हर धर्म को एक विश्वास या एक सिद्धांत से जोड़ कर देखा जाता है। लेकिन आज के स्पॉट में सद्‌गुरु बड़े ही साफ शब्दों में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि सनातन धर्म विश्वास करना नहीं खोजना सिखाता है। तो फिर हिन्दू धर्म क्या है?
क्या यह सनातन धर्म का दूसरा नाम है? या फिर यह कुछ अलग है?

सद्‌गुरुआप लोग सनातन धर्म को एक यूनिवर्सिटी के मंच पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। इसका मतलब हुआ कि आप एक विशाल और परम प्रक्रिया को एक सीमित और कहीं छोटे मंच पर रखने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि अब वो समय आ गया है, जब ऐसा करना ही होगा, इसमें कोई दो राय ही नहीं है। लेकिन ऐसा करते समय कुछ बुनियादी सावधानियां बरतने की जरूरत है, ताकि यह किसी धर्म शास्त्र के अध्ययन जैसा बन कर न रह जाए, बल्कि यह लोगों के भीतर ज्ञान की लालसा जगाने का कारण बन कर उभरे।

सनातन धर्म क्या है

सनातन धर्म कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है, जो आपको बताए कि आप इस पर विश्वास कीजिए, वर्ना आप मर जाएंगे। यह इस तरह की संस्कृति नहीं है। यह आपको कुछ ऐसा बताता है, जो आपके मन में सवाल उठाए, ऐसे सवाल जिनके बारे में शायद आपने कभी कल्पना भी नहीं की हो।

मानव बुद्धि या समझ की प्रकृति ही खोजने की है। लोगों के भीतर यह जिज्ञासा इसलिए खत्म होती गई, क्योंकि उन पर विश्वास या मत थोपे गए।
सनातन धर्म की पूरी प्रक्रिया आपके भीतर प्रश्नों को खड़ा करने के लिए ही है। और सबसे बड़ी बात यह आपके सवालों के ‘रेडिमेड जवाब’ नहीं देता, बल्कि यह आपके भीतर इस तरह से सवाल खड़े करने की गहनता लाता है कि आप खुद ब खुद इन सवालों के जवाब का स्रोत तलाश लेते हैं। तो जिज्ञासा का वो आयाम या स्तर लाने के लिए इसमें कुछ महत्वपूर्ण सावधानियां बरतने की जरूरत है, ताकि यह एक दूसरी तरह का आध्यात्मिक अध्ययन भर बन कर न रह जाए।

सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि भारत से बाहर भी बहुत सारे लोगों में कुछ चीजों को स्थापित करने की बेचैनी धीरे-धीरे घर करती जा रही है। दूसरे धर्मों के आगे निकल जाने की भावना पैदा हो रही है। इस कोशिश में वह पूरे शाश्वत व सनातन ज्ञान को महज एक पवित्र किताब या ग्रंथ तक सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं और अपेक्षा कर रहे हैं कि सभी इसका अनुसरण करें। यह कभी हमारा तरीका रहा ही नहीं है। लोग आज यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि हरेक व्यक्ति को गीता का अनुसरण करना चाहिए। जबकि ऐसा नहीं है। अर्जुन ने खुद गीता के उपदेश के दौरान लाखों सवाल किए। अगर आप बस सीधे-सीधे गीता का अनुसरण करेंगे, तो गीता के उपदेश का बुनियादी मकसद ही खो जाएगा।

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हमारा बुनियादी मकसद अपने तरीकों को दूसरों पर थोपने की बजाय दुनिया में हरेक इंसान के भीतर खोजने का भाव लाने का होना चाहिए। वैसे भी कोई ‘हमारा तरीका’ नहीं है। हमें किसी खास तरीके या रास्ते की जरूरत ही नहीं है। हमने यह खोजा है और पाया है कि अगर अपने जीवन को इस तरह से संचालित करें तो हमेशा एक बेहतर परिणाम मिलेगा - व्यक्ति के लिए भी और एक बड़े स्तर पर समाज के लिए भी। लेकिन फिर भी हम यह नहीं कह रहे हैं कि ‘बस यही तरीका’ है। इस पर रोज सवाल उठाए जा सकते हैं - लाखों सवाल पूछे जा सकते हैं। अगर आप सवालों से डरते हैं तो इसका मतलब है कि आपका तरीका, आपका विश्वास एक बेहद कच्ची जमीन पर खड़ा है, जो मेरे दो-चार सवाल पूछते ही भरभरा कर गिर पड़ेगा। अगर आप सच्चाई पर खड़े हैं तो मैं आपसे लाखों सवाल भी पूछ लूं तो दिक्क्त क्या है? सवालों से दिक्कत तभी है, जब आप झूठ पर खड़े होते हैं। कभी कोई सवाल गलत नहीं होता, हां जवाब गलत हो सकते हैं।

