सद्‌गुरुनदियों में सिर्फ पानी नहीं बहता है, उनमें हमारा जीवन बहता है – इसी बात की चर्चा करते हुए आज के स्पॉट में सद्‌गुरु बता रहे हैं कि आखिर हम क्या कर सकते हैं इन जीवन-वाहिनी नदियों को बचाने के लिए


अगर आप मुझसे पूछें कि मेरे लिए नदियों के क्या मायने हैं – तो मेरे लिए वे भारतीय सभ्यता का मूल हैं। सिन्धु, सतलुज और प्राचीन सरस्वती नदी के किनारे ही ये सभ्यता विकसित हुई। और दक्षिण में ये सभ्यता, कृष्णा, कावेरी, और गोदावरी के आस पास विकसित  हुई। इन नदियों ने और इस भूमि ने सदियों से हमारा पालन-पोषण किया है। लेकिन पिछली दो पीढ़ियों से हम इसे रेगिस्तान में तब्दील कर रहे हैं। अगर आप भारत के ऊपर से हवाई यात्रा करते हैं, तो आपको कम हरियाली दिखाई देगी, ज्यादातर सूखी जमीन ही दिखेगी। पिछले कुछ दशकों में हमारी नदियों के जल-स्तर में तेजी से गिरावट आई है। सिन्धु और गंगा की गिनती धरती की उन दस नदियों में हो रही है जो सबसे ज्यादा खतरे में हैं। मेरे बचपन के दिनों में कावेरी जैसी थी, वह भी अब सिर्फ चालीस फीसदी ही बची है। उज्जैन में पिछले कुम्भ मेले के लिए उन्हें नर्मदा नदी से पानी को पम्प करके एक कृत्रिम नदी बनानी पड़ी – क्योंकि क्षिप्रा नदी में पानी ही नहीं था। नदियां और झरने सूख गए हैं। पिछले कुछ सालों में भूमिगत जल का स्तर जबरदस्त तेज़ी से नीचे गिरा है। कई जगहों में पीने के पानी की कमी हो गयी है।

दो तरह की नदियाँ - बर्फिली और जंगली

हमारे देश में मूल रूप से दो तरह की नदियाँ हैं – बर्फिली नदियाँ और जँगली नदियाँ। बर्फिली नदियों में पानी पहाड़ पर जमे बर्फ के पिघलने से आता है, जो पूरी तरह हमारे काबू में नहीं है, क्योंकि तापमान का बढ़ना एक ग्लोबल घटना है। भारतीय हिमालय में जो पर्वत शिखर पूरे साल बर्फ से ढंके रहते थे, अब वहाँ बस चट्टानें दिखतीं हैं। भागीरथी और गंगा के जल का स्रोत गोमुख हिमनदी, पिछले तीन दशकों में करीब एक किलोमीटर पीछे की ओर चली गई है। हिमनदी का पिघलना और बर्फ की कमी हिमालय में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के जलाशयों में पानी की कमी होती जा रही है। हमें इसी समय जरुरी कदम उठाने होंगे, ताकि उस त्रासदी को रोका जा सके, जो हमारी कल्पनाओं से भी परे है।

नदियों को बचाने के तरीके

नदियों को लेकर लोगों के कई तरह के अप्रोच या उपाय हैं। एक तो यह है - जो कई राज्यों ने अपनाया है, कि रोधक बाँध बनाना – बहुत से बार इससे नदी, तालाबों के समूह में बदल जाती है।

छाँव की कमी और पत्तों और पशुओं के मल-मूत्र के अभाव होने से जैविक चीज़ों द्वारा जमीन का पोषण नहीं हो पाता। इससे धरती की ऊपरी परत की नमी सूख जाती है और समय बीतने के साथ रेत में बदल जाती है।
दूसरा यह है कि नदियों में गड्ढे खोद कर उनमें कंकड़ भर दिए जाएं, जिससे कि पानी जमीन के भीतर रिस सके और आस-पास के कुओं तक पहुँच सके – ये उपाय नदी की मृत्यु पूरी तरह से सुनिश्चित करता है। इस तरह के उपायों से नदियों का शोषण होता है, उनका बचाव नहीं होता। प्राकृतिक रूप से बहने वाली नदी की एक बिलकुल अलग इकोलॉजी होता है। जब धरती वर्षा-वन से ढंकी हुई थी, तब नदियों और झरनों तक पानी पहुँच पाता था, और वे पूरे प्रवाह में रहते थे। नदियों को पोषित करने के लिए आस-पास की जमीन गीली होनी चाहिए। आजकल, हर तरफ जमीन जोती जाती है। छाँव की कमी और पत्तों और पशुओं के मल-मूत्र के अभाव होने से जैविक चीज़ों द्वारा जमीन का पोषण नहीं हो पाता। इससे धरती की ऊपरी परत की नमी सूख जाती है और समय बीतने के साथ रेत में बदल जाती है। पेड़ काटे जा रहे हैं, जानवरों को मारा जा रहा है - इन वजहों से जमीन पोषित नहीं हो पा रही है।

