़ी गलती की और इसी को सारी दुनिया दोहरा रही है। हमने इस हद तक जीवन की बजाय विचारों को ज्यादा महत्व देना शुरू किया कि किसी की ये कहने की भी हिम्मत हो गयी, "मैं सोचता हूँ, इसीलिये मैं हूँ"।

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आपके विचार सॉफ्टवेयर की तरह हैं। आपने जो डेटा अंदर लिया है, उसी के हिसाब से आपके विचार होते हैं। जो इस सॉफ्टवेयर को ले कर चलता है, वही जीवन आप हैं। आप इस सॉफ्टवेयर के उत्पाद नहीं हैं। पर आज आपके विचार बाकी सब चीज़ों से बड़े हो गये हैं, तो इसीलिये आप पूछ रहे हैं, "जीवन क्या है"? मैं आप को याद दिला रहा हूँ कि आप ही जीवन हैं। मुझे जीवन के बारे में पूछने की आपको ज़रूरत क्या है? आप अगर ये पूछना चाहें कि भारत में मौसम कौनसा है तो हम इसकी चर्चा कर सकते हैं। ये चर्चा ठीक होगी। पर आप पूछ रहे हैं, "जीवन का मतलब क्या है"?, जब कि आप खुद जीवन हैं। तो मुझे आपको एक कहानी सुनानी पड़ेगी। मैं इसे कहानी इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि मैं जो कह रहा हूँ, वह अगर आपके अनुभव में नहीं है, तो जहाँ तक आप का सवाल है, ये एक कहानी ही होगी। अगर आपको कहानी पसंद आती है तो आप उस पर यकीन कर लेंगे और अगर पसंद न आये तो यकीन नहीं करेंगे। पर अगर आप यकीन कर लेते हैं तो क्या ये वास्तविक हो जायेगी और अगर आप यकीन न करें तो भी क्या ये वास्तविक हो जायेगी? दोनों ही तरफ से आपको सत्य का पता नहीं चलेगा।

निष्कर्ष क्यों निकालें?

ऐसा क्यों है कि आप सीधे सीधे ये मान नहीं लेते, "मैं जो जानता हूँ, वो जानता हूँ और जो नहीं जानता, वो नहीं जानता"। हम जो कुछ नहीं जानते उसे छुपाना चाहते हैं क्योंकि "मैं नहीं जानता" का जो जबर्दस्त स्वभाव है उसको हम समझ ही नहीं पाये हैं। आप अगर जागरूक हो कर, आनंद के साथ ये मान लें "मैं ये नहीं जानता" तो जानना ज्यादा दूर नहीं रह जायेगा। मनुष्य की बुद्धिमत्ता का मूल स्वभाव ये है कि आप "मैं नहीं जानता" के साथ नहीं रह सकते. जानने की इच्छा रखने और जानने का प्रयास करने की भावना आपके साथ हमेशा बनी रहेगी। आप देखेंगे कि आपकी बुद्धिमत्ता वो सब जानने का रास्ता ढूंढ लेगी जो आप जान सकते हैं।

अगर आप जागरूक हो कर, आनंद के साथ ये मान लें, "मैं ये नहीं जानता" तो जानना ज्यादा दूर नहीं रह जायेगा।

तो फिर, "मैं नहीं जानता" ये मान लेने में समस्या क्या है? कारण बस यही है कि आप ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ ज्ञान को, जानकारी को बहुत सम्मान मिलता है, पर जिज्ञासा करने को, जानने को नहीं। ज्ञान बस कुछ इकट्ठा की गयी जानकारियाँ हैं और अधिकतर सिर्फ वे, जिन्हें आपने मान लिया है, जिनके बारे में आपने कुछ निष्कर्ष निकाल लिये हैं। यहाँ तक कि तथाकथित विज्ञान भी हर दो साल में अपनी राय बदलता रहता है। इसका कारण यही है कि आप बस एक निष्कर्ष से दूसरे निष्कर्ष की ओर चल रहे हैं। धार्मिक लोग बस एक चीज़ पकड़ कर बैठे रहते हैं और वैज्ञानिक एक निष्कर्ष से दूसरे निष्कर्ष की ओर चलते रहते हैं, जो थोड़ा बहुत क्रमिक विकास जैसा लगता है, और, कुछ हद तक है भी।

