बच्चों को सुधारें मत, उन्हें प्रेरित करें
मां बाप हों या अध्यापक, आजकल हर कोई बच्चों को सुधारने में लगा है, उन्हें सिखाने में लगा है। लेकिन सच्चाई यह है कि बच्चों को सुधार की कोई आवश्यकता ही नहीं है। क्या हैं बच्चों की आवश्यकताएं...?
प्रश्न: मैं एक स्कूल अध्यापक हूं। क्या कोई ऐसा तरीका है, कि बिना कोई सजा दिए मैं अपने छात्रों के नजरिये को बदल सकूं, और उनको सुधार सकूं?
सद्गुरु:
आपसे किसने कह दिया कि बच्चों को सजा या दंड देकर सुधारा या बदला जा सकता है। बच्चे के बारे में सबसे पहली बात जो आपको समझनी चाहिए, वह यह है कि उसके साथ कुछ भी गड़बड़ नहीं है। हां यह अवश्य हो सकता है, कि आपके भीतर थोड़ी बहुत विकृति हो। वास्तव में उसके अंदर कुछ भी गड़बड़ नहीं है। जीवन अपने शुद्ध रूप में बच्चे के द्वारा प्रकट होता है। इस समाज में फिट होने के लिए आपने खुद को विकृत किया है, बच्चे ने नहीं। बच्चों का जीवन तो ठीक वैसा ही है, जैसा कि मनुष्य जीवन को होना चाहिए, लेकिन आपको यह पसंद नहीं है।
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दरअसल, असली दिक्कत है कि हमें बच्चों को एक अलग ही दुनिया के लायक बनाना है, इस दुनिया के लायक नहीं। बच्चे तो इस दुनिया के हैं, पर ऐसा लगता है कि आप खुद कहीं बाहर की दुनिया से आए हैं, कम से कम आपकी हरकतों से तो ऐसा ही लगता है; दिक्कत बस यही है। आपको यह समझना चाहिए, कि बच्चे को सिखाने से ज्यादा आप उससे काफी कुछ सीख सकते हैं। जीवन के बारे में आप भला बच्चे को क्या सिखाएंगे! आप उसे किताबी ज्ञान दे सकते हैं। उसे भौतिकी, जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान सिखा सकते हैं। इस जगत में व्याप्त प्राकृतिक शक्तियों का आपको कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है। बस थोड़ी बहुत जानकारी है, जो आपने किताबों में पढ़ी है। परीक्षा पास करना जरूरी है, नौकरी हासिल करना भी जरूरी है, पर इसके लिए उन्हें किसी सुधार केंद्र में डालने की जरूरत नहीं हैं। आपको यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए।
आपसे किसने कह दिया कि उसमें कुछ गड़बड़ है, जो आप पर ‘मैं उसे कैसे सुधारूं?’का भूत सवार है। अगर आपको लगता है कि बच्चे को सुधारा जाना चाहिए - तो इसका मतलब है कि आप मानते हैं, कि सृष्टिकर्ता ने उसे बनाने में कहीं कोई गलती कर दी है, और आप उसे ठीक करना चाहते हैं। यह और कुछ नहीं भयानक अहम है। दुर्भाग्य की बात यह है कि आजकल बहुत सारे अध्यापक इसके शिकार हैं। आप बच्चों को ठीक नहीं कर रहे हैं, आप उन्हें गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं। आप इसे बेहतर समझते हैं। वे बिल्कुल सामान्य हैं, खुश हैं, खेलते-कूदते हैं और मस्त रहते हैं। आप उन्हें गुमराह कर रहे हैं, यह सिखा-सिखाकर कि नंबर वन कैसे बना जाए। नंबर वन होने का क्या अर्थ है? नंबर वन होने की कोशिश करना एक बीमार मन की उपज है। अगर आप नंबर वन होना चाहते हैं, तो आप यह चाहते हैं कि पूरी दुनिया आपसे पीछे हो जाए, क्योंकि नंबर वन तो सिर्फ एक हो सकता है। यह कामयाबी नहीं है, यह एक बीमारी है। आप अपने बच्चे को एक तरह की बीमारी सिखाने की कोशिश कर रहे हैं।
ऐसा मानकर मत चलिए, कि आपको बच्चे को सुधारना है। बच्चे में कुछ ऐसा नहीं है, जिसे सुधार की जरूरत हो। आप जिस समाज में रह रहे हैं, क्या आप उससे सौ फीसदी खुश हैं? नहीं हैं। लेकिन आप अपने बच्चे को उसके मुताबिक बनाना चाहते हैं, उसे एक भावनाशून्य इंसान बनाना चाहते हैं - जो इस समाज में फिट होगा और उसकी चाकरी करेगा। आपको समझना चाहिए, कि बच्चों को दक्ष या फिर चैंपियन बनाने की कला आसान नहीं है। आपको कुछ भी पता नहीं है। आप बस उन्हें इस दुनिया में गुजर बसर के कुछ दाव पेंच सिखा रहे हैं। चीजों को देखने और करने में अगर आप उन्हें विवेक का उपयोग करना सिखाते हैं, तो वे कुछ कर जाएंगे। हो सकता है, वे चीजों को वैसे न करें, जैसे आप चाहते हैं। अगर ऐसा होता है, तो यह और भी अच्छी बात है। इससे दुनिया में बदलाव आएगा। और यह शानदार बात होगी।
बच्चों को बस प्रेरणा की जरूरत होती है, सुधार की नहीं। आपको एक ऐसा मददगार व अनुकूल माहौल तैयार करना है, जिसमें उनकी बुद्धि और समझ विकसित होकर फल-फूल सके। क्योंकि आप उन्हें ऐसा माहौल नहीं दे पाते, इसलिए आप उन्हें गुमराह करके इस समाज के मुताबिक ढालने की कोशिश करते हैं। हम बच्चों को एक ऐसे समाज में फिट करने की कोशिश रहे हैं, जिसमें हम खुद खुश नहीं है - यही समस्या है। हमारे पास जिस तरह का समाज है, उसमें उन्हें फिट होना आना चाहिए। इसलिए हम ये सारी कोशिशें कर रहे हैं, वर्ना तो उनके साथ कुछ भी गलत नहीं है।