सद्गुरु की कविता - बस खेल रहा हूँ
इस बार के स्पॉट में सद्गुरु एक कविता के माध्यम से बता रहे हैं कि कैसे वे सभी से सहमत भी हैं, और साथ ही सभी विषयों के सभी पहलूओं पर बहस करने को भी तैयार हैं। पढ़ते हैं ये कविता...

ये तो है बस एक
है मेरे मन के
कुछ निजी कोने ऐसे
जहां मैं सहमत हूं
सभी अलग-अलग तरह के लोगों से।
पर हैं मेरे मन के अंदर
कुछ सार्वजनिक कोने भी
जहां कर सकता हूँ
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मैं बहस हर किसी से
हर बारे में।
नहीं है ये मेरे अन्दर कोई विरोधाभास
है बात बस इतनी कि
अपने अन्दर की गहराई में
कभी भी किसी भी तरह का
पक्ष नहीं लिया मैंने।
हालांकि अगर लेता हूँ कोई
काम मैं अपने हाथों में
तो खड़ा होता हूं पूरी दृढ़ता से
उसे पूरा करने के लिए।
ऐसा मत सोचना आप कि
कर रहा हूँ मैं स्वीकार,
कुछ बातें अपने बारे में।
मैं तो बस खेल रहा हूँ एक खेल
क्योंकि मेरी गहराई में
मैं और तुम जैसा कुछ है ही नहीं।
ये तो है बस एक खेल…


