मिटाएं अपने लिंग की पहचान को
सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीसरे लींग को कानूनी मान्यता मिल जाने से समाज में एक बार फिर इस विषय पर चर्चाएं शुरु हो गई हैं। आज के स्पॉट में सद्गुरु इसी विषय पर अपनी राय दे रहे हैं-

देवियों व सज्जनों, और वे तमाम लोग जिन्होंने अभी तक कुछ तय नहीं किया है, वे ध्यान दें कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने यहां मौजूद तीसरे लिंग को मान्यता दे कर उनके अस्तित्व को कानूनी जामा पहना दिया है। इन लोगों को अपनी सामाजिक और कानूनी मान्यता का लंबे समय से इंतजार था। भारतीय संस्कृति में तीसरे लिंग को प्राचीन समय से ही पहचान मिली हुई है। भले ही इन्हें लेकर अपने यहां किसी तरह का उत्पीड़न या अत्याचार नहीं था, लेकिन इन्हें समाज में बराबरी का हक नहीं मिला था। हालांकि देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उठाया गया यह कदम स्वागत योग्य है, लेकिन इस कदम ने सामान्य कार्यालयों से लेकर शादी, संपत्ति, सांस्कृतिक प्रभाव से लेकर बाथरूम के इस्तेमाल तक जैसे तमाम मसलों पर बहस का पिटारा खोल दिया है। तीसरे लिंग के साथ न्याय होना तो अच्छी बात है, लेकिन इसके साथ ही हमें महिलाओं और पुरुषों की संवेदनशीलता को भी ध्यान में रखना होगा।
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शिव का अर्द्धनारीश्वर रूप तीसरा लिंग नहीं है, बल्कि यह पुरुषत्व व नारीत्व का चरम जरूर है। स्त्रीत्व या पुरुषत्व को पाना लक्ष्य नहीं है, बल्कि इन दोनों का चरम ही परम लक्ष्य है। इन दोनों के बीच संतुलन बनाने का मतलब तीसरे का जन्म या नाश नहीं है। इस द्वैत के भेद से परे जाने का मतलब शारीरिक अस्तित्व की दोहरी प्रकृति यानी स्त्री और पुरुष के अस्तित्व को नकारना नहीं है। एक स्तर पर योग का मतलब स्त्री व पुरुष तत्व का आंतरिक मिलन है। इसलिए किसी भी एक पक्ष के साथ अपनी गहरी पहचान स्थापित करने की कोई जरूरत नहीं है,क्योंकि जिंदगी दोनों की अभिव्यक्ति है। हम सब स्त्री और पुरुष के मिलन और समागम से ही जन्में हैं। इसलिए हमें अपनी सोच को अपने स्त्री या पुरुष होने की पहचान को दिमाग में ढ़ोने की जरूरत नहीं है, क्येांकि शरीर तो हर हाल में इस पहचान के अनुरूप ही काम करेगा। नर या मादा का भेद शरीरिक है, इसे शरीर से परे ले जाने की कोई जरूरत नहीं है। यह कोई पहचान नहीं, बल्कि एक शारीरिक ढांचा है। शरीर के साथ गहरी पहचान बनाना, स्त्री व पुरुष से जुड़े विचारों व पूर्वाग्रहों ने ही हमारे सामाजिक ताने-बाने को बुरी तरह से प्रभावित किया है।
स्त्री या पुरुष होने का गहरा भाव रखने का सीधा सा मतलब है कि आपने अपने जननांगों के साथ गहरी पहचान बना रखी है। अगर आपको अपनी पहचान किसी अंग विशेष से बनानी ही है तो अपने दिमाग से बनाइए। दिमाग न सिर्फ आपके लिए बेहतर काम करेगा, बल्कि इससे समाज का बेहतर ताना-बना बुना जा सकता है। एक तरह से देखें तो चेतना क्या है- आपकी पहचान शरीर या उसके अंगों से हट कर ब्रम्हांडीय स्तर पर होने लगती है। इसमें आपके भीतर ब्रम्हांडीय समझ को जागने की संभावना होती है।
फिलहाल मैं यूएस के ईशा योग केंद्र में हूं। यहां इस वक्त वसंत की बस शुरुआत ही हुई है। वंसत का मतलब नई पत्तियों, नए फूलों के खिलने की, चिड़ियों, मधुमक्ख्यिों, परागण और नई आबादी की शुरुआत से है। देवियों और सज्जनों, मानव प्रजाति कतई खतरे में नहीं है, इसलिए वसंत के प्रभाव में आने की कोई जरूरत नहीं है।
आइए, इसे साकार कर दिखाएं।
Love & Grace