सद्‌गुरुजाने-माने फि ल्म निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक कुणाल कोहली ने सद्गुरु से बातचीत की। इस बातचीत में इच्छा-मृत्यु पर उन्होंने कुछ सवाल सद्‌गुरु के सामने रखे। पेश है, इस बातचीत का अंश:

कुणाल: कुछ साल पहले मेरी दादी बीमार पड़ गईं। अपने जीवन के अंतिम दो साल वह अस्पताल में वेंटिलेटर और ऐसी ही जीवन सहायक उपकरणों पर रहीं। लेकिन उस दौरान पूरे समय वह लगभग अपने होशोहवास में नहीं थीं। अपने विचारों में वह अपने जीवन के अलग-अलग दौरों में जाती-आती रहीं। मैं उनके जीवन की दशा पर विचार करता और हैरानी से सोचता कि क्यों नहीं हमारे समाज में यूथेनेसिया यानी इच्छा-मृत्यु जैसी चीजों पर विचार और बहस होनी चाहिए? हर इंसान को जीने के लिए जीवन में एक खास गुणवत्ता और सम्मान चाहिए। अगर ये चीजें उस इंसान से छिन जाएं तो क्या उसके परिवारवालों को यह अधिकार होना चाहिए कि वे वेंटिलेटर जैसी मेडिकल तकनीकों के सहारे उसके जीवन को जारी रखने के लिए बाध्य न रहें?

इच्छा मृत्यु तय कौन करेगा?

सद्‌गुरु: यह समझा जा सकता है कि जब हम किसी को भयानक तकलीफ में देखते हैं और इससे निजात पाने और ठीक होने का उनके लिए कोई रास्ता नजर नहीं आता तो फि र हम उनकी मुक्ति की कामना करने लगते हैं।

अगर आप किसी व्यक्ति की जीवन ऊर्जा पर नजर डालें तो आप स्पष्ट तौर पर बता सकते हैं कि वह इतनी तीव्र है या नहीं, कि व्यक्ति फि र से ठीक हो जाए।
लेकिन साथ ही सवाल यह भी उठता है कि यह तय कौन करेगा? आपके पास जितना ज्यादा पैसा होगा, आपके आसपास के लोग आपकी इच्छा-मृत्यु की उतनी ही ज्यादा बात करेंगे। अगर आपने पैसे को अपने से दूर कर दिया तो फि र उन्हें कोई फ र्क नहीं पड़ेगा कि आप कब तक जिंदा रहते हैं। दरअसल, सिर्फ पैसे की वजह से ही नहीं, बल्कि और भी कई वजहें हैं, जिसकी वजह से हो सकता है कि लोग आपसे छुटकारा पाना चाहें। आप यह फैसला दूसरे लोगों के हाथों में नहीं छोड़ सकते। जरुरी नहीं कि ऐसा लोग किसी बुरे इरादों से ही करें, यह लापरवाही की वजह से भी हो सकता है।

कई लोग ठीक होकर वापस आए हैं

दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हुए हैं, जिन्हें देखकर लगा कि वे जल्द ही मरने वाले हैं, सबकी उम्मीदें खत्म हो चुकी थीं, लेकिन वे ठीक हुए और फि र कई सालों तक जिंदा रहे।

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आप यह फैसला दूसरे लोगों के हाथों में नहीं छोड़ सकते। जरुरी नहीं कि ऐसा लोग किसी बुरे इरादों से ही करें, यह लापरवाही की वजह से भी हो सकता है।
तो फि र इच्छा-मृत्यु का फैसला कौन करेगा? आप सिर्फ एक ही चीज कर सकते हैं और वह है जीवन रक्षक तकनीकों का हद से अधिक उपयोग न किया जाए। लेकिन आज विज्ञान की दूसरी शाखाओं की तरह चिकित्सा विज्ञान में भी एक ही दिक्कत है, पहले तो वे जो कुछ कर सकते हैं सब करेंगे, फि र बाद में उन्हें अहसास होगा कि यह नहीं करना चाहिए था। इस मामले में हममें विवेक की कमी है कि हमें क्या इस्तेमाल करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। इसलिए वे किसी भी कीमत पर इंसान को जिंदा रखना चाहते हैं।