तो सनातन धर्म का मकसद लोगों में जिज्ञासा की गहन भावना को जगाना होना चाहिए - अपने विचार थोपने का नहीं, क्योंकि यह तरीका काम भी नहीं करेगा। अगर कोई भयानक युद्ध या कोई ऐसी भयानक दुर्घटना ना हो जाए जो इस धरती पर मानव-जीवन की नींव ही हिला दे, तो आप देखेंगे अगले पचास सालों में ‘योग’ किसी भी धर्म से ज्यादा प्रभावशाली होगा। जब हम ‘योग’ की बात करते हैं तो हमारा मतलब उन अभ्यासों से है, जिनकी ओर सनातन धर्म के सिद्धांत इशारा करते हैं।

मानवता के इतिहास में पहली बार मावन-बुद्धि इतनी विकसित और पुष्पित-पल्लवित हो रही है। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। सदियों से ऐसा होता आया है कि पूरे गांव में एकाध इंसान ऐसा होता था, जो सबकी तरफ से सोचता था। अब वो समय चला गया।

आप देखेंगे कि आने वाले पचास सालों में सिर्फ वही सिद्धांत, वही तरीका काम करेगा, जिसके पीछे कोई सार्थक कारण हो और जो ऐसा व्यावहारिक समाधान पेश कर सके जिसे आप अपनी जिंदगी में लागू कर सकते हों।
जल्द ही हर आदमी अपने बारे में अपने तरीके से सोचेगा। और फिर दुनिया की हर चीज, हर आदमी की पहुंच में होगी। और जब यह होगा तब यह नीति काम नहीं करेगी कि - अगर मेरे अनुसार नहीं चले तो आप गए काम से

जो सिद्धांत आपकी समस्याओं का समाधान स्वर्ग में दिलाने की बात करेंगे, वो काम नहीं करेंगे। दर्शन की ऐसी तमाम व्याख्याएं, जो तर्कों की कसौटी पर नहीं टिकेंगी, उनके कोई मायने नहीं होंगे। लोगों को हर समस्या का व्यावहारिक समाधान चाहिए। आप देखेंगे कि आने वाले पचास सालों में सिर्फ वही सिद्धांत, वही तरीका काम करेगा, जिसके पीछे कोई सार्थक कारण हो और जो ऐसा व्यावहारिक समाधान पेश कर सके जिसे आप अपनी जिंदगी में लागू कर सकते हों। दूसरी तरफ ऐसे समाधान जिसे अमल में न लाया जा सके, जिसे आपने देखा ही न हो, धीरे-धीरे मानव-जाति के लिए कम महत्वपूर्ण होते जाएंगे। यह तो केवल तभी संभव था जब इंसान की पहुंच अपने आसपास की घटनाओं तक या तो स्वाभाविक तौर पर अथवा जानबूझ कर, बेहद सीमित थी।

सनातन धर्म को आगे लाने का यह सबसे उपयुक्त समय है। साथ ही यह ध्यान में रखना भी बेहद महत्वपूर्ण है कि इसे हिन्दू धर्म के तौर पर प्रचारित न किया जाए, क्योंकि यह हिंदू धर्म है ही नहीं। हिंदुत्व का विचार ही अपने आप में एक विदेशी अवधारणा है, जो इस देश में कभी मौजूद ही नहीं थी। हिंदू शब्द इसकी भौगोलिक पहचान के चलते सामने आया। जो भूमि हिमालय और हिंद महासागर के बीच में पड़ती थी, उसे हिन्दू कहा गया। मेरी इस बात की वजह से भारत में काफी विवाद खड़ा हो रहा है, खासकर भारत का राष्ट्रीय मीडिया इसे काफी उठा रहा है, कि मैं कहता हूं कि भारत में पैदा हुआ एक केंचुआ भी हिन्दू केंचुआ है। इस पर वे चैंकते हुए अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। मैं कहता हूं, अगर आप अफ्रीका में पैदा हुए एक हाथी को अफ्रीकन हाथी कह सकते हैं तो फिर हिंदुस्तान में पैदा हुए एक केंचुए को एक हिन्दू केंचुआ कहने में समस्या क्या है? इसी तरह से यहां पैदा हुआ एक टिड्डा भी हिंदू है और इसी आधार पर आप भी हिंदू माने जाएंगे। इसी तरह जो इस धरती पर पैदा हुए वे हिन्दू कहलाये।

