महाभारत का एक अहम पात्र था अर्जुन, जिसमें बहुत सारी खूबियों के बावजूद एक असुरक्षा की भावना हमेशा रही। आखिर वह किस चीज से खुद को असुरक्षित महसूस करता था?

सद्‌गुरुमार्शल आर्ट्स की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए पांडवों और कौरवों को अपनी योग्यता का प्रदर्शन करना था ताकि वे नागरिकों के बीच यह भरोसा जगा सकें कि इन युवा राजकुमारों में उनकी रक्षा करने की काबिलियत है और वे देश में धन-दौलत और खुशहाली ला सकते हैं। ऊपरी तौर पर यह बस एक प्रदर्शन था, मगर पांडवों और कौरवों के बीच यह एक भयानक प्रतिस्पर्धा थी। समारोह शुरू हुआ। भीम और दुर्योधन थक कर चूर होने तक लड़ते रहे मगर एक-दूसरे को हरा नहीं पाए। बाकी लोगों ने भी अपने कौशल दिखाए। सबसे आखिर में अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या के कौशल का प्रदर्शन करना था। उसके कौशल से चमत्कार की उम्मीद था। उस समय धनुर्विद्या और तंत्र विज्ञान आपस में जुड़े थे। अर्जुन तंत्र विद्या के प्रयोग से मैदान में ही जो चाहे, वह पैदा कर सकता था। लोग हैरान थे कि किस तरह उनकी नजरों के सामने सारी चीजें प्रकट और गायब हो रही थीं। अर्जुन एक रेगिस्तान के अंदर गया और बर्फ के पहाड़ से निकला। वह एक समुद्र में कूदकर एक गुफा से बाहर निकला। उसकी कला का मुकाबला कोई नहीं कर सकता था। लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर वह बहुत आनंदित था।

हालांकि अर्जुन बहुत अनुशासित और अपने लक्ष्य पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित रखने वाला व्यक्ति था, मगर पूरे जीवन वह बहुत आशंकित रहा। उसे हमेशा इस बात का डर था कि कोई और उससे बेहतर धनुर्धर न बन जाए। ऐसा न होने पाए, इसके लिए उसने कई अमानवीय चीजें भी कीं।
इसी बीच स्टेडियम में एक सुनहरा योद्धा दाखिल हुआ। उसका बर्ताव और हाव-भाव ऐसा था कि लोग सांस रोककर उसे देखने लगे। उन्हें पता नहीं था कि वह कौन है। प्रदर्शन के बीच में घुस आने वाला यह योद्धा कर्ण था क्योंकि वह भी अपने कौशल का प्रदर्शन करने के लिए बेचैन था, मगर उसके लिए कहीं जगह नहीं थी। वह बोला, ‘अरे अर्जुन, जहां कोई मुकाबला न हो, वहां विजेता का कोई अर्थ नहीं होता। जिस प्रतियोगिता में और कोई प्रतियोगी ही न हो, उसमें जीत नहीं होती।’ आगे बिना बोले उसने अपनी तंत्र और धनुर्विद्या कौशल का प्रदर्शन शुरू कर दिया।  उसके पहाड़ कहीं ज्यादा ऊंचे थे, समुद्र ज्यादा बड़े थे, हवाएं ज्यादा तेज थीं और जंगल ज्यादा घने थे। उसकी तंत्र विद्या और तीरंदाजी, दोनों अर्जुन से बेहतर थे।

अर्जुन के जीवन का एकमात्र लक्ष्य था, दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनना। वह एक महान योद्धा तो था, मगर बहुत एकांतिक व्यक्ति था। हालांकि वह बहुत अनुशासित और अपने लक्ष्य पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित रखने वाला व्यक्ति था, मगर पूरे जीवन वह बहुत आशंकित रहा। उसे हमेशा इस बात का डर था कि कोई और उससे बेहतर धनुर्धर न बन जाए। ऐसा न होने पाए, इसके लिए उसने कई अमानवीय चीजें भी कीं।

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एक बार एकलव्य नाम का एक बालक द्रोण के पास आया। वह आर्य नहीं, बल्कि निषाद जाति का था, जो भारत के मूलनिवासी जातियों में से एक है। ग्रंथों में उसका उल्लेख ऐसे किया गया है कि उसकी चाल चीता की तरह थी। उसका रंग सांवला था, बाल कसकर बंधे हुए थे। वह एक शक्तिशाली और सुडौल इंसान था। उसने द्रोण से तीरंदाजी सीखने की इच्छा जताई। द्रोण बोले, ‘तुम क्षत्रिय नहीं हो, इसलिए मैं तुम्हें नहीं सिखा सकता।’

