आत्महत्या करने का क्या आपको हक है ?
आये दिन अखबारों में आत्महत्या से जुड़ी खबरें छपती रहती हैं। कारण चाहे जो भी हो - आर्थिक बदहाली, भावनात्मक समस्या या फिर कुछ और, क्या यह कदम उचित है? सद्गुरु दे रहे हैं इस सवाल का जवाब.
आये दिन अखबारों में आत्महत्या से जुड़ी खबरें छपती रहती हैं। कारण चाहे जो भी हो - आर्थिक बदहाली भावनात्मक समस्या या फिर कुछ और क्या यह कदम उचित है सद्गुरु दे रहे हैं इस सवाल का जवाब.
सद्गुरु:
कभी-कभी जिंदगी लोगों को ऐसी परिस्थितियों में ला कर खड़ी कर देती है कि उस वक्त उनको ऐसा महसूस हो सकता है कि फिलहाल वे जिस हाल में हैं उससे तो मर जाना ही बेहतर है। लेकिन अगर आप इसको ठीक मान लेते हैं तो फिर हालत ये हो जाएगी कि छोटी-मोटी मुश्किलों को भी लोग अपने जीवन की सबसे कठिन परिस्थिति मान कर अपनी जान देने की सोच सकते हैं। इसलिए इसको तो किसी भी हालत में ठीक नहीं माना जा सकता। क्योंकि सामाजिक ढांचे और सामाजिक सोच में जैसे ही इसको मंजूरी मिल जाएगी लोग बड़ी संख्या में आत्महत्या करने की सोचने लगेंगे।
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ये जीवन आपने नहीं बनाया है, इसलिए जीवन को खत्म करने का हक भी आपको नहीं है – फिर चाहे वह आपका हो या किसी और का। सीधी सी बात है कि अगर आप किसी चीज को बना नहीं सकते तो उसे आपको बिगाड़ना भी नहीं चाहिए। जिंदगी में हर तरह के हालात आयेंगे- कुछ अच्छे तो कुछ बुरे और कुछ बेहद भयानक भी, फिर भी आपको अपनी जान लेने का कोई हक नहीं क्योंकि आपमें इसको रचने की क्षमता नहीं है।
स्वाभाविक रूप से हर किसी के लिए खुद का जीवन अनमोल होता है। अगर किसी ने इस भावना को लांघ कर अपनी जान लेने की कोशिश की हो पर जीवित बच गया हो तो मैं उससे कहूंगा नहीं, ऐसा कभी न करना। लेकिन अगर वे आत्महत्या कर चुके हैं तो उनके इस निर्णय का सम्मान करते हुए इस विषय को वहीं छोड़ दीजिए। जीवन के इतना अनमोल होने के बावजूद अगर किसी ने अपनी जान लेने का कठोर कदम उठा ही लिया है तो फिर हमें चाहे यह कितना भी बेवकूफी भरा कदम क्यों न लगे, उनके निर्णय का सम्मान करना होगा क्योंकि जो हो गया सो हो गया। लेकिन अगर वे जीवित बच जाते हैं तो आपको चाहिए कि पूरा जोर लगा कर उनको मना करें क्योंकि उनको ऐसा करने का कोई हक नहीं है।
इंसान की कार्मिक बनावट और आध्यात्मिक विकास के आधार पर देखें तो ऐसा करना सौ फीसदी गलत है। इसका सवाल ही नहीं पैदा होता। जीवन की हर परिस्थिति को उलझन मानने की बजाय मुक्ति की संभावना के रूप में देखना होगा। अगर आप हर परिस्थिति को आगे बढ़ने की सीढ़ी के रूप में देखेंगे तो फिर आत्महत्या का सवाल ही नहीं उठेगा। अगर समाज में आध्यात्मिक प्रक्रियाएँ सक्रिए हो जाएँ तो मानसिक रोगियों को छोड़ बाकी लोगों के बीच आत्महत्या की वारदातें लगभग पूरी तरह खत्म हो जायेंगी। अपने दिमाग पर काबू न होने के कारण शायद कुछ मानसिक रोगी ऐसा कर बैठें। लेकिन अगर किसी के जीवन में आध्यात्मिक क्रिया चल रही है तो जान-बूझ कर अपनी जान लेने वाले लोग बहुत ही कम होंगे। संभव है आत्महत्या की घटनाएं पूरी तरह से थम जायें।