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पेड़ों पर आधारित खेती को अपनाना

वैसे तो हमारे देश में अलग-अलग तरह की समस्याएँ हैं, पर एक उपलब्धि है जिस पर हम गर्व कर सकते हैं - हमारे किसानों किसी तरह से 130 करोड़ लोगों को खाना खिला रहे हैं।

इसका समाधान ये है कि हम मिट्टी को कमज़ोर बनाने वाली फसलों की जगह पेड़ों पर आधारित खेती को अपनाएं। ऐसा करने के लिए, हमें जरुरी जागरूकता पैदा करनी होगी और नीतियों में बदलाव लाने होंगे।
पर ऐसा बहुत दिनों तक नहीं चलेगा। हम इतनी तेज़ी से जमीन और जलाशयों को तबाह कर रहे हैं, कि पन्द्रह से बीस सालों के अंदर हम लोगों को खाना नहीं खिला पाएंगे और उनकी प्यास नहीं बुझा पाएँगे। ये कोई प्रलय की भविष्यवाणी नहीं है। इस बात के स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं, कि हम उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। एक नदी को प्रभावित करने वाली सभी चीज़ें हमारे वश में नहीं हैं। फिर भी, हम कुछ ठोस कदम उठा कर नदी के बहाव और साथ ही उसके आस-पास की आर्थिक गतिविधियों को भी बढ़ावा दे सकते हैं। सबसे सरल और प्रभावशाली तरीका है जलाशयों के आस-पास पेड़ों की संख्या को बढ़ाना। लेकिन भारत का एक बड़ा हिस्सा खेती की जमीन है, जिसे हम जंगल में नहीं बदल सकते। इसका समाधान ये है कि हम मिट्टी को कमज़ोर बनाने वाली फसलों की जगह पेड़ों पर आधारित खेती को अपनाएं। ऐसा करने के लिए, हमें जरुरी जागरूकता पैदा करनी होगी और नीतियों में बदलाव लाने होंगे।

कुछ सही कदम उठाये गए हैं

प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स के तहत बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने का जो काम हुआ उससे अब तक पूरे तमिल नाडू में 3 करोड़ से ज्यादा पौधे लगाए जा चुके हैं।

कुछ दिनों पहले, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा को एक जीवंत अस्तित्व के रूप में पहचान देते हुए उसे कानूनी अधिकार दिए हैं, और सरकार को उसकी सफाई और देख-रेख के लिए एक बोर्ड बनाने के निर्देश दिए हैं।
अलग-अलग लोगों द्वारा भी पेड़ लगाने की कोशिशों से स्थिति बेहतर होती है। लेकिन अगर हम सही मायने में समाधान चाहते हैं, तो सरकारी स्तर पर नीतियों में बदलाव होना चाहिए। राजस्थान सरकार ने जलाशयों के आस-पास पेड़ लगाने का शानदार कम किया है, और इसका असर भूमिगत जल के बढ़ते स्तरों के रूप में अभी से देखा जा सकता है। मध्य प्रदेश सरकार ने हाल ही में, नर्मदा के आस-पास पेड़ों की फसल उगाने वाले किसानों को आर्थिक सहायता देनी शुरू की है। कुछ दिनों पहले, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा को एक जीवंत अस्तित्व के रूप में पहचान देते हुए उसे कानूनी अधिकार दिए हैं, और सरकार को उसकी सफाई और देख-रेख के लिए एक बोर्ड बनाने के निर्देश दिए हैं। ये सही दिशा में उठाये गए शुरुआती कदम हैं।

समस्या का मूल कारण - आबादी

देश में ठोस बदलाव लाने के लिए एक ऐसी राष्ट्रीय नीति की जरूरत है, जिसमें सभी मुख्य नदियां और उनकी सहायक नदियां भी शामिल हों।

बस सत्तर सालों में हमारी जनसंख्या 33 करोड़ से 130 करोड़ हो चुकी है। तो सवाल ये है कि क्या हम इस समस्या के बारे में कुछ करेंगे?
समस्या का मूल कारण यह है कि 1947 से अब तक हमारी जनसंख्या चार गुना हो चुकी है। बस सत्तर सालों में हमारी जनसंख्या 33 करोड़ से 130 करोड़ हो चुकी है। तो सवाल ये है कि क्या हम इस समस्या के बारे में कुछ करेंगे? एक और चीज़ जो समस्या पैदा करती है, वो है उपभोग करने के तरीकों में बदलाव। ये ऐसी चीज़ है जिसे पीछे की ओर मोड़ना बहुत मुश्किल है। अगर हम समझदारी से काम लें, तो हम इंसानी आबादी को कम कर सकते हैं, पर हम इंसानी महत्वाकांक्षाओं को कम नहीं कर सकते। नदियों के आस-पास हरियाली को बढ़ाना ही सबसे सरल समाधान है। हमें एक ऐसी नीति की जरुरत है, जिसके अनुसार जलाशयों के आस-पास की सरकारी जमीन पर जंगल होने चाहिए, और निजी जमीन पर बागबानी की जाए।

