ध्यानलिंग प्राण प्रतिष्ठा से पहली हुई कर्म यात्रा
ध्यानलिंग की प्राण प्रतिष्ठा के एक अंग के रूप में, प्रक्रिया में शामिल अन्य लोगों के कर्म बंधन को तोड़ने के लिए कुछ खास कदम उठाए गए।
उस पूरी प्रक्रिया में विज्जी और भारती ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा में सक्रिय रूप से शामिल थीं, मगर हमने पाया कि कुछ खास कार्मिक बाधाएं उन्हें एक खास बिंदु से आगे नहीं बढ़ने दे रहीं। लिंग की प्राण प्रतिष्ठा के दौरान लोगों को ऐसे-ऐसे अनुभव हुए, जिन्हें आप मानव जीवन में संभव नहीं मान सकते। उन चीजों को सहन करने के लिए, व्यक्ति को अपने अंदर एक खास तरह की आजादी की जरूरत होती है। इसलिए हमने सोचा कि हम उन बाधाओं को दूर करने के लिए एक कर्म यात्रा पर जाएंगे।
- सद्गुरु
भारती: प्राण प्रतिष्ठा प्रक्रिया के इस भाग में हमें शरीर के साथ न्यूनतम संपर्क रखना था। इसीलिए विज्जी और मेरे कार्मिक ढांचों को तोड़ने की एक आखिरी कोशिश के रूप में, हम कुछ सप्ताह के लिए आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और उड़ीसा की एक यात्रा पर निकल गए। हम ऐसी जगहों पर गए, जो हमारे पिछले जीवन में बहुत महत्वपूर्ण थे। वहां ध्यान करके अपने पिछले बंधनों से मुक्त हुए। इस कर्म यात्रा के दौरान, सद्गुरु ने कुछ जगहों के बारे में बहुत साफ-साफ और सजीव ढंग से बताया, कि वे कहां और किस स्थिति में होंगे, उनके पास कौन से महत्वपूर्ण स्थान होंगे, जबकि हम तीनों में से कोई भी कभी वहां नहीं गया था, न ही हम इन जगहों के नाम जानते थे। जब हम वहां गए, तो ये सुदूर अनाम जगहें बिल्कुल वैसी ही निकलीं, जैसी सद्गुरु ने बताई थीं। मुक्तेश्वर के एक शिव मंदिर में रहने के दौरान सद्गुरु ने कुछ बहुत शक्तिशाली आध्यात्मिक क्रियाएं कीं और वहां मौजूद तीन प्राणियों को उस हद तक एक कर दिया जहां सिर्फ एक ही प्राणी और एक ऊर्जा रूप बच गया। प्राण प्रतिष्ठा प्रक्रिया की शुरुआत से ही सारी कोशिश इसी ऐक्य को हासिल करने के लिए थी। हमने कई रूपों में इसका अनुभव किया। कई बार ऐसी स्थितियां होती थीं, जब हम शरीर से एक-दूसरे से मीलों दूर होने के बावजूद साफ-साफ जान जाते थे कि ऊर्जा, शरीर, मन और भावना के स्तर पर दूसरे व्यक्ति के साथ क्या हो रहा है। मैंने कई बार इसे जांचा। ऐसा लग रहा था मानो समय और स्थान का बंधन अब नहीं रह गया है। हमारी वापसी के बाद सद्गुरु ने दो पूर्णिमा के अंदर पूर्णता की तिथि तय की। इसका मतलब था कि अगले पैंतालीस से अड़तालीस दिन के भीतर, प्राण प्रतिष्ठा पूरी होने वाली थी।
मगर यह हो नहीं पाया। अगली पूर्णिमा को ही, विज्जी ने अपना शरीर त्यागते हुए महासमाधि ले ली और प्राण प्रतिष्ठा की महती जिम्मेदारी पूरी तरह सद्गुरु के ऊपर आ गई। वह मुझे थोड़ा हैरान कर गई। कई बार मैंने उसकी जिम्मेदारी को लेकर खुद से सवाल किया, कि सद्गुरु के काम के अंतिम चरण में उसने जो मुश्किल पेश कर दी, उसे देखते हुए महासमाधि का क्या लाभ? मैं कई बार एक व्यक्ति के रूप में उसकी कमी महसूस करती थी, मगर काम के मामले में और भी अधिक। चाहे यह सुनने में कितना भी निर्मम लगे, प्राण प्रतिष्ठा की पूरी प्रक्रिया में मेरा एकमात्र फोकस ध्यानलिंग की पूर्णता था। किसी और चीज का मेरे लिए महत्व नहीं था। लोग, भावनाएं और वह सब कुछ, जो मेरे आस-पास के जीवन से किसी रूप में भी जुड़े हैं, मेरे लिए गौण हो गए। इस संबंध में मैं काम को अधूरा छोड़ने और सद्गुरु को अस्थायी रूप से एक दुविधा की स्थिति में छोड़ देने के लिए विज्जी को कभी माफ नहीं कर पाई। हालांकि मुझे उसकी दिव्यता और पार जाने का एहसास है।