क्या ईश्वर पर विश्वास करना गलत है?
कुछ संस्कृतियाँ और मत ईश्वर में सहज विश्वास कर लेना सिखाते हैं। जानते हैं इस तरह से विश्वास करने के लिए किन गुणों की जरुरत है, और किन परिस्थितियों में ऐसा विश्वास मुश्किलें पैदा कर सकता है।

ईश्वर के बारे में लोगों का नजरिया बहुत ही अलग-अलग है। दुनिया में कुछ ऐसी बेहद शक्तिशाली ताकतें हैं, जो विश्वास करती हैं कि ईश्वर कहीं ऊपर स्वर्ग में हैं, उनसे मिलने के लिए आपको वहां जाना होगा। एक बार अगर आपको भरोसा हो जाता है कि जीवन का सबसे बेहतर हिस्सा यहां नहीं है, बल्कि कहीं और है तो फिर आप एक खास तरीके से जीने लगते हैं।
हम पर्दा हटाने पर विश्वास करते हैं
हम जिस संस्कृति से आते हैं, उसमें हम उसे कोई विकल्प देने में विश्वास नहीं करते। हमें उसके चेहरे से नकाब हटाना है, ताकि वह सृष्टि की आड़ में छिपकर हमारे साथ अजीबोगरीब हरकतें न कर सके। जो शक्ति सृजन(रचना) करती है, वह अपनी रचना से गायब नहीं हो सकती, लेकिन वह बड़ी कुशलता से खुद को तब तक छिपाने में कामयाब रहती है, जब तक कि आप उसका नकाब हटाने की कोशिश नहीं करते। तो जिसे आप ‘आध्यात्मिक प्रक्रिया’ कहते हैं, वह महज उस ईश्वर पर पड़े पर्दे को हटाना है।
विश्वास मुश्किल पैदा कर सकता है
बहुत से लोग जीवन के अनेक पलों में या फिर कई लोग अपने पूरे जीवनभर ऐसे जीते हैं, मानो वे खुद में ही सबकुछ हैं। बहुत सारे लोगों के लिए उनका संघर्ष, उनकी समस्याएं, उनकी पीड़ा, उनकी कोशिशें, उनकी चाहत, उनका अकेलापन, जीवन जीने की कड़ी जद्दोजहद - सब कुछ ऐसे हो रहे हैं मानो वे जो हैं वो अपने ही बलबूते पर हैं।
मानवता शब्द को नया अर्थ देना होगा
अगर लोगों के पास ये विश्वास-तंत्र न होता, तो लोग कभी भी अपनी सुविधा के लिए इस दुनिया के टुकड़े-टुकड़े करने का दुस्साहस(हिम्मत) नहीं कर पाते। चूंकि उन्हें विश्वास है कि वे भी ईश्वर का ही प्रतिरूप हैं(यानी उन्हें ईश्वर की ही छवि में रचा गया है), इसलिए उन्हें अपने फायदे के लिए जीवन के हर रूप का शोषण करने का पूरा अधिकार है, और इसीलिए उन्होंने कई भयानक काम किए हैं। जब आप किसी से मानवता की अपील करते हैं तो आप हमेशा सोचते हैं कि आप उससे सौम्यता, करुणा, प्रेम की अपेक्षा कर रहे हैं, लेकिन अगर आप मानवता के इतिहास पर सचमुच नजर डालें तो आपको ऐसा नहीं मिलेगा। आप जिस ‘मानवता’ की बात करते हैं, उसने इतनी अधिक ऐसी भयानक चीजें की हैं, जो किसी और जानवर ने, धरती के किसी भी दूसरे जीव ने, नहीं की होंगी। या तो हमें खुद को कई तरीके से बदलना होगा या फिर हमें ‘मानवता’ को फिर से परिभाषित(डिफाइन) करना होगा कि इसका असली मतलब क्या है। मानवता कोई मनोवैज्ञानिक सुविधा न होकर एक जीता जागता अनुभव होना चाहिए।
मन चीज़ों को तोड़-मरोड़ सकता है
इसीलिए हम सिर्फ कही हुई बात पर विश्वास नहीं करते। अगर आपने पहले इस बात पर गौर नहीं किया है तो आपको बता दें कि ईशा में इसका कोई महत्व नहीं है कि आप किस तरह का अनुभव साझा कर रहे हैं, वहां इसकी कोई परवाह नहीं करता, हम सिर्फ आपके शरीर पर विश्वास करते हैं। आपके मन में क्या हुआ या वहां क्या चल रहा है, हम उस पर बिलकुल भरोसा नहीं करते, क्योंकि मन हमेशा पूरी तरह से झूठ बोलता है और आप जैसे चाहें इसे तोड़-मरोड़ या घुमा सकते हैं। कभी-कभी यह उपयोगी लगता है, लेकिन जो आपको उपयोगी लगता है, कुछ समय बाद वही चीज भयानक लगने लगती है। तो ईश्वर कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसके लिए आपको स्वर्ग जाना होगा और वहीं उससे मिलना होगा। न ही ईश्वर कोई ऐसी चीज है, जिसमें आपको सहज रूप से विश्वास करना होगा। अगर आप खुद का और अपने आसपास की हर चीज का नकाब पूरी तरह से हटा देते हैं, तो ईश्वर यहीं है। दरअसल, समस्या उन चीजों की वजह से खड़ी होती है, जिन्हें आपने रचा है, न कि उन चीजों की वजह से जिन्हें इस सृष्टि के रचयिता ने रचा है।
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