धधकता अंगारा बनिए
क्या हो हमारी जिंदगी का मकसद – इसको ले कर आज के नौजवान अकसर दुविधा में दिखते हैं। हम कभी ये तो कभी वो बनना चाहते हैं – आखिर क्या बनें – जानते हैं सद्गुरु से इस बार के स्पॉट में...
मुझे कभी भी अध्यात्म में दिलचस्पी नहीं रही और अब तो यह बात सब जानते हैं। यही नहीं मेरी किसी भी चीज में खास दिलचस्पी नहीं थी। मैं न तो किसी खास पेशे में दिलचस्पी रखता था, न किसी कारोबार में। न किसी इंसान से नाता जोड़ना चाहता था और न ही किसी चीज से। बस मेरे भीतर एक दिशाहीन आग धधकती रहती थी। अपने आस-पास की दुनिया से दिल में थोड़ी नाराजगी थी। आप इस दुनिया में हर कहीं जो अन्याय–ही – अन्याय देखते हैं, शायद उसी ने मुझे ऐसा बना दिया था। मेरे अंदर की थोड़ी-सी आग गुस्से में बदल गई थी, – यह आग आज भी मेरे अंदर धधकती है। यह मेरी जिंदगी के हर पहलू में समा गई है। लोग जिस तरह पेश आते हैं, वे अपनी जिंदगी की प्रक्रियाओं को जैसे अंजाम देते हैं – उनकी बेवकूफी और बेतुकेपन को देखकर मेरे अंदर की एक फीसदी आग गुस्से में बदल गई थी। भीतर आग जल रही थी – लेकिन किसी खास बात के लिए नहीं। अंदर गुस्से का उबाल था – लेकिन किसी खास बात को ले कर नहीं। मेरे भीतर ऐसा कुछ था जो लगातार मुझे बता रहा था कि मुझे अपनी ऊर्जा को गुस्से में नहीं झोंकना चाहिए। पर उस वक्त गुस्से का अहसास मुझे अच्छा लगता था। गुस्सा ही था जो मुझे एक मकसद देता था; वरना किसी भी चीज को ले कर मेरा कोई मकसद नहीं था। मेरे अंदर तेज आग धधक रही थी, हर चीज के लिए। गुस्से ने मुझे एक मकसद दिया, मुझमे किसी बात को लेकर नाराजगी तो थी, तीव्रता भी बहुत थी, लेकिन उसकी कोई दिशा नहीं थी, कोई मकसद नहीं था।
शिव उनको चाहते हैं जिनका किसी खास चीज की तरफ रुझान नहीं होता, जो बस अपने भीतर आग लिए होते हैं। जो सिर्फ जिंदगी होते हैं। जिंदगी का मतलब आपका खाना, कपड़ा, परिवार, समाज, और वह सब नहीं होता जो आप करते हैं या नहीं करते। जिंदगी का मतलब सिर्फ यह होता है (अपनी ओर इशारा करते हैं), यह जिंदगी है। जिंदगी खुद ही मकसद होती है; उसको किसी और मकसद की जरूरत नहीं। यह खुद एक जबरदस्त चीज है। यह इतनी विशाल है कि इसको किसी मकसद की जरूरत नहीं। यह खुद एक मकसद है, खुद एक मंजिल है। उसको किसी और दिशा की जरूरत नहीं। दुनिया के बड़े-बड़े देशों के तमाम लोग यह सवाल पूछ रहे हैं, ‘सद्गुरु, मेरी जिंदगी का मकसद क्या है?’ (हंसते हैं) उनको भगवान का दिया मकसद चाहिए या शायद वे चाहते हैं कि वे उनके चहेते बन जाएं।
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जैसे ही आप खुद को चहेता मान लेंगे आप तमाम बेवकूफी-भरे काम करने लगेंगे क्योंकि जब आप खुद को चहेता कहेंगे तो आप खुद को खास समझने लगेंगे। जब आप खास हो जाएंगे तो जिंदगी भी आपके साथ खास तरह से पेश आएगी। लेकिन जरूरत है तो बस एक जिंदगी बने रहने की, सिर्फ एक आम जिंदगी, बस एक चींटी, टिड्डा, हाथी, पेड़, पहाड़, या चट्टान जैसा या ऐसा ही कुछ। सिर्फ आम जिंदगी, कोई खास नहीं, आम साधारण-सी जिंदगी। इतनी साधारण कि वह असाधारण हो जाए। ‘मैं खास बनना चाहता हूं’ यह खयाल एक बीमारी है। एक बार यह आपको पकड़ लेगी तो खुद को खास साबित करने के लिए आप तमाम बेवकूफियां करते जाएंगे और खुद पर उन चीजों को लादने लगेंगे, जो किसी भी इंसान के लिए गैर-जरूरी हैं।
जीवन का स्रोत जानने के लिए, दिव्य को जानने के लिए, आपको बस जिंदगी होना होगा, सिर्फ जिंदगी, इसके सिवाय कुछ नहीं। लेकिन अभी फिलहाल आप मर्द हैं, औरत हैं, मन हैं, विचार हैं, सोच हैं, दर्शन हैं, विश्वास हैं; हो सकता है आप महज एक नारा हों। लोगों ने खुद को छोटा कर लिया है। ये सब जिंदगी से उपजी चीजें हैं, पर आप तो यहां एक जिंदगी बन कर आए थे और जिंदगी के रूप में ही यहां से जाएंगे। इस दौरान यह आप पर है कि आप क्या-क्या बनने की बड़ी-बड़ी गलतियां करना चाहते हैं। क्योंकि आप जिंदगी के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकते।
आप कल्पना कर सकते हैं कि आप एक राजा हैं; हो सकता है आपके इर्द-गिर्द के हजार लोग भी आपको महाराज कह कर पुकारें। लेकिन यह सब एक खेल है। असलियत यह है कि आप जिंदगी का महज एक कतरा हैं। या तो आप पूरी तरह खिल चुके हैं या फिर आप अभी वो बीज हैं जो अंकुरित भी नहीं हो सका है, जिसका अभी कुछ नहीं हुआ है। जब आपके साथ कुछ नहीं होता तो आप समझते हैं कि आप सुरक्षित हैं। या तो आप खुद को जेल में बंद कर लें – जेल बड़ी सुरक्षित जगह होती है – या फिर ताबूत में, जो उससे भी अच्छी जगह है। पूरी तरह सुरक्षित। उसमें आपको कभी कुछ नहीं होगा। उसको हम दीमक-रोधी भी बना सकते हैं।
अगर आप जिंदगी का एक कतरा भर बन जाते हैं तो जीवन के स्रोत को आपके पास आना ही होगा, वह आपसे नजर नहीं चुरा सकता। अगर आप जिंदगी का दहकता हुआ अंगारा हैं तो शिव आपसे कभी किनारा नहीं कर सकते। लेकिन आप कुछ और, कुछ और, फिर कुछ और बन जाते हैं......ऐसी चीजें जो आप कभी हो ही नहीं सकते, ऐसी चीजें जो आप मौत के वक्त ही महसूस कर पाते हैं कि आप वो नहीं हैं।
जन्मदिन और मरने के दिन में एक संबंध होता है। अगर एक होगा तो दूसरा को भी होना ही है। हम सब नश्वर हैं और इसलिए हम सबकी जिंदगी बहुत अनमोल है। ईश्वर करे आप लंबी और भरपूर जिंदगी जिएं।
*3 सितंबर 2013 को सद्गुरु के जन्मदिन के अवसर पर हुए सत्संग से उद्धृत।