ब्लूबर्ग टीवी के विवेक लॉ ने इनसाइट 2013 के दौरान सद्‌गुरु, डॉ रामचरण, दीपक जैन और वेलैयन सुबैया के साथ कारोबार और आर्थिक मंदी पर चर्चा की। इस बातचीत का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है।

मंदी से निपटना

विवेक लॉ : सद्गुरु, मैं आप से शुरूआत करता हूँ। आपने एक बार लिखा था, "अगर पैसा आपकी जेब में है तो ये बढ़िया है। लेकिन अगर ये आपके सिर में घुस जाये तो ये एक विकृति बन जाता है"। अभी की परिस्थिति में तो सबसे बड़ा डर यह है कि पैसा जेब में ही नहीं आ रहा। तो, ऐसी स्थिति में हम क्या करें?

सद्‌गुरु: अभी की स्थिति में भी, पैसा किसी की जेब में तो जा ही रहा है। मगर, ये ऐसे लोगों की जेबों में नहीं जा रहा जो इसका उपयोग मानवता की खुशहाली और संपत्ति बढ़ाने के लिये करेंगें।

जब मंदी होती है, तब समय आपको तकलीफ देता है, क्योंकि आपने अपने आपको इस तरह से तैयार किया है कि लोग, चीज़ें, सब कुछ एक खास गति से काम करें। अचानक, जब ये गति मंद हो जाती है तो आपके पास काम करने की योग्यता तो ज्यादा होती है पर काम पर्याप्त नहीं होता। ऐसा होने पर, दुनिया की ज्यादातर कंपनियाँ कर्मचारियों की छंटनी करने लगती हैं, उन्हें निकालना शुरू करती हैं। वे अपने कर्मचारियों को कम करना चाहते हैं। पर, स्टॉक को कम करना और उन कर्मचारियों को कम करना जो आपके लिये काम कर रहे हैं - इसमें काफी फर्क है। लेकिन, आजकल की मैनेजमेंट दोनों को एक ही ढंग से संभालती है जो ठीक नहीं है।

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मैं ये कहूँगा कि लागत कम करने का एक अलग तरीका भी है। लोगों को निकालने की जगह, क्यों न ऐसा करें कि उनके साथ बैठें और बात करें, जिससे वे अपने वेतन में खुद ही कुछ कटौती करने की बात मान लें, और इस तरह बची हुई रकम से उनके लिये कोई नयी संभावना तलाशी जाये? आपके वर्तमान काम में मंदी हो सकती है, पर निश्चित रूप से कुछ अलग संभावनायें भी हो सकती हैं, कुछ नये अवसर मिल सकते हैं। आप इस समय का ऐसे उपयोग कर सकते हैं कि आप और आपके साथ के लोग अपनी जगहों पर बने रहें और सभी मिल कर चीजों को नये ढंग में तैयार करें। अगर आप इसको मंदी के रूप में देखने की बजाय, आराम के एक अवसर के रूप में देखें तो आप अपने काम में कुछ समय के बाद वापस एक नयी ताकत के साथ आ सकते हैं। आराम सभी गतिविधियों का आधार है। अगर, कारोबार को भी थोड़ा आराम मिले तो ये अद्भुत फायदे वाला हो सकता है पर ये बहुत लंबा नहीं होना चाहिये।

आजकल की परिस्थिति में, आराम कोई बहुत लंबा नहीं चलेगा क्योंकि कारोबार सिर्फ भौगोलिक सीमाओं तक ही सीमित नहीं हैं। लोग अपने आप को नयी परिस्थितियों में ढाल सकते हैं और ऐसे क्षेत्रों में जा सकते हैं जहाँ वे बेहतर काम कर सकें। बहुत सारी संभावनायें हैं। पर मूल रूप से, मानव संसाधन को कम करने यानि लोगों को काम से निकालने की बजाय, क्यों नहीं हम उन्हें साथ लायें, उनके साथ मित्र भाव से बात करें, उन्हें इस बोझ को साझा करने के लिये कहें ताकि सभी लोग काम में रह सकें। तो मंदी के इस दौर में सभी लोग एक जुड़ाव के साथ पार हो सकेंगे और काम के अगले स्तर के लिये तैयार होंगे।

विश्व स्तर का आर्थिक नज़रिया

विवेक लॉ: डॉ राम, क्या आपको लगता है कि दुनिया की ये आर्थिक स्थिति जल्द ही बेहतर होगी?

