दिव्यता का अवतरण
थाईपूसम (उत्तरायण की पहली पूर्णिमा), 1997 को विजी की महासमाधि के दो दिन बाद सद्गुरु ने ये शब्द कहे थे।
सब कुछ बहुत अच्छी तरह संपन्न हो रहा था। मानो कोई सपना चल रहा हो। और मैं जानता था कि जब सब कुछ बहुत अच्छी तरह चल रहा हो, विशेष तौर पर ऐसी प्रक्रिया के दौरान, तो कहीं न कहीं से कोई बाधा आती ही है। वह बाधा किस दिशा से होगी, यह पता नही था। पर बाधा आ गई - हमारे देखते ही देखते, विज्जी ने प्राण त्याग दिए और प्रतिष्ठा का कार्य अधूरा रह गया। उसने महासमाधि ले ली और हम फिर से वहीं आ गए, जहाँ से चले थे।
- सद्गुरु
सद्गुरु: मेरे लिए लोगों को यह समझाना हमेशा कठिन रहा कि विज्जी क्या है? जब मैं विज्जी की बात करता हूँ तो मैं अपनी पत्नी या किसी स्त्री की बात नहीं कर रहा। यहाँ तक कि एक मनुष्य के रूप में भी, वह मेरे लिए हमेशा एक अद्भुत अनुभव बनी रही। पर जैसा कि आपमें से बहुत लोग जानते हैं, वह बहुत ही गहन भावों से भरी थी। बच्चों सी निश्चलता के बीच, उसके सारे भाव, किसी भी परिस्थिति की परवाह न करते हुए, सामने आ जाते। अब उसने महासमाधि ले ली, आध्यात्मिक साधकों के जीवन का परम लक्ष्य; और वह भी कितनी प्रयासहीनता और सहज भाव के साथ!
जनता का कुल मिला कर यही मानना है कि महान संतों का समय अब नहीं रहा। वर्तमान परिस्थिति इस बात का प्रमाण हैं कि ऐसा नहीं है और न ही कभी होगा।
मैंने नहीं चाहा था कि उस समय, उस अवस्था में, कोई अपनी देह त्याग दे, परंतु जाने क्यों उसके मन में यह इच्छा आ गई। वह महामंत्र ‘शंभो’ में लीन हो गई। मेरे या किसी दूसरे का यह पूछना ठीक नहीं होगा कि यह उचित था या अनुचित। मैं उस ईश्वर के निर्णयों पर आपत्ति जताने वाला कौन?
यह अद्भुत है, वाकई अद्भुत है। मेरी किसी भी तरह की सहायता लिए बिना, वह इस नश्वरता के बंधन से परे हो गई। वह अपने स्नेह के कारण, सबसे परे चली गई। हमारे स्नेहवश, हमें यहाँ रहते हुए, इस अधूरे काम को पूरा करना होगा।
ओम शंभो शिव शंभो जय शंभो महादेव
विज्जी ने 1997 में, थाईपूसम (उत्तरायण की पूर्णिमा) के दिन महासमाधि ग्रहण की, उसके दो दिन बाद सद्गुरु ने ये शब्द कहे थे।