लिंग भैरवी विवाह - ऊर्जा पर आधारित शादी की प्रक्रिया
यहां पर सदगुरु समझा रहे हैं कि कैसे विवाह, 'शादी की एक रस्म, प्रक्रिया' दो लोगों को एक गहरे स्तर पर आपस में एक बंधन में बांधती है, और आज की सामाजिक वास्तविकताओं के संदर्भ में कैसे यह प्रक्रिया जांची, परखी और ठीक की गई है। सदगुरु कहते हैं, "जब ऐसा मिलन होता है, जो महज़ शारीरिक और मनोवैज्ञानिक साथ से कहीं ऊपर उठ जाए, तब उसमें एक सुंदर ऊर्जा पैदा होती है"। (लिंग भैरवी मंदिर में विवाह को ऊर्जा के मिलन के रूप संपन्न किया जाता है। सद्गुरु इसी प्रक्रिया के बारे में हमें समझा रहे हैं।)
मेरा यह मानना है कि मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि में निपुणता, दक्षता होनी चाहिये। जब कोई कहता है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति के साथ बंधना चाहता है तो मुझे लगता है कि मुझे यह प्रक्रिया निपुणता से, भली भांति करानी चाहिये। लोग आपस में बंधते हैं पर जुड़ते नही हैं। हां, यदि आप का बंधने का कोई इरादा ही नही है, तो यह आप पर है, अलग बात है। यदि आप वास्तव में किसी के साथ बंधना चाहते हैं तो आपको अच्छी तरह, कुशलता से बंधना चाहिये। विवाह यही है, बंधने की एक ज्यादा दक्ष, प्रगाढ़ प्रक्रिया।
अगर हम एक सरल उदाहरण लें -- फर्नीचर की किसी वस्तु में लकड़ी के अलग अलग टुकड़े बंधे, जुड़े होते हैं। आप इन्हें स्क्रू( पेंच) से जोड़ सकते हैं। (माफ कीजियेगा, अमेरिका में शायद आप स्क्रू का अर्थ अलग संदर्भ में भी जानते हैं।) अमेरिका में हर चीज़ में कील लगाई जाती है। दुनिया में बाकी सभी जगह फर्नीचर में लकड़ी के दो टुकड़े अच्छी तरह से जोड़ने के लिये स्क्रू का उपयोग होता है। स्क्रू का एक फायदा यह है कि उसे खोल कर कभी भी निकाला जा सकता है लेकिन आप कील को सही ढंग से नही निकाल सकते। एक बार आप कील लगा दें तो उसे निकलने के लिये सामान्य रूप से उसे तोड़ना पड़ता है।
भारत में अगर एक पारंपरिक बढ़ई( सुथार) इस तरह से कीलें लगायेगा तो उसे कोई काम नहीं मिलेगा। पारंपरिक भारतीय लकड़ी काम में, लकड़ी के बड़े हिस्सों को जोड़ने के लिये वे लकड़ी के ही छोटे, छोटे टुकड़ों का उपयोग( कील, स्क्रू की तरह) करते थे। ये बहुत अच्छी तरह जोड़ते हैं लेकिन हमेशा के लिये नहीं। यदि ज़रूरी हुआ तो उन जोड़ों को निकाला जा सकता है। हां, इसमें कुछ कुशलता एवं प्रयत्न की आवश्यकता होती है। दुनिया के पूर्वी क्षेत्रों में लोग इस बारे में दक्ष हैं। सभी बंधन ऐसे होने चाहियें। बंधन वास्तव में गहरे व ठीक ढंग के होने चाहियें। लेकिन यदि किसी बाहरी कारण से इसे थोड़े प्रयत्नों के साथ तोड़ना पड़े तो ऐसा करने में हमें सक्षम होना चाहिये अन्यथा इसका अर्थ यह होगा कि हम जिस सामग्री का प्रयोग कर रहे हैं, उसके लिये हमें कोई परवाह ही नहीं है।
यह मनुष्यों के मामले में भी ऐसा ही है। जब हम दो लोगों को बांधते हैं तब हमें उन्हें ऐसे बांधना चाहिये कि वह बंधन लगभग हमेशा के लिये हो। लेकिन यदि किसी बाह्य कारण से आपको उन्हें अलग करना हो -- जैसे कि मान लीजिये, यदि एक की मृत्यु हो जाय तो दूसरे को तुरंत ही मर जाना चाहिये। यदि आपने उन्हें बहुत कस कर बांधा हो तो ऐसा कुछ हो सकता है।
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भूतकाल में बहुत से लोग इस तरह की इच्छा रखते थे, " अगर मेरे पति या पत्नी की मृत्यु हो जाय तो मुझे भी मरना चाहिए"। अब वैसे दिन नहीं हैं। आजकल अगर आप ऐसा कुछ करते हैं जो उन्हें पसंद नहीं है तो वे चले जायेंगे। तो आज के ऐसे जगत में आप को इस तरह नहीं बंधना चाहिये। बंधन इतना तगड़ा तो होना चाहिये कि अगर कल सुबह टूथपेस्ट पर कोई झगड़ा हो जाय तो तो आपका बंधन टिका रहना चाहिये। लेकिन अगर कोई बाहरी कारण ऐसा होता है तो थोड़े से प्रयत्न के साथ आपको उस बंधन में से बाहर निकलना भी आना चाहिये।
लेकिन कोई भी बंधन - चाहे वो किसी वस्तु, सामग्री का हो या मनुष्य का, यदि टूटता है तो इसकी कीमत तो चुकानी ही होती है। हाँ, यदि यह सही ढंग से बंधा ही न हो तो बात अलग है। अगर आप फर्नीचर की किसी वस्तु को अलग अलग करना चाहें तो लकड़ी में कुछ छेद तो रह ही जायेंगे, जो आसानी से भरे नहीं जायेंगे। मनुष्यों में भी ऐसा ही होता है। मैं जानता हूँ, आजकल एक नारा बहुत प्रचलित है, "मैं अब आगे निकल चुका हूँ"। लेकिन मैं आगे निकल आया हूँ ",इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं मुक्त हो गया हूँ या ऊपर हो गया हूँ। मैं आगे निकल आया हूँ का अर्थ यह है कि मैं अगले गड्ढे में हूँ। आप भले यह कह दें कि मैं आगे निकल आया हूँ लेकिन कुछ खुले हुए छेद तो रह ही जायेंगे, जिनमें आप किसी तरह से फंसे ही रहेंगे।
आप अपने जीवन को किस तरह संभाल सकते हैं, शाम के समय मन बहला कर, फिर सुबह बहुत ज्यादा देर से उठ कर, आफिस के समय को भुनभुनाते, बड़बड़ाते, लड़ते, झगड़ते बिता कर और किसी तरह से व्यस्त रह कर। अगर आप लोगों को तीन दिन तक एक जगह बैठा दें और उनके पास करने के लिये कुछ न हो तो उनके अंदर जो छेद हैं, घाव हैं उन्हें लेकर वे पागल हो जायेंगे। किसी छेद को ऐसे ही खुला छोड़ कर आगे बढ़ जाना और छेद की मरम्मत करना, ये दो बिल्कुल अलग चीजें हैं। उन्हें ऐसे ही छोड़ कर आगे बढ़ना थोड़ा सरल है, उनको ठीक करना उतना आसान नहीं। ये वैसा ही है जैसे दीमक लग जाय। अगर आप बस फर्नीचर को रंग, पॉलिश करते रहें तो एक दिन बस उसपर रंग ही रह जायेगा क्योंकि दीमक रंग नही खाती, वे बस जैविक पदार्थ खाती हैं। वे लगभग सारी लकड़ी खा जायेंगी। अगर आप रंग में उंगली डालें तो उंगली अंदर तक चली जायेगी क्योंकि वहां बस रंग ही बचा है।
किसी भी चीज़ का बांधना अच्छी तरह से होना चाहिये-- वरना बात ही क्या है? हम दो ज़िन्दगियों को इस तरह बांध सकते हैं कि अगर एक मर जाये तो दूसरा भी मर जायेगा, यदि एक को आत्मज्ञान हो जाय तो दूसरे को भी हो जायेगा। ये सकारात्मक संभावनायें हैं लेकिन औसतन आत्मज्ञान पाने वाले लोगों की अपेक्षा बीमार पड़ने वाले, मरने वाले या पागल हो जाने वाले लोगों की संख्या ज्यादा है, इसलिये हम उन्हें इस तरह नहीं बांधते कि वे एक दूसरे को एकदम आत्मसात कर लें। तो कुछ प्रयत्नों के साथ हम उन्हें एक दूसरे से अलग कर सकते हैं लेकिन उनकी कीमत चुकानी होगी।
हम वाकई में बंधन को बहुत मजबूत बना सकते हैं या जीवन की एकरूपता को बहुत बड़ा कर सकते हैं लेकिन हमें बीमारी, मृत्यु या तलाक़ की संभावना को ध्यान में रखना पड़ता है। सामाजिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए हमने विवाह की प्रक्रिया को कुछ सीमा तक ठीकठाक किया है, उसे थोड़ा लचीला बनाया है। हम शायद प्रक्रिया की गहनता को बढ़ा सकते हैं लेकिन आज की दुनिया में, जहां लोग माइक्रो सेकेंड तक की गिनती करते हैं, जन्म भर का बंधन शायद एक तरह से कारावास जैसे लगे। पुरानी पीढियां तो आसानी से कहती थीं, "( हम तब तक साथ साथ रहेंगे)जब तक मृत्यु हमें अलग न कर दे", लेकिन मुझे लगता है कि आजकल कोई ऐसा नहीं कहता।
विवाह एक जैविक प्रक्रिया है जिसमें दो जीवनों को इस तरह एकत्र बांध दिया जाता है कि कम से कम उनमें कुछ बात ऐसी हो कि उन्हें पता न चले कि यह कौन सी जिंदगी का हिस्सा है? वे एकत्व का ऐसा अनुभव करते हैं जो बहुत अच्छा है। हम आशा करते हैं कि वे इसका उपयोग एक विशाल एकीकरण के लिये करेंगे। वे यह कर पाते हैं या नहीं ये अलग बात है।
जो यह प्रक्रिया कराते हैं, उनके लिये यह बहुत सुंदर होगा। दो जीवनों को एकत्र करना और उन्हें एक होने का अनुभव कराना, अपने जीवन में एक बड़ी साधना है।
जब एक ऐसा एकीकरण सम्पन्न होता है जो महज़ शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक साथ से अधिक हो, ऊपर हो तो उसके चारों ओर एक सुंदर ऊर्जा निर्माण होती है। जो इस प्रक्रिया को सम्पन्न करते हैं, वे उसकी मधुरता का स्वाद चख सकते हैं। यह वैसा ही है जैसे भाव स्पंदन कार्यक्रम में भाग लेना। चाहे आपको अपना कोई अनुभव न हो, यदि आप किसी अन्य को ध्यानपूर्वक देखते हैं जो एकीकरण की किसी भी दशा में है तो आपको बहुत लाभ होता है। जब ऐसी प्रक्रिया होती है जिसमें कोई अपनी सीमाओं को बढ़ाता है तो वे लोग भी जो इस प्रक्रिया को देख रहे हैं, लाभान्वित होते हैं। ऐसी बात किसी स्तर पर विवाह में भी होती है।