सद्‌गुरुएक साधक लिंग भैरवी प्राण प्रतिष्ठा में आने के बाद का अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि उसे देवी की उपस्थिति हर जगह महसूस होती है। सद्‌गुरु बता रहे हैं कि कैसे भैरवी आपको आपके वंश या अतीत के प्रभावों से मुक्त कर सकती हैं।

प्रश्न: मैं भारत में लिंग भैरवी की प्राण प्रतिष्ठा में आई थी। तब से मेरा जीवन बदल गया है। मैं हर जगह और कई बार बहुत तीव्रता से देवी की मौजूदगी को महसूस करती हूं।

भैरवी की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह किसी और को मां के रूप में नहीं देखना चाहेंगी। इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि आपकी मां को चिंता हो रही है।
कभी ड्राइविंग करते समय, कभी खाना पकाते समय। मुझे इससे कोई परेशानी नहीं है। मैंने अब तक यह बात किसी को नहीं बताई है, सिवाय अपनी मां के। वह इसे लेकर बहुत चिंता में पड़ गई हैं। मैं नहीं चाहती कि देवी मेरे जीवन से चली जाएं। मैं उनकी मौजूदगी को महसूस करके बहुत खुश हूं। सद्‌गुरु, क्या आप इसमें मदद कर सकते हैं?

सद्‌गुरु: आपकी मदद करूं या आपकी मां की? भैरवी की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह किसी और को मां के रूप में नहीं देखना चाहेंगी। इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि आपकी मां को चिंता हो रही है। एक तरह से उनका स्थान लिया जा रहा है। अगर आप देवी को लगातार ऐसा करने देंगे, तो वह आपकी मां को अपने स्थान से हटा देंगी। अगर इससे आपको कोई परेशानी नहीं है, तो कोई समस्या नहीं है। ऐसे शक्तिशाली रूप मनोरंजन या आपकी गुजर-बसर की जरूरतों का ध्यान रखने के लिए नहीं बनाए जाते। जो लोग जीविका कमाने या अपने घर-परिवार की देखरेख कर पाने में असमर्थ होते हैं, वे जाकर रोते हैं, ‘देवी, मेरा ख्याल रखिए, मेरे लिए यह कीजिए, वह कीजिए।’ यह देवी ऐसे लोगों के लिए नहीं हैं। उन्हें अयोग्यता पसंद नहीं है। दैवी शक्ति का मकसद यह नहीं है। इतने जोरदार तरीके से धड़कने वाले दैवी रूप को रचने का उद्देश्य यह नहीं है। इसके पीछे का विचार यह है कि देवी आपके भीतर इस तरह धड़कें कि ‘मैं’ और ‘मेरा’ की आपकी सभी धारणाएं मिट जाएं।

वंश के प्रभाव से मुक्ति

अभी आप जिसे ‘मैं’ कहते हैं, उस पर आपके कुल और वंश का बहुत भारी प्रभाव है। जब कोई व्यक्ति आध्यात्मिक मार्ग को गंभीरता से लेता है, किसी हल्की-फुल्की गतिविधि की तरह नहीं, जैसे अगर वह ब्रह्मचर्य या संन्यास लेता है, तो सबसे पहले वह उन क्रिया-कर्मों को करता है, जिन्हें आम तौर पर माता-पिता के मरने के बाद किया जाता है।

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जब आप छोटे होते हैं, तो आपको लगता है कि आप अपने माता-पिता की तरह नहीं हैं। मगर 40-45 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते कम से कम 70 फीसदी लोग ठीक अपने माता-पिता की तरह बर्ताव करना शुरू कर देते हैं क्योंकि उनकी आनुवांशिकी उनके सृजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
यह सब मां-बाप के जीवित रहते किया जाता है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम उनके मरने की कामना कर रहे हैं। बस इतना है कि वे एक प्रक्रिया के जरिये अपने वंश से प्राप्त होने वाली याददाश्त से मुक्त होना चाहते हैं। वंशानुगत याददाश्त बड़े पैमाने पर आपको आकार देती है। अभी आपको यह बात समझ में नहीं आएगी, क्योंकि जब आप युवा होते हैं, तो आपको लगता है कि आप अपने माता-पिता की तरह नहीं हैं। मगर 40-45 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते कम से कम 70 फीसदी लोग ठीक अपने माता-पिता की तरह बर्ताव करना शुरू कर देते हैं क्योंकि उनकी आनुवांशिकी उनके सृजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जब वे छोटे होते हैं तो उन्हें लगता है कि वे अपने माता-पिता की तरह नहीं हैं क्योंकि उन्होंने अपने माता-पिता को उनकी किशोरावस्था में नहीं देखा होता ! 