वह बालक द्रोण के चरणों में गिर पड़ा और बोला, ‘मैं सामाजिक कायदे-कानून समझता हूं। आप बस मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए। मैं आपके आशीर्वाद से ही यह विद्या प्राप्त कर लूंगा।’ द्रोण ने उसकी विनम्रता और ईमानदारी को देखते हुए, उसके सर पर हाथ रखा और कहा, ‘मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं।’ एकलव्य वन में चला गया। उसने धुन में आकर नदी की मिट्टी से द्रोण की मूर्ति बनाई। अगर आप एक महान गायक बनना चाहते हैं, तो आपके पास न सिर्फ एक बढ़िया आवाज, बल्कि सुनने की अच्छी क्षमता भी होनी चाहिए। एक अच्छा श्रोता ही संगीतकार बन सकता है। इसी तरह, अगर आप तीरंदाज बनना चाहते हैं, तो सिर्फ हाथों से काम नहीं चलता, आपकी आंखें भी पैनी होनी चाहिए कि आप किसी चीज को कितनी बारीकी से परख सकते हैं और अपना ध्यान बनाए रख सकते हैं।

वे सब द्रोण की तलाश में गए तो उन्हें एक हृष्ट-पुष्ट युवक मिला, जो चीते की तरह, सांवले रंग का था, उसके सिर पर जटाएं कस कर बांधी हुई थीं और उसने सीधे अर्जुन के माथे पर तीर का निशाना लगा रखा था। अर्जुन का दिल धक से रह गया क्योंकि वह ऐसी आंखें पहचानता था।
अर्जुन में ये सभी गुण थे। एक दिन प्रशिक्षण के दौरान, द्रोण ने उनकी धनुर्विद्या की परीक्षा लेने की सोची। उन्होंने एक पेड़ के ऊपर लकड़ी की एक छोटी सी चिड़िया रखी और उन्हें चिड़िया की आंख का निशाना लगाने को कहा। कौरवों और पांडवों ने एक-एक करके निशाना लगाया। द्रोण ने उनसे पूछा, ‘तुम्हें क्या दिख रहा है?’ उन्होंने कहा, ‘पत्ते, पेड़, आम, चिड़िया और आकाश’ – इस तरह सभी ने अलग-अलग चीजें बताईं। द्रोण ने सभी को खारिज कर दिया। अंत में अर्जुन की बारी आई। जब द्रोण ने पूछा कि तुम्हें क्या दिख रहा है, तो अर्जुन अदिधा मुद्रा में खड़े हो गए – योग में हम इस मुद्रा का काफी प्रयोग करते हैं क्योंकि यह शरीर को स्थिर करता है। एक धर्नुधर के लिए मुद्रा की स्थिरता सबसे महत्वपूर्ण है। अगर आप हल्के से भी हिले, तो आप लक्ष्य से चूक जाएंगे। अर्जुन ने इस मुद्रा में खड़े होकर चिड़िया को देखा। द्रोण के पूछने पर वह बोला, ‘मुझे सिर्फ चिड़िया की आंख दिख रही है।’ द्रोण बोले, ‘सिर्फ तुम आगे के प्रशिक्षण के लिए तैयार हो।’ फिर द्रोण ने उसे तीरंदाजी की बारीकियां सिखाईं, जिसमें आंखें बंद करके तीर चलाना, अंधेरे में तीर चलाना, लक्ष्य को बिना देखे उसे मारना जैसी चीजें थीं। द्रोण ने अर्जुन को रोज एक घुप्प अंधेरी कोठरी में भोजन करने को कहा। उन्होंने कहा, ‘अगर तुम बिना देखे अपने मुंह तक भोजन ले जा सकते हो, तो तुम शत्रु को देखे बिना उसके हृदय में तीर क्यों नहीं मार सकते?’

अर्जुन ने इन सभी विकसित तकनीकों में प्रशिक्षण लिया और उसे लगने लगा कि वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है। फिर एकलव्य आया, जो द्रोण का आशीर्वाद लेकर वापस वन में चला गया। जब एकलव्य द्रोण के पास आया था, तो उसने जिस तरह द्रोण को देखा और छोटी से छोटी बात पर ध्यान दिया, उससे द्रोण तुरंत मुग्ध हो गए। एक धनुर्धर का गुण यही होता है कि उसकी दृष्टि से कोई चीज नहीं चूकती। जो व्यक्ति किसी चीज को देखते समय उसकी किसी बारीकी को छोड़ देता है, वह निश्चित तौर पर तीर चलाते समय भी निशाने से चूक जाएगा। एकलव्य ने अपने अंदर द्रोण की छवि कैद कर ली थी, इसलिए उसने वन में जाकर उनकी एक मिट्टी की मूर्ति बनाई और उसे प्रणाम करके अभ्यास करना शुरू कर दिया।

एक दिन पांडव और कौरव शिकार पर जंगल में गए। उनका शिकारी कुत्ता उनसे आगे निकल गया। एक जगह जाकर कुत्ते ने भौंकना शुरू कर दिया। उन्हें लगा कि उसे शिकार मिल गया है और वे कुत्ते की दिशा में जाने लगे। अचानक कुत्ता चुप हो गया। उन लोगों को लगा कि किसी बाघ या भालू ने कुत्ते को मार डाला। वे कुत्ते को ढूंढने लगे, तभी कुत्ता वापस उनकी ओर आया। उसके मुंह में छह तीर लगे हुए थे जिससे उसका मुंह इस तरह बंद हो गया था कि वह भौंक नहीं सकता था।