हमने अपनी पहचान इस धरती के भौगौलिक गुणों के साथ जोड़ ली। हमें अपनी समझ व बुद्धि से खोज करने और अपनी आध्यात्मिक प्रक्रिया खुद तैयार करने की आजादी छह से आठ हजार सालों तक मिली। यहां बिना किसी दूसरों के हस्तक्षेप या बिना दूसरों के आक्रमण के हम अपना संगीत, अपना गणित, अपना खगोल शास्त्र चरम ऊंचाइयों तक ले जा सके। ऐसा इसलिए संभव था, क्योंकि हिमालय और हिन्द महासागर हमारी रक्षा व बचाव करते थे। हम लोग अपनी इन दोनों भौगोलिक पहचानों के प्रति गहन सम्मान की वजह से खुद को हिंदू कहने लगे, क्योंकि इन दोनों के बिना हम हजारों सालों से चली आ रही अपनी संस्कृति को बचाए नहीं रख सकते थे।

जब कुछ लोग बाहर से यहां आएं तो वे सिर्फ इतना ही समझ पाए कि व्यक्ति या तो इस समूह से संबंधित हो सकता है या उस समूह से। ऐसे ही लोगों ने इस संस्कृति को हिंदुत्व का नाम दिया। उससे पहले तक यहां हिंदुत्व जैसी कोई चीज नहीं थी। इसलिए अब वो समय आ गया है कि हम खोजने के भाव को वापस लाएं। इसका किसी विश्वास या मत से संबंध नहीं है। यह ‘मेरा धर्म बनाम आपका धर्म’ का मामला नहीं है। यह इससे जुड़ा है कि हम अपने आसपास की हर चीज पर पूरे सम्मान के साथ गौर करें और महसूस करें कि हम क्या सर्वश्रेष्ठ कर सकते हैं। यही सनातन धर्म की प्रकृति है। यही वजह है कि यह सनातन और शाश्वत है। अगर आप अपने विश्वास या मत मुझ पर थोपेंगे तो यह कितनी देर तक काम करेगा। सनातम धर्म अगर शाश्वत है तो वह सिर्फ इसलिए, क्योंकि इसमें जो कुछ भी बताया गया है, वह इंसान के समझ या बुद्धि के अनुकूल है। यही वजह है कि यह हमेशा रह सकता है।

सनातन धर्म उस परम कल्याण की बात करता है, जो कि एकमात्र कल्याण है जिसकी पूरी दुनिया आकांक्षा कर सकती है। अगर हम वाकई चाहते हैं कि पूरी दुनिया सनातन धर्म का अभ्यास करे, तो यह बेहद महत्वपूर्ण है कि इसकी पहचान किसी भी रूप में स्थापित नहीं होनी चाहिए। मानव बुद्धि या समझ की प्रकृति ही खोजने की है। लोगों के भीतर यह जिज्ञासा इसलिए खत्म होती गई, क्योंकि उन पर विश्वास या मत थोपे गए। उन्हें बताया गया ‘जो कुछ है, यही है’ और अगर आप इस पर विश्वास नहीं करेंगे तो आप जिंदा ही नहीं रह सकते। डर, अपराधबोध और पसंद का इस्तेमाल करके मानव बुद्धि की प्राकृतिक जिज्ञासा को जबरदस्त तरीके से खत्म कर दिया गया। मानवता के परम कल्याण के लिए यह बेहद जरूरी है कि हरेक व्यक्ति के जीवन में जिज्ञासा का एक गहन भाव लाया जाए। यही सनातन धर्म का असली लक्ष्य है।

Love & Grace