प्रश्न : आपका स्कूल का अनुभव कैसा रहा?

सर केन रॉबिन्सन : स्कूल की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा नापसंद थी, वो थी कि हमें स्कूल में एक फास्ट ट्रैक पर रखा जाता था, जिसका मतलब था कि हमें कुछ खास चीजें छोड़नी होती थीं। मुझे स्कूल में कला अच्छी लगती थी, इसलिए मैंने कला का विकल्प चुना। वहां विकल्प था कि या तो आप कला चुनें या फिर जर्मन भाषा। मेरे हेड मास्टर ने कहा, ‘अगर मैं आपकी जगह होता तो जर्मन चुनता।’ मैंने पूछा, ‘ऐसा क्यों?’ उन्होंने कहा, ‘यह ज्यादा उपयोगी होगी।’ मैंने सोचा, ‘आखिर जर्मन भाषा कला से ज्यादा उपयोगी कैसे हो सकती है?’ मतलब यह था कि कला बेकार की चीज होती है, और आगे चलकर ये स्पष्ट हो गया कि दरअसल, स्कूल का पाठ्यक्रम दो भागों में बंटा था - उपयोगी और बेकार। तो बेकार विषय होते थे - कला, संगीत, नृत्य आदि।

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अगर मैं बस यह देख लूं कि आप कैसे बैठते हैं या खड़े होते हैं तो मैं आपको बता सकता हूं कि अगले दस सालों में आपके शरीर में कैसी समस्याएं आएंगी।

सद्‌गुरु : हम लोग अनजाने में ही अपने बच्चों की ग्रेडिंग कर रहे हैं, जबकि जीवन इस ग्रेडिंग को नहीं मानता, केवल स्कूल और शिक्षा व्यवस्था में ही इन चीजों का महत्व है। आखिरकार दुनिया में कौन अच्छा करेगा, यह इस बात से तय नहीं होता कि उसे कहां किस चीज में कितने नंबर मिले हैं।

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हर टेस्ट में खाली कॉपी रखना

मैं तो हर टेस्ट में अपनी कॉपी खाली दे देता था। अगर वे ज्यादा जोर देते थे तो मैं उस पर अपना नाम लिख देता था। वर्ना तो मैं उतना भी नहीं लिखता था। इतना ही नहीं, हर बार मैं अपने नाम की स्पेलिंग भी बदल देता था। उसकी वजह थी कि जर्मन में ‘जे’ का उच्चारण ‘ए’ या ‘वाई’ की तरह होता है और मेरा नाम ‘जे’ से शुरू होता है, तो मैं कभी अपना नाम वाई से लिखता था तो कभी डब्ल्यू से। इस तरह से मैंने हर तरह से नाम की स्पेलिंग लिखने की कोशिश की। अंग्रेजी भाषा के अनुसार किसी व्यक्ति के नाम की स्पेलिंग जैसा वह व्यक्ति चाहे, लिख सकता है। तो हर टेस्ट में मैं अपने नाम की स्पेलिंग अलग लिखता था, जैसा मेरा मन करता, मैं लिख देता था।

अंतिम परिक्षा तो पास करना जरुरी था

जब अंतिम परीक्षा की बारी आती तो मेरी चिंता का कारण बस यही होता था कि मैं अपने से जूनियर बच्चों के साथ कहीं पीछे न छूट जाऊं, जो मैं कभी नहीं चाहता था। मैं अपने दोस्तों के साथ अगली कक्षा में जाना चाहता था, इसलिए मैं वह परीक्षा जरुर पास कर लिया करता। अगर आप शुरू से मेरे रिपोर्ट कार्ड पर नजर डालेंगे तो सभी विषयों में मेरे पैंतीस या छत्तीस नंबर होते थे। परीक्षा में जैसे ही मुझे लगता था कि मैंने पास होने लायक नंबर पाने जितना लिख लिया है, वैसे ही मैं परीक्षा छोडक़र उठ खड़ा होता था। मेरे टीचर मुझसे गुजारिश करते थे, ‘कृपया बैठ जाओ और लिखो।’ मेरा जवाब होता, ‘इसका कोई मतलब ही नहीं है, मुझे पैंतीस नंबर मिल जाएंगे और मैं अगली कक्षा में चला जाऊंगा। मेरे लिए बस यही काफी है।’ उतना छोड़कर मेरी किसी और चीज में कोई रुचि नहीं थी। इसका यह मतलब नहीं था कि मेरी किसी भी चीज में बिलकुल कोई रुचि ही नहीं थी।

हर चीज़ पर भरपूर ध्यान देना

मैं अपने आसपास की हर चीज को खूब ध्यान से देखता था, जिसकी वजह से हर चीज की ज्यामिति की समझ मेरे भीतर विकसित हो गई। जब मैं आठवीं कक्षा में पहुंचा, तब मेरे गणित के पेपर में तीस नंबर की ज्यामिति, तीस नंबर की अंक-गणित व बचे हुए नंबर की बीज-गणित यानी अलजेब्रा के सवाल होते थे। ज्यामिति में मुझे तीस में तीस नंबर मिलते थे और अंक गणित में पांच नंबर मिलते थे, बस। इसी तरह मैं आगे बढ़ता गया, क्योंकि मेरा ज्यामितीय ज्ञान इस समझ पर टिका था कि हर चीज कैसे खड़ी होती है या कैसे टिकती है। जब भी मैं कोई शरीर देखता हूं तो मेरी नजर उसकी ज्यामिति पर जाती है, उसके रंग, आकार या रूप पर नहीं। अगर मैं बस यह देख लूं कि आप कैसे बैठते हैं या खड़े होते हैं तो मैं आपको बता सकता हूं कि अगले दस सालों में आपके शरीर में कैसी समस्याएं आएंगी।

शिक्षा का मकसद सिर्फ पैसे कमाना बन गया है

मेरे भीतर ज्यामिति का ज्ञान, हर चीज पर भरपूर ध्यान देने से आया। मुझे लगता है कि यह एक ऐसी चीज है, जिसे हमें अपने बच्चों में जरूर लाना चाहिए - किसी भी चीज पर ध्यान देना। हम लोगों ने एक बड़ी गलती यह की है कि हमने दो विपरीत चीजों को बहुत मजबूती से बनाया है, जैसे - यह चीज महत्वपूर्ण है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। अगर मानव बुद्धि हर चीज पर अपना ध्यान लगाएगी, तो हर छोटी से छोटी चीज भी एक नए ब्रह्मांड का प्रवेश द्वार बन जाएगी। मनुष्य इसीलिए इस जगत में आया है कि वह अपने जीवन को वहां तक फैला सके, जहां तक कोई दूसरा जीव अपने जीवन को नहीं ले जा सकता है। तो कला और जर्मन भाषा के बारे में सारी बात सिर्फ इतनी ही है कि क्या चीज आपको ज्यादा पैसा कमाने में मदद करेगी, और क्या चीज आपको पैसा कमाने में कोई मदद नहीं देगी। अगर हम इस चीज को अपनी शिक्षा व्यवस्था से नहीं हटाएंगे तो फिर शिक्षा की कोई गुंजाइश ही नहीं होगी, उसकी जगह बस एक और फैक्ट्री खड़ी हो जाएगी।