अमेरिका में स्वास्थ्य की देखरेख पर सालाना खर्च होने वाली 3.8 ट्रिलियन डॉलर की राशि का बड़ा हिस्सा लोगों के जीवन के अंतिम 30 दिनों पर खर्च होता है। बिना इस मेडिकल सहायता के वे लोग स्वाभाविक तौर पर कुछ दिन या कुछ हफ्ते पहले मर जाते। आखिर हम और आप अगर 30 दिन पहले मरते हैं तो इसमें क्या दिक्कत है? लेकिन जीवन को किसी भी कीमत पर बढ़ाया जा रहा है। मैं यहां सिर्फ आर्थिक कीमत की बात नहीं कर रहा हूं।

स्वास्थ्य सेवा एक बिज़नेस बन बया है

जीवन में चिकित्सा का जो इतना हस्तक्षेप हो रहा है, उसका एक कारण तो यह भी है कि यह अब बिजनेस बन चुका है। अगर सभी लोग सेहतमंद रहेंगे तो यह मेडिकल उद्योग कैसे चलेगा? कम से कम जीवन के अंतिम दौर में वे यह जानते हुए कि रोगी और उनके परिवारजन - दोनों के लिए यह एक भावनात्मक मुद्दा है, वे इलाज के नाम पर उनसे अच्छी खासी मोटी रकम खींच लेते हैं।

मैं देखकर साफ तौर पर बता सकता हूं कि यह व्यक्ति निश्चित तौर पर मरेगा या यह ठीक हो सकता है। लेकिन मैं यह फैसला लेने के लिए हर अस्पताल तो नहीं जा सकता।
तब आप फैसला नहीं ले सकते कि मेरी मां को मरने दो। लेकिन इसी के साथ आप अपनी मां को और ज्यादा पीड़ा नहीं झेलने देना चाहते। हो सकता है कि ऐसे में लोग भगवान की तरफ देखकर प्रार्थना करते हों कि वही कोई रास्ता निकालेगा, लेकिन डॉक्टर मां को जाने भी नहीं देते। वे चाहते हैं कि मरीज जीवन-मौत के बीच झूलता रहे, क्योंकि इससे उनके अस्पताल का बिल जो बढ़ता है।

कुणाल: बिल्कुल ठीक।

सद्‌गुरु: कोयंबटूर में, वाकई में ऐसे कुछ ऐसे मामले हुए हैं, जहां लोगों के मरने के बाद उन्हें अस्पताल वालों ने आईसीयू में तीन दिनों तक रखा और इसके लिए घरवालों से पैसा लिया गया। हो सकता है ऐसा कई बार हुआ हो। एक बार वे इस मामले में पकड़े गए। एक बार कुछ लोग एक मुर्दे को लेकर अस्पताल में गए, अस्पताल ने न सिर्फ उस मुर्दे को दाखिल कर लिया, बल्कि दो दिनों तक उसे इलाज के नाम पर रखा भी और फि र बताया कि आदमी की मौत हो गई। लेकिन मरे हुए मरीज को लाने वालों के पास पहले से ही दूसरे राज्य के अस्पताल द्वारा जारी किया गया मृत्यु का प्रमाण पत्र था।

तब यह एक बड़ा मुद्दा बना था और उस अस्पताल को कानूनी कार्यवाही से बचने व मामले को निपटाने के लिए करोड़ों रुपये देने पड़े थे। तो ऐसी चीजें हो रही हैं। यह सब बस कारोबार बन चुका है। किसी समय इस देश में स्वास्थ्य, शिक्षा और आध्यात्मिक प्रक्रिया में कारोबारी बुद्धि नहीं लगाई जाती थी, ये चीजें एक भेंट व अर्पण के तौर पर देखी जातीं थीं।

