नजारा कैलाश का, सद्गुरु की नजर से
इस हफते के अपने स्पॉट में सद्गुरु कैलाश की अपनी उस हालिया यात्रा के बारे में विस्तार से बता रहे ह, जिसमें वह साहसी और दिलेर जिज्ञासुओं के एक छोटे से जत्थे के साथ उबड खाबड रास्तों से होते हुए कैलाश के दक्षिणी भाग में पहुंचे। कहीं घुटने चटकाने वाली खडी चढाई तो कहीं बर्फ से ढंका कैलाश...
घातक सुगंध
शिव की महक ने
कर दिया है खडा मुझे
जोखिम भरे उस पथ पर
जिसका न आदि है न अंत
जो है साश्वत, चिर अनंत।
भर कर बस एक सांस भर
हो गया संतुष्ट मैं
जो है साश्वत, अनंत
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जानलेवा है वो अपने आप में
-’कैलाश‘ नाम जर्नल से
इस हफते के अपने स्पॉट में सद्गुरु कैलाश की अपनी उस हालिया यात्रा के बारे में विस्तार से बता रहे ह, जिसमें वह साहसी और दिलेर जिज्ञासुओं के एक छोटे से जत्थे के साथ उबड खाबड रास्तों से होते हुए कैलाश के दक्षिणी भाग में पहुंचे। कहीं घुटने चटकाने वाली खडी चढाई तो कहीं बर्फ से ढंका कैलाश...
१२ अगस्त २०१३
अनाम घाटी
दस किलोमीटर चलने के बाद हमने तय किया कि हम एक अनाम घाटी म विश्राम करेंगे, जहां तक पहुंचने के रास्ते, सीधे खडे व अदृश्य से नजर आते थे। यहां के लोग इस कदर जमीन से जुडे हैं मानो केंचुए। उन्होंने अपनी जरुरत के हिसाब से सृष्टि को मोडने का रास्ता खोज लिया है। मानो जादू से सांसारिकता तलाश रहे हों। मेरे लिए तो यह शिव की सुगंध है और हो भी क्यों न? यह जंगल भांग, गांजा के पौधों से जो भरा पडा है। अगर मैं पहले से ही शिव के नशे में डूबा न होता तो कह सकता था कि यह जगह मादकता में डूब जाने के लायक है।
यहां हमने तेज रफतार से हुंकार भरती नदी के किनारे अपना टैंट लगाया। ऐसा लग रहा था कि सामने खडा हजारों आंखो वाला पहाड अपने विचारों में खोया हुआ उस नदी की अनदेखी कर रहा हो। चमगादडों का एक झुंड अपने रात्रि भ्रमण के लिए उडान भर चुका है। यह इंसानी खून चूसने वाले पिशाच नहीं हैं। लेकिन उनकी खामोश उडान और अंधी आंखें उनके किसी और दुनिया के प्राणी होने का अहसास कराती हैं। है न आश्चर्य की बात कि ये हमारे जैसे ही स्तनधारी जीव हैं। हमारे नजदीकी संबंधी। क्या हम भी इन चमगादडों जैसे अंधे नहीं हैं?
टुमकोट तक के १४.५ किलोमीटर के रास्ते में कुछ बेहद शानदार, पुराने और खूबसूरत इलाके पडे। इसमें तकरीबन डेढ घंटे का सफर कुछ ऐसा था, जिसने हमारी घुटने की हड्डियां चटका कर रख दीं और हमारा दम फुला दिया। इस तकलीफदेह हिस्से के बावजूद हमने यह दूरी रिकॉर्ड समय में पूरी की। दिन में सत्संग और भूतशुद्धि क्रिया की दीक्षा लेने के बाद जैसे सभी लोग चार्ज हो गए थे और उर्जावान लग रहे थे। इन गहरी घाटियों में चलना और पहाडयों को पार करना एक सपने जैसा लग रहा था। पिछले १५ सालो में यह पहली बार हुआ था कि मैंने तीन रातें खुले में बिताई हों। यह अपने आप में असाधारण और स्फूर्तिदायक अनुभव था।
इस थकाउ और मुश्किल सफर के बाद हमने टुमकुट में एक दिन का कैंप किया। हमारी चटकती हड्डियों और दुखते पैरों के लिए यह एक दिन का ब्रेक जरूरी भी था। हालांकि इसके बावजूद प्रतिभागियों का उत्साह कम होने का नाम नहीं ले रहा था। इस थकान के बावजूद इनमें से एक को छोडकर बाकी सभी लोग ने सत्संग करते हुए पूरा दिन निकाला। दरअसल, एक महिला की तबियत थोडी गडबडा गई, उसे हवाई रास्ते से इस घाटी से काठमांडु ले जाना पडा। एक दिन अस्पताल में रहने के बाद वह वापस आ गई और अब वह पूरी तरह से ठीक है।
टुमकुट से आगे का रास्ता, जो इस सफर का आखिरी हिस्सा था, हमारे लिए अब तक की सबसे मुश्किल चढाई थी। इस खडी चट्टानी चढाई ने हमारे पैरों और फेफडों के साथ-साथ हमारी मानसिक दृढता का भी इम्तहान ले डाला। अंत में जब हम सिपसिप में पहुंचे तो छह दिन के पहाडी संघर्षों से जूझने के बाद मोटरगाडयों के दर्शन हुए। उन्हें देखकर षरीर का रोंया-रोंया मानो उत्साह से झूम उठा। नरोला दर्रे से गाडियों का सफर अपने आप में खतरनाक और हैरान करने वाला था। सफर के साथ आगे का नजारा तेजी से बदलता गया- लबालब भरे जलाशयों वाली हरी-भरी घाटी से सूखे, धूल भरे और आसमान से बातें करते पथरीले व कठोर पर्वत। यह हमारा तिब्बत के पठार में स्वागत था, सही मायने में यह एक अद्वितीय प्राकृतिक छटा थी।
मानसरोवर का जादू फीका पडने का नाम ही नहीं लेता। इससे कोई फर्क नहीं पडता कि आप यहां कितनी बार आ चुके हैं, यह हर बार आपको मंत्रमुग्ध कर देता है। इस दिव्य झील के किनारे दो रातों को सत्संग का सिलसिला चला जिसमें नियमित मार्ग से पहुंचने वाले जत्थे भी शामिल हुए। यहां पहुंचने वाले श्रद्धालुओं का जोश और भक्ति अद्रभुत थी।
इस बार हमने कैलाश पर्वत के दक्षिणी भाग की तलहटी में कैंप करना तय किया। यह जगह अष्टपदी के नाम से जानी जाती है। यह दैवी-शक्तियों का गढ माना जाता है। मैं यहां पहले भी कई बार आया हूं, लेकिन यहां कभी मेरा रात में रुकना नहीं हुआ। यहां तक का रास्ता बेहद खतरनाक माना जाता था, इस पर वाहनों का आना जाना भी मना था। अष्टपदी तक का हमारा पैदल सफर अनुभवों के लिहाज से अद्रभुत था। ५२०० मीटर की उंचाई पर कैंप के लिए जगह को समतल बनाने की कवायद के दौरान मौसम हमारे इरादों का लगातार इम्तहान लेता रहा। हममें से सिर्फ बारह लोग ही यहां ठहर सके, क्योंकि शाम साढे छह बजे से यहां भारी बर्फबारी शुरू हो गई। ऐसे मौसम में कैलाश पर घने बादलों और धुंध के घूंघट को करुणा की बयार ने आकर उठा दिया और हमें उसके भव्य रूप का दर्शन और अनुकंपा का अहसास कराया। यहां हुए अनुभवों के सागर में रास्ते की सारी पीडाएं व मुश्किलें बह गईं और मौसम व तापमान की सारी अनिश्चितताएं कही उडन छू हो गईं। अब जो भी था, वह सिर्फ कैलाश था। बस कैलाश । इस जबरदस्त जगह की जादुई शक्ति का वर्णन नहीं हो सकता है।
अष्टपदी की वो रात बडी अद्भुद और तमाम घटनाओं भरी रही। मैंने कई रातें पहाडों के आगोश व जंगलों में बिताई हं। वहां भूखा, अकेला रहना और ठंड का लगना कोई नई बात नहीं है, बचपन से ऐसे तमाम अनुभव मेरे जीवन का हिस्सा रहे हैं। हालांकि वो दिन और रात हमेशा काफी शक्तिशाली रहे हैं, लेकिन उनमें कभी तकलीफ, डर व अकेलापन नहीं लगा। वे खुशकिस्मत भरे दिन और रातें थीं, जब बिना किसी आमंत्रण और अनुमति के शिव ने मुझ पर अपना अधिकार कर लिया था। लेकिन अष्टपदी की यह रात कई मायनों में अभूतपूर्व थी। पहला, कैलाश से इतनी निकटता। दूसरा, हर मौसम को झेल पाने वाले टेंट के भीतर सुरक्षा का अहसास। तीसरा, आठ इंच की बर्फबारी का हमारे टैंट को इग्लू में बदल देना। इससे पहले कभी पूरी रात बर्फबारी में खुले में नहीं बिताई। अगले दिन सुबह सात बजे तक बर्फ गिरती रही। एक घंटे के लिए यह रुकी, जिसमें हमने अपने टैंटों और सामान को समेटा और दृढ संकल्प के साथ हम सरलंग बौद्ध मठ की ओर चल दिए, जहां हमारी बाकी टीम हमारा इंतजार कर रही थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी ने कैलाश रूपी शिव पर जबरदस्त सफेद पर्दा डाल दिया हो, ताकि कोई भी बुरी नजर उस तक न पहुंच सके। लेकिन हे सृष्टि, उसे किसी भी बचाव या सुरक्षा की जरूरत नहीं है। उसके लिए पवित्र या अपवित्र जैसी कोई चीज मायने नहीं रखती, उसकी निगाह में न कोई पापी है और न कोई पुण्यात्मा। वह अगर साधु और ओझाओं को एक नजर से देखता है तो देवता व षैतान भी उसकी निगाह में एक जैसे हैं। उसकी तीसरी आंख हर दोश और विचार से खाली है, उसके आगे सब बराबर हैं।
अष्टपदी से उतरने के बाद रात में मानसवरोवर रुक गए। रात में यहां पहुंचने वाले आखिरी जत्थे के साथ एक छोटा सा सत्संग हुआ। अगले दिन हमें शिकास्ते की एक हजार किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। इसलिए सुबह हम जल्दी निकले, ताकि हमें रास्ते में सागा के शैंटी कस्बे में रात न बितानी पडे। सागा वह जगह है, जहां तिब्बत की तीन खास सडकें मिलती हैं। इसके अलावा, यहां मिलिट्री का एक बडा अड्डा भी है। इसलिए न सिर्फ इसकी महत्ता लगातार बढ रही है, बल्कि यहां चिल्लपों भी बढ रही है। यहां का द ग्रेट सागा होटल जन्मदिन के रंगबिरंगे प्रतीक के साथ अभी भी मेरा जन्मदिन मना रहा है। दरअसल, यह प्रतीक पांच साल पहले यहां लगा था, जो अभी तक हटाया नहीं गया था।सागा में थोडा ठहरने के बाद हम शिकास्ते के लिए आगे चल दिए। तकरीबन ७०० किलोमीटर का सफर तय करने के बाद मेरी लैंडक्रूजर गांडी ने अजीबोगरीब सी आवाज निकालनी शुरू कर दी। उसकी आवाज से लग रहा था कि कहीं कोई चीज रगड खा रही है। रुकने और जांच पडताल करने के बाद पता चला कि उसके स्टियरिंग के बियरिंग में गडबडी आ गई है। उस कडे स्टिरिंग से जूझते हुए हम १४ घंटों से थोडे ज्यादा के सफर के बाद रात दस बजे शिकास्ते पहुंचे। दिनभर हमने जिस रास्ते पर सफर किया, वह किसी को भी निशब्द और हैरान कर देने के लिए काफी था।
तिब्बत के सबसे बडे बौद्ध मठों में से एक मठ शिकास्ते में है। इस मठ पर ग्यारवें पंचेन लामा का अधिकार है, जो अब बीजिंग में रहते हैं। साढे छह सौ साल पुराना यह मठ एक बेहद आकर्शक जगह है जो कम से कम एक दिन बिताने की मांग तो करता ही है। इसका वास्तुशिल्प और कला देशी है, बनावट में एक समरूपता है जो सौंदर्यशास्त्र के नियमों के परे एक विशेष आकर्षण पैदा करता है।
ल्हासा आज पूरी तरह से बदल चुका है। चीनी वास्तुविदों और प्रशासन ने चंद ही सालों में छोटे से कस्बे ल्हासा को एक खूबसूरत और हलचल भरा शहर बनाने का जबरदस्त काम किया है। इन लोगों ने तिब्बत के पारंपरिक वास्तुशिल्प का आधुनिक कांच व लोहे के साथ इस्तेमाल करके एक खूबसूरत संगम पेश किया है। आज ल्हासा के अंदर व आसपास जो बुनियादी ढांचा है, वह उत्तरी अमेरिका व यूरोप के किसी भी शहर से अपनी बराबरी करता नजर आता है। इस काम के लिए मैं चीनी योजनाकारों और इंजीनियरों को पूरे नंबर देना चाहूंगा।
इस समूह में भले ही अलग-अलग तरह के लोग आए हों, लेकिन आज वे सब घुलमिलकर एक हो चुके हैं। होटल ब्रम्हपुत्र में आयोजित इस सफर का वो आखिरी डिनर आनंद से भरे गुजरे तीन हफतों समापन था। इसे मैं क्या नाम दूं - एक रोमांचक यात्रा? भ्रमण? लंबी पैदल यात्रा? या तीर्थयात्रा ? बेशक यह सब कुछ और शायद कुछ और भी जिसे शब्द नहीं दिया जा सकता। इस पावन यात्रा में भाग लेने वाले सभी लोगों के लिए ये उंचे पर्वत, पहाडयां, यहां की दैवीयता और इन तमाम जगहों का जादू इन्हें आपस में बांधने वाले कोमल धागे बन गए।