भेंट को एक पुण्य कर्म माना जाता है। क्या भेंट आध्यात्मिक प्रगति का एक मार्ग भी है? क्या आप भेंट देकर कृपा पा सकते हैं?

संपूर्ण जीवन ही आदान-प्रदान पर टिका है। जीवन का ऐसा कोई पल या कर्म नहीं, जिसमें आदान-प्रदान या लेन-देन न होता हो। हम जितना देते हैं, उससे कहीं ज्यादा लेते हैं, फिर भला दान का झूठा गर्व हम क्यों करते हैं? लेकिन इसी देने को अगर हम दूसरों के लिए समर्पित कर दें तो जीवन कैसे धन्य हो उठेगा, बता रहे हैं सद्‌गुरु:

सद्‌गुरुमानव जीवन के अनगिनत स्वरूप दरअसल अपने आप में अलग-अलग प्रकार के आदान-प्रदान हैं। यह लेन-देन या आदान-प्रदान कई तरह का होता है, जैसे - देशों के बीच, संस्कृतियों के बीच या फिर व्यक्तियों के बीच। सृष्टि में कुछ आदान-प्रदान कोशिकाओं के स्तर पर, परमाणुओं के स्तर पर और ब्रह्मांडीय भी होते हैं। यहां तक कि जैसे आप इस समय जो सांस ले रहे हैं, वो भी एक आदान-प्रदान ही है। दरअसल, ऐसा कोई विकल्प ही नहीं है कि इस आदान-प्रदान को किया जाए या नहीं। अगर विकल्प है तो सिर्फ इतना कि आप इस आदान-प्रदान को गरिमापूर्ण ढंग से करें या फिर भद्दे तरीके से। संसार में हर चीज एक आदान-प्रदान या लेन-देन है।

देना या बांटना ही जीवन है। यह एक तरह का आदान-प्रदान है। हर देने में एक लेना भी होता है। हम बांटने से ज्यादा बटोरते हैं। लेकिन इस लेन-देन में आप लेने या बटोरने पर ध्यान न दें। बस देने को याद रखिए।
युद्ध एक आदान प्रदान है, यहां तक कि एक भयानक बलात्कार भी एक तरह का आदान प्रदान है। इसी तरह से व्यापार, प्रेम और भक्ति भी एक तरह का लेन-देने है। कुछ आदान प्रदान मानवीय चरित्रहीनता की एक अभिव्यक्ति हैं, जबकि कुछ आदान-प्रदान मानव की कौशल व सुदंरता की अभिव्यक्ति हैं, जबकि कुछ आदान-प्रदान मानवीय चेतना का खिलना हैं। अगर आप चुपचाप बैठ जाएं और कतई कुछ न करें तो आप देखेंगे कि एक उच्चत्तम स्तर का ब्रह्मांडीय आदान-प्रदान ठीक यहां भी हो रहा है। और इसके लिए आपको कुछ नहीं करना होगा।

अगर आप नहीं जानते कि किस तरह से दैवीय कृपा हासिल की जाए तो उसे पाने के तमाम सरल तरीके हैं। इसे पाने का एक आसान सा तरीका है. देना या बांटना। जब मैं देने या बांटने की बात करता हूं तो मेरा मतलब सिर्फ एक क्रिया या कार्य भर से नहीं होता। दरअसल, देने या बांटने का काम तो अपने आप में एक छलावा या धोखा है, क्योंकि आप आखिर दे ही क्या सकते हैं? हमारे पास जो कुछ भी है, यहां तक कि हमारा  शरीर भी, सब कुछ इसी ग्रह की देन है। बदले में हम जो देते हैं, वह हमारे द्वारा ग्रहण किए गए की तुलना में एक मामूली सा हिस्सा भर होता है। बांटने का काम छलावा भी लग सकता है और कई बार घिनौना रूप भी धारण कर सकता है। लेकिन जब देना या बांटना ही आपके जीने का ढंग बन जाता है और आपका कर्म उसका प्रदर्शन, तो फिर जब भी आपका दिल कुछ देने के लिए खुलता है तो यह तय है कि परमात्मा की कृपा उसमें प्रवेश करेगी। यह निश्चित रूप से होगा।

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यह मेरी खुशकिस्मती और सौभाग्य रहा कि जीवन के शुरुआत में ही मैं देने या बांटने की उस प्रक्रिया का गवाह बनाए जो किसी सामान्य इंसान, यहां तक कि मेरे स्वयं की समझ से भी परे थी। मेरी परदादी 113 साल तक जीवित रहीं। उनकी लंबी आयु के चलते लोग उन्हें डायन कहने लगे थे। उन्होंने अपने पति की अर्थी उठते देखी। उनके सामने ही उनके कई बच्चे और नाती पोते गुजर गए। फिर भी परदादी से मौत कोसों दूर थी। हर सुबह जब उन्हें नाश्ता दिया जाता तो वह उसमें से दो तिहाई नाश्ता पक्षियों, गिलहरियों व खास कर चीटियों को डाल दिया करतीं। हमारे बीच कई अनचाही सलाह देने वाले भी हुआ करते। जो कहा करते थे कि दादी खाना फेंकती हैं, यह भूखों मरेंगी। ऐसा बोलने वाले मर गए, लेकिन दादी जीवित रहीं।

मैंने कई बार गौर किया कि दादी की थाली में कुछ नाश्ता बचा है और वह बड़ा ध्यान लगाकर चीटिंयों को खाते देखा करती थीं। कई बार उनकी आंखों से आंसू टपकने लगते थे। जब कोई उनसे पूछता कि क्या वह भूखी हैं तो उनका जवाब होता - नहीं मेरा पेट भरा है। पूरा भरा है। मुझे लगता था कि दादी का चीटिंयों से कोई भावनात्मक लगाव या प्रेम रहा होगा। तब मैं यही कोई तीन, चार या पांच साल का रहा हूंगा। जबकि दादी सौ से ऊपर की थीं। कई सालों बाद मुझे अहसास हुआ कि यह दुनिया में आदान प्रदान का और एक तरीका है। खाना चींटियां खाती थीं, पेट दादी का भरता था। हालांकि तार्किक दिमाग को यह कभी गले नहीं उतरेगा। जबकि सोच विचार करनेवालों के लिए यह एक बेतुका विचार होगा। लेकिन सच तो यह है कि की दादी का पोषण ही ऐसे होता था। इसी पोषण ने उन्हें असाधारण दीर्घायु बनाया।

हालांकि हम मेडिकल की दृष्टि से इसकी व्याख्या तो नहीं कर सकते, लेकिन मैंने गौर किया है कि मैं जब भी उपवास रखता हूं तो पहले दो-तीन दिनों में मेरा वजन बढ़ जाता है। कई बार तो यह डेढ़ से दो किलो तक बढ़ जाता है। हालांकि इस पर लोग कह सकते हैं कि इस दौरान आप ढेर सारा पानी पीते होंगे। लेकिन इसकी वजह यह नहीं है। जीवन कई रूपों में चलता है। आपको पोषण सिर्फ उस भोजन से नहीं मिलता, जो आप खाते हैं । यहां तक कि अभी भी अपने खाने से आपको सिर्फ 25-30 फीसदी ही पोषण मिलता है। बाकी का पोषण, आपको उस हवा से मिलता है, जिसमें आप सांस लेते हैं, जो पानी आप पीते हैं या फिर धूप या रोशनी से मिलता है। इन चीजों के बिना आप खत्म हो जाएंगे।