मूल रूप से, हरेक चीज़ के बारे में निष्कर्ष निकाल लेने की आखिर इतनी बड़ी जरूरत क्या है? आप जब पूछते हैं, "जीवन का मतलब क्या है"?, तो आप तय कर लेना चाहते हैं कि आखिर जीवन है क्या? जीवन की आखिरी बात जो आपके जीवन का आखिरी दृश्य है - वो तो मेरे और आपके, दोनों के लिये एक समान ही है। जैसे ही आप कोई आखिरी फैसला लेना, निष्कर्ष निकलना चाहते हैं तो एक तरह से, अनजाने में ही सही, आप मृत्यु ही चाहते हैं। बचपन से अब तक, यही सब है जो आपके साथ हुआ है। जब आपके पास कोई फैसले नहीं थे तब आप हरेक चीज़ को बहुत ही आश्चर्य और भागीदारी के साथ देखते थे। पर, आज, आपने निर्णय कर लिये हैं, "अरे, वो पेड़ है, ये तितली है, ये यह है, ये वो है"। हर चीज़ को आप एक के बाद दूसरे फैसलों से खत्म ही कर देते हैं।

जीवन का अनुभव

जब आप जीवन के मतलब के बारे में पूछते हैं, तो आप को समझ लेना चाहिये कि आप बस एक फैसला लेने, कोई निष्कर्ष निकालने की कोशिश कर रहे हैं जिससे आज रात को आप अच्छी तरह से सो सकें -क्योंकि किसी फैसले पर पहुँचे बिना आपकी बुद्धि आपको परेशान करती रहती है। अगर आप ये जानते हों कि आनंद के साथ दुविधा में कैसे रहें तो ये बहुत अच्छा होगा क्योंकि आपकी बुद्धि सक्रिय रहेगी। जैसे ही आप किसी फैसले पर पहुँच जाते हैं, जैसे ही आप यकीन कर लेते हैं, आपकी बुद्धि सो जायेगी। पर जब आप जानते नहीं हैं, तो आप हर चीज़ को पूरी भागीदारी के साथ, पूरी तरह शामिल हो कर देखेंगे, जाँचेंगे।.

आपके अंदर का जीवन कोई मतलब ढूँढ़ नहीं रहा है। इसको भरपूर, बहुत सारा अनुभव चाहिये। पहले आप इसे बनाईये, फिर ये सारे सवाल गायब हो जायेंगे।

 

क्या ये महत्वपूर्ण नहीं है कि आप जीवन में पूरी तरह से शामिल हों? जो भोजन आप ले रहे हैं, उसके साथ अगर आप पूरी तरह से शामिल नहीं हैं तो क्या आपको यह पता लगेगा कि वास्तव में ये भोजन क्या है? अधिकतर लोगों की भोजन में भागीदारी बस पहले कौर तक ही रहती है, उसके बाद उनका ध्यान भोजन पर नहीं रहता, वे बिना किसी चीज़ का स्वाद लिये, उसे बस निगलते रहते हैं। तो सिर्फ शुरुआती, बचपन के दिनों में ही, अधिकतर लोग जीवन का अनुभव करते हैं। उसके बाद, हर चीज़ के लिये, उनके पास बस स्पष्टीकरण, जवाब और फैसले होते हैं।

जितने ज्यादा आप फैसले लेंगे, निष्कर्ष निकालेंगे, उतना ही आपका अनुभव कम होगा। हम सब कुछ जानते हैं पर किसी चीज़ का अनुभव नहीं लेते।मतलब जानना ये सिर्फ आपके मनोवैज्ञानिक ढाँचे के लिये ही ज़रूरी है। आपका मन हर चीज़ का मतलब जानना चाहता है। जीवन का स्वभाव ऐसा है कि अगर आप यहाँ लाखों साल भी रहें तो भी ये आपको उत्साहित रखेगा और तब भी आप इसमें शामिल हो सकते हैं। पर आप इसको जितना नज़दीकी ध्यान से देखेंगे, ये उतना ही आपको उलझायेगा। आप के अंदर का जीवन कोई मतलब ढूँढ़ नहीं रहा है। इसको भरपूर, बहुत सारा अनुभव चाहिये। पहले आप इसे बनाईये, फिर ये सारे सवाल गायब हो जायेंगे। इसके बिना आप सवाल पूछते रहेंगे क्योंकि आप अपने मन के मंच पर खड़े हैं और इस मन के पास, बस मतलब पता करने की प्यास है।

 

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