नदियों को जोड़ने का प्रोजेक्ट

कृषिवानिकी और बागबानी पर ऐसे काफी रिसर्च हुए हैं, जिनसे हमें मदद मिल सकती है।

आप एक गरीब किसान से धरती को बचाने की उम्मीद नहीं कर सकते, जब वो खुद अपने जीवन यापन के लिए संघर्ष कर रहा हो। बागबानी से जुड़ी फसलों के द्वारा, जमीन को कमज़ोर बनाने वाली फसलों से ज्यादा फायदा मिलना चाहिए।
सबसे महत्वपूर्ण बात है कि छाँव के लिए, जैविक गतिविधि और जैविक सामग्री के लिए, पेड़ों की एक कैनोपी या छतरी तैयार की जाए, जिससे जमीन नम और उपजाऊ हो जाए। जमीन सिर्फ तभी झरनों और नदियों को पोषित कर सकती है, जब वह पर्याप्त रूप से गीली हो। हमें एक ऐसा व्यापक प्लान तैयार करना होगा, जो नदी के किनारे रहने वाले लोगों के लिए फायदेमंद हो। आप एक गरीब किसान से धरती को बचाने की उम्मीद नहीं कर सकते, जब वो खुद अपने जीवन यापन के लिए संघर्ष कर रहा हो। बागबानी से जुड़ी फसलों के द्वारा, जमीन को कमज़ोर बनाने वाली फसलों से ज्यादा फायदा मिलना चाहिए। कुछ लोग नदियों को जोड़ने के प्रोजेक्ट का समर्थन कर रहे हैं। ऐसा प्रोजेक्ट शीतोष्ण जलवायु वाली जगहों पर तो कारगर हो सकता है, पर उष्ण क्षेत्र के ऊँचे तापमानों और मौसमी बरसातों वाली जगहों पर नहीं। ऐसा प्रोजेक्ट बहुत महंगा साबित होगा, और नदियों और उनके आस-पास की आर्थिक गतिविधियों  के लिए हानिकारक होगा। हमें इस प्रोजेक्ट को रोकने के लिए अपील करनी होगी। सिर्फ इसलिए कि इसमें कुछ पैसे का निवेश हो चुका है, ये जरुरी नहीं कि हम इसे आगे  बढ़ाएं।

नदियों को बचाने के लिए रैली

हमें अपनी सोच को नदियों के दोहन से बदलकर उन्हें जीवंत बनाने में लगाना होगा। हमें देश में सभी को इस बारे में जागरूक करना होगा कि नदियों को बचाने की जबरदस्त जरुरत है।

अब तक, हर राज्य इस तरह से बर्ताव कर रहे हैं, जैसे कि वो अपने आप में एक अलग अस्तित्व हों। हमारी जरुरत ये है कि सभी राज्य एकजुट होकर एक ऐसी नीति तैयार करें जो सभी पर लागू हो।
हम एक रैली की तैयारी कर रहे हैं जो सोलह राज्यों से गुजरेगी। प्लान के अनुसार ये रैली तमिल नाडू के कन्याकुमारी से शुरू होगी, उत्तराखंड तक जाएगी फिर दिल्ली में आकर ख़त्म होगी। जिन सोलह राज्यों की राजधानियों से हम गुजरेंगे, उन जगहों पर बड़े समारोह आयोजित करेंगे, जिससे बड़े स्तर पर नदियों को बचाने के बारे में जागरूकता पैदा की जा सके। अब तक, हर राज्य इस तरह से बर्ताव कर रहे हैं, जैसे कि वो अपने आप में एक अलग अस्तित्व हों। हमारी जरुरत ये है कि सभी राज्य एकजुट होकर एक ऐसी नीति तैयार करें जो सभी पर लागू हो। केंद्र ने एक ऐसा बिल तैयार किया है, जिससे राज्यों के बीच पानी से जुड़ी समस्याओं के लिए एक ट्रिब्यूनल होगा। इस बिल से मदद मिल सकती है।

एक बार नीति तैयार हो जाए, तो इसे पूरी तरह से लागू करने में थोड़ा समय लगेगा। पेड़ को काटने का काम एक दिन में हो सकता है। उसे उगाने के लिए कई दिन लगते हैं। समीकरण बहुत सरल है। नदियों के आस-पास पेड़ होने चाहिए। अगर हम पेड़ लगाएंगे, तो वे पानी को थाम कर रखेंगे, और इससे नदियाँ पोषित होंगी। अगर हम ये जागरूकता पूरे देश में फैलाएं, और एक सभी पर लागू होने वाली नीति बनाकर उसे लागू करना शुरू कर दें – तो ये हमारे देश के भविष्य और आने वाली पीढ़ियों की खुशहाली के लिए एक जबरदस्त और सफल कदम होगा।