डॉ राम: हाँ! मैं तीन बातें कहना चाहूंगा..... पहली बात - मैं सद्‌गुरु के साथ पूरी तरह सहमत हूँ। दूसरी बात - मैं समझता हूँ कि अगले वर्ष, 2014 की चौथी तिमाही तक, दुनिया की अर्थव्यवस्था 4.5% पर चल रही होगी। मुझे साफ दिख रहा है कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था सही ट्रैक पर है। चीन के 7% आर्थिक विकास से भी मैं खुश हूं। भारत में सरकार कोई भी आये, विकास दर 5% होगी। ब्राज़ील अभी भी गिरावट की तरफ है। जर्मनी साफ तौर पर वापस आयेगा। ग्रीस आदि देश बहुत पीछे हैं। तो, मैं आशावान हूँ, पर बहुत ज्यादा नहीं।

तीसरी बात - मैंने भारत में एक चेयरमैन से ये सीखा - जहाँ कहीं कोई मुश्किल है, खराब स्थिति है, जब कभी कोई मंदी है, तो उसमें एक संदेश है। ये संदेश समझने की कोशिश करें। इसका उपयोग अपने कारोबार को सुधारने में करें - ग्राहकों का चुनाव, उत्पादों का चुनाव - और नये सुधार, नयी चीजों के साथ अपने आपको भविष्य के लिये तैयार करें। मंदी तो एक दिन चली ही जायेगी - आपको इससे आगे बढ़ कर बाहर आना है। सुरक्षात्मक सोच को बदल कर, इसे आक्रामक बनायें।

कामकाज में स्त्री - पुरुष का भेद

विवेक लॉ: सद्‌गुरु, भारत के कॉरपोरेट जगत में एक और बड़ा मुद्दा स्त्री - पुरुष में भेद को ले कर है। आपके इस बारे में क्या विचार हैं?

सद्‌गुरु: मुझे लगता है कि हमें ये सीखना चाहिये कि कामकाज की जगह को स्त्री - पुरुष के भेदभाव से मुक्त करना ज़रूरी है। लोगों को - वे कौन हैं, क्या हैं, इस नज़रिये से देखना चाहिये यानी उनके काम, उनकी काबिलियत की नज़र से, न कि स्त्री/ पुरुष के हिसाब से। आप जब काम कर रहे हैं तब आप स्त्री या पुरुष नहीं होते। आपको बस सही काम करने वाला एक मनुष्य होना चाहिये। आपको आपकी काबिलियत के हिसाब से देखा जाना चाहिये, स्त्री या पुरुष होने से नहीं। मुझे लगता है कि अभी देश में स्त्री - पुरुष का भेद एक बड़ा मुद्दा है क्योंकि एक खास काबिलियत, योग्यता, व्यक्तित्व और अपनी अलग शैली रखने वाली स्त्री अभी भी भारत के लोगों की समझ के लिये एक नयी बात है।

नयेपन की वजह से हम इसे अलग विशेषता देने की कोशिश कर रहे हैं, पर मुझे लगता है कि हमें इस को सामान्य रूप से हल करना चाहिये, और किसी कंपनी के लिये काम करने वाले हरेक व्यक्ति को उसकी काबिलियत के हिसाब से ही देखना चाहिये, फिर चाहे वो स्त्री हो या पुरुष। हमें स्त्रियों के लिये विशेष कानून बना कर उन्हें एक खास समूह के रूप में अलग करने की बजाय एक ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिये जिसमें उन्हें सिर्फ उनकी काबिलियत के हिसाब से देखा जाये। इस सब को समान कर देना ज्यादा महत्वपूर्ण है, हालाँकि ऐसा कहना करने के मुक़ाबले ज्यादा आसान है। ये तुरंत नहीं होने वाला। हमें धीरे-धीरे अपनी संस्कृति को इस तरफ ढालने की ज़रूरत है, जिससे आने वाली पीढ़ी में कामकाजी लोगों में लगभग 50% महिलायें हों। इसको विशेष या अलग बनाने की बजाय सामान्य बनाना ही महत्वपूर्ण है।

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