आनुवांशिक याद्दाश्त को खत्म करना या उससे मुक्त होना इंसान की आध्यात्मिक प्रक्रिया का बहुत महत्वपूर्ण  हिस्सा है। अगर आपके वंश की याददाश्त आपके अंदर बहुत मजबूत है, तो वह आपको मुक्त नहीं होने देगी। वह अंदर से आपको पकड़ कर रखती है। माता-पिता की मृत्यु के बाद भी वह याददाश्त आपको पकड़ कर रखेगी। इसे कई अलग-अलग तरीकों से बहुत कड़े शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है। जैसे ईसामसीह ने कहा – मरे हुओं को मरे हुओं के लिए छोड़ दो। उन्हें अपने अंदर मत जीने दो

स्वयंभू – खुद से उत्पन्न

यह संयोग नहीं है कि हम हमेशा शिव को स्वयंभू कहते हैं। स्वयंभू का मतलब होता है – खुद से पैदा हुआ, वह खुद से पैदा हुए हैं। हम भैरवी को भी स्वयंभू कहते हैं, क्योंकि भैरवी भी खुद से पैदा हुई हैं।

अगर आप सिर्फ अतीत का एक दोहराव हैं, तो यहां आपके अस्तित्व का वास्तव में कोई मकसद नहीं है। इससे अच्छा है कि हम इतिहास की कोई किताब पढ़ लें। अगर यह पीढ़ी पिछली पीढ़ी से म‍हत्वपूर्ण तरीके से अलग नहीं है, तो इसकी कोई अ‍हमियत नहीं है।
वह ऐसे लोगों को मित्र नहीं बनातीं, जो गुलाम हैं। वह चाहती हैं कि उनसे जुड़े लोग भी आत्मनिर्भर हों। इसलिए सबसे पहले वह आपकी मां को नष्ट कर देंगी – उस स्त्री को नहीं जिसने आपको जन्म दिया – मगर उस मां को, जो आपके जरिये जीवित रहने की कोशिश कर रही है। वरना अगली पीढ़ी जैसी कोई चीज नहीं होगी, भविष्य जैसी कोई चीज नहीं होगी। फिर अतीत ही खुद को भ्रामक तरीकों से भविष्य के रूप सामने लाता रहेगा। जब आप अपने वंश के प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं, तभी आपका कोई भविष्य होता है। वरना आप बस उसी अतीत का एक दोहराव भर होते हैं। बस उसका स्वाद थोड़ा नया होता है।

लोगों को अक्सर अपनी विरासत और वंश परंपरा पर गर्व होता है क्योंकि उन्होंने खुद को कुछ नहीं बनाया होता। जब अमेरिका एक देश बना, तो सबसे महत्वपूर्ण यह था कि कोई आपसे आपके पिता के बारे में नहीं पूछता था। लोगों को बस आपसे मतलब होता था। अब स्थिति बदल रही है। बाकी हर जगह उपनाम महत्वपूर्ण है क्योंकि उससे कुल का पता चलता है। जो लोग अमेरिका आए और उनके पास उपनाम नहीं थे, उन्होंने खुद को ‘बिंगो’ या ‘जांगो’ या और कुछ कहा क्योंकि उन्हें किसी वंश परंपरा के बारे में पता नहीं था। मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि आपका वंश आपके भीतर सक्रिय नहीं है, वह काम करता रहता है। आप उससे पूरी तरह मुक्त तभी हो सकते हैं, जब आप या तो चैतन्य को अपने अंदर हावी होने दें या वंश के प्रभाव से अलग होने के लिए जरूरी साधना करें। वरना आप अतीत का दोहराव भर हैं।

अगर आप सिर्फ अतीत का एक दोहराव हैं, तो यहां आपके अस्तित्व का वास्तव में कोई मकसद नहीं है। इससे अच्छा है कि हम इतिहास की कोई किताब पढ़ लें। अगर यह पीढ़ी पिछली पीढ़ी से म‍हत्वपूर्ण तरीके से अलग नहीं है, तो इसकी कोई अ‍हमियत नहीं है। अलग होने का मतलब यह नहीं है कि अगर आपके माता-पिता इस्तिरी किए हुए कपड़े पहनते थे, तो आप मुड़े-तुड़े कपड़े पहनें। यह अंतर लाने की एक बचकानी कोशिश होगी। अलग होने का मतलब है कि आपने अपने अतीत को एक सोपान की तरह इस्तेमाल किया है, अपने सिर के ताज की तरह नहीं। इसलिए आपकी मां की चिंता अपनी जगह ठीक है। देवी को अपने अंदर रिसने दें।

संपादक की टिप्पणी:

ईशा योग केंद्र में 22 जुलाई के दिन यंत्र समारोह आयोजित किया जाएगा। अधिक जानकारी के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं।

लिंग भैरवी अतीत के प्रभाव से मुक्त करती हैं देवी-3