बिना इस मेडिकल सहायता के वे लोग स्वाभाविक तौर पर कुछ दिन या कुछ हफ्ते पहले मर जाते। आखिर हम और आप अगर 30 दिन पहले मरते हैं तो इसमें क्या दिक्कत है?
लेकिन हम अब वापस उस दौर में तो जा नहीं सकते, क्योंकि तब से अब तक चीजें बहुत बदल चुकी हैं। इन चीजों को एक खास कीमत पर उपलब्ध कराया जा सकता है, लेकिन उसके बाद इन चीजों की कोई अतिरिक्त कीमत नहीं होनी चाहिए। यह कभी सिद्धांत हुआ करता था, लेकिन आज तो हम बौद्धिक संपदा पर भी अपने अधिकारों की बात करने लगे हैं, जिसे आप ‘इंटेलक्टुअल प्रोपॉर्टी राइट’ कहते हैं। जिसने कोई चीज खोजी, वह उस पर अपना दावा पेश कर रहा है। यहां तक की बीमारियों के नाम भी लोगों के नाम पर रखे जा रहे हैं। मुझे समझ में नहीं आता कि क्यों कोई इंसान अपना नाम किसी बीमारी या ऐसी चीज से जोडऩा चाहता है, जिससे किसी को पीड़ा पहुंचती हो।

व्यक्ति की ऊर्जा पर निर्भर करता है फिर से स्वस्थ होना

हम लोग इस मुद्दे पर अंतहीन बहस या चर्चा कर सकते हैं, लेकिन इस पर कोई फैसला लेना मुश्किल है। मैं ऐसे कई लोगों के पास रहा हूं, जो मर रहे थे। मैं देखकर साफ तौर पर बता सकता हूं कि यह व्यक्ति निश्चित तौर पर मरेगा या यह ठीक हो सकता है। लेकिन मैं यह फैसला लेने के लिए हर अस्पताल तो नहीं जा सकता।

इसलिए सबसे अच्छा यही है कि लोगों को किसी के जीवन के बारे में फैसला लेने और एक जिंदा इंसान की मौत का प्रमाणपत्र लिखने का अधिकार देने के बजाय जीवन को लंबा खिंचने दीजिए।
अगर आप किसी व्यक्ति की जीवन ऊर्जा पर नजर डालें तो आप स्पष्ट तौर पर बता सकते हैं कि वह इतनी तीव्र है या नहीं, कि व्यक्ति फि र से ठीक हो जाए। अगर ऊर्जा काफी प्रबल है और उसका शरीर इसके अनुकूल है तो वे ठीक हो सकते हैं। शरीर इसके लायक अनुकूल है या नहीं, यह मेडिकल से जुड़ा सवाल है, जिसके बारे में डॉक्टरों को तय करना होगा।

जबकि दूसरी तरफ , अगर शरीर अच्छा भी दिखता हो, लेकिन अगर उसकी ऊर्जा में काफी कमी है, तो फि र आप कुछ भी कर लीजिए वह इंसान ठीक नहीं होगा। एक तरह से यह सॉफ्टवेयर का मामला है। अगर सॉफ्टवेयर ही खराब हो चुका हो तो फि र आप कुछ भी कर लीजिए, यह ठीक नहीं होगा। लेकिन इस मुद्दे पर फैसला लेने का अधिकार किसे है? इसलिए सबसे अच्छा यही है कि लोगों को किसी के जीवन के बारे में फैसला लेने और एक जिंदा इंसान की मौत का प्रमाणपत्र लिखने का अधिकार देने के बजाय जीवन को लंबा खिंचने दीजिए। बेहतर है कि इंतजार किया जाए, लेकिन इसके साथ ही जीवन सहायक उपकरणों पर भी बहुत ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए।