प्राण प्रतिष्ठा का अर्थ
सद्गुरु प्राण प्रतिष्ठा के विज्ञान के बारे में बता रहे हैं।
सद्गुरु: प्रतिष्ठा का अर्थ है, ईश्वरत्व को स्थापित करना। प्रायः जब भी कोई स्थापना होती है, तो उसके साथ मंत्रों का जाप होता है, अनुष्ठान तथा अन्य प्रक्रियाएं होती हैं। अगर आप किसी आकार की स्थापना या प्रतिष्ठा मंत्रों के माध्यम से कर रहे हों, तो आपको उसे निरंतर बनाए रखना होगा। भारत में, पारंपरिक रूप से, हमें यह बताया जाता है कि घर में पत्थर की प्रतिमा नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि आपको उचित प्रकार की पूजा और अनुष्ठान के साथ उसे प्रतिदिन पूजना होगा। अगर किसी देव प्रतिमा की स्थापना मंत्रोच्चार के साथ हो और प्रतिदिन उनकी पूजा न हो, तो इस तरह यह ऊर्जा को सोखने लगती है और आसपास रहने वालों को भारी हानि हो सकती है। दुर्भाग्यवश बहुत से मंदिर ऐसे ही हो गए हैं क्योंकि वहाँ उचित प्रकार से रख-रखाव नहीं किया जाता। लोग उन मंदिरों को जीवित रखना नहीं जानते।
प्राण-प्रतिष्ठा के दौरान ऐसा नहीं होता। जीवन ऊर्जाओं के बल पर, एक आकार की प्रतिष्ठा या स्थापना की जाती है, उसे मंत्रों या अनुष्ठानों से जाग्रत नहीं किया जाता। जब यह एक बार स्थापित हो जाए, तो यह हमेशा के लिए रहता है, इसे किसी रख-रखाव की आवश्यकता नहीं पड़ती। यही कारण है कि ध्यानलिंग में पूजा नहीं की जाती क्योंकि इसे उसकी ज़रूरत ही नहीं है। मंदिर के अनुष्ठान आपके लिए नहीं, बल्कि देवता को जाग्रत रखने के लिए होते हैं। अन्यथा, वे धीरे-धीरे मृतप्राय हो जाते हैं। ध्यानलिंग को ऐसे रख-रखाव की ज़रूरत नहीं है क्योंकि इसे प्राण-प्रतिष्ठा के साथ स्थापित किया गया है, और यह हमेशा ऐसा रहेगा। भले ही आप लिंग का पत्थर वाला हिस्सा हटा दें, यह फिर भी वैसा ही रहेगा। अगर सारी दुनिया का भी अंत हो जाए, तो भी यह वैसा ही रहेगा। आप इसे नष्ट नहीं कर सकते।