हिमालय
सद्गुरु ने रहस्यमय हिमालय पर एक कविता लिखी: ‘यहां की चट्टानें भी स्वर्ग तक जाती हैं/कोई अचरज नहीं कि ईश्वर की खोज करने वाले प्राणियों ने तुम्हें अपना घर बनाया।’
हिमालय
यहाँ तक कि चट्टानें भी पहुँचती हैं, स्वर्ग की ओर संदेह नहीं कोई, कि दिव्यता की चाह रखने वाले बना लेते हैं तुम्हें अपना धाम
कलकल बहते झरने और मदमस्त हवा के झोंके तुम तो सर्वोत्कृष्ट अनुग्रह की हो भव्य उपस्थिति
जिन निडर हाथों ने तुम्हारे इन अंतहीन मोड़ों से गढ़े कुछ मार्ग वे थे ज़बरदस्त प्रयास, पर फिर भी कितने नाममात्र
जाने कितने गुज़रें होंगे उन रास्तों से जो लगते हैं तुम्हारे गर्भ की ओर जाती राहों जैसे
वही गर्भ जहाँ साहसी ही पाते हैं मृत्यु और पा लेते हैं जीवन फिर से एक बार
ये द्विज - ये पुनः जन्मे ये अखंड़ प्रज्ञा के वाहक छोड़ जाते हैं ऐसे पदचिन्ह जिन्हें अंतिम प्रलय भी नहीं सकेगी मिटा
हे अनश्वर जीवों, तुम्हारी ऊर्जाएँ व प्रज्ञा जीवित हैं, मेरे भी
हर धड़कता दिल जानना चाहता है उसे जिसे मैं उघाड़ कर लाता सबके सामने दुर्बलमन वाले भागते हैं अपनी दुर्बलताओं को बचाने के लिए कुछ साहसी ही रखते हैं जीवट टिके रहने का मेरे साथ, जो रखते जीवन की चाह
चाह - जीवन की चाह -गहरे जीवन की चाह वही तो उस शून्य को खोलने का है एकमात्र उपाय वह शून्य जो हैं, मैं और आप!