यह देखने के बाद भीम ने पहला प्रश्न यह किया कि क्या द्रोण वन में हैं, क्योंकि ऐसा उनके सिवा कोई नहीं कर सकता था, यहां तक कि अर्जुन भी नहीं। कुत्ते के मुंह को शिकंजे की तरह जकड़ने के लिए पल भर में छह तीर मारने की जरूरत थी। वे सब द्रोण की तलाश में गए तो उन्हें एक हृष्ट-पुष्ट युवक मिला, जो चीते की तरह, सांवले रंग का था, उसके सिर पर जटाएं कस कर बांधी हुई थीं और उसने सीधे अर्जुन के माथे पर तीर का निशाना लगा रखा था। अर्जुन का दिल धक से रह गया क्योंकि वह ऐसी आंखें पहचानता था। ऐसी स्थिर एकाग्रता वाला व्यक्ति अपना निशाना नहीं चूक सकता था। वह जान गया कि इसी युवक ने बाणों के शिकंजे से कुत्ते को चुप करा दिया था। अर्जुन यह देखकर निराश हो गया कि उससे बेहतर तीरंदाज मौजूद है।

अर्जुन ने उससे पूछा, ‘तुम कौन हो और यह सब तुमने कहां से सीखा? तुम तो क्षत्रिय भी नहीं हो!’ युवक बोला, ‘मैं एकलव्य हूं और द्रोण मेरे गुरु हैं।’ अर्जुन भागा-भागा सीधे द्रोण के पास गया और रोने लगा, ‘आपने मुझसे वादा किया था कि आप मुझे सबसे महान धनुर्धर बनाएंगे मगर आपने किसी और को मुझसे बेहतर बना दिया है। यह अच्छी बात नहीं है।’ द्रोण ने कहा, ‘तुम किसकी बात कर रहे हो?’ अर्जुन बोला, ‘जंगल में एक लड़का है, जो मुझसे बेहतर धनुर्धर है। वह कहता है कि आप उसके गुरु हैं। उसके पास आपकी मूर्ति है और वह धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा है।’

द्रोण ने कहा, ‘हां, मैंने तुम्हें सर्वश्रेष्ठ बनाने का वादा किया था। तुम इस राज्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो और अगर तुम सर्वश्रेष्ठ नहीं हुए तो मैं अपनी दक्षिणा नहीं लूंगा। इस समस्या का कोई हल करते हैं।’ वह वन में जाकर एकलव्य से मिले। एकलव्य उन्हें अपना गुरु मानता था, जबकि उन्होंने उसे कुछ भी नहीं सिखाया था। वह द्रोण के चरणों में गिर पड़ा। आनंदविभोर होकर उसने फल-फूल से द्रोण का स्वागत किया। मगर द्रोण के दिमाग में कुछ और चल रहा था। वह बोले, ‘यह बहुत अच्छी बात है कि तुम एक महान धनुर्धर बन गए हो, मगर मेरी गुरु दक्षिणा कहां है?’ उन दिनों यह परंपरा थी कि गुरुदक्षिणा दिए बिना शिष्य अपनी शिक्षा का इस्तेमाल नहीं कर सकता था।

एकलव्य बोला, ‘गुरुजी, आप जो चाहे मांग लें।’ फिर द्रोण ने कहा, ‘मैं तुम्हारा दाहिना अंगूठा चाहता हूं।’ पारंपरिक भारतीय तीरंदाजी में बाण को दाहिने अंगूठे से खींचा जाता था। दाहिने अंगूठे के बिना आप धनुर्धर नहीं बन सकते। उन दिनों धनुर्धरों का बहुत महत्व था क्योंकि तलवार या भाला चलाने वाले के मुकाबले वे अधिक दूरी से ही प्राण ले सकते थे। वे अपने जीवन को जोखिम में डाले बिना दूसरों को मार सकते थे, जैसा करीब से लड़ने वाले योद्धा नहीं कर सकते थे। इससे वह अधिक महत्वपूर्ण और सक्षम हो जाते थे। जब एकलव्य ने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपना दाहिना अंगूठा काटने के लिए अपनी कटार निकाली, तो द्रोण ने उसे एक पल रुकने को कहा जिससे वह देख सकें कि अर्जुन पीछे हट रहा है या नहीं। मगर अर्जुन उदासीन बना रहा, मानो यह कोई रस्म हो, जिसे पूरा होना ही था। हालांकि अर्जुन में कई गुण थे, मगर असुरक्षा की भावना उसके ऊपर हावी थी। वह धरती का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होना चाहता था और एकलव्य का अंगूठा कटने के बाद वह फिर से सबसे बेहतरीन धनुर्धर था।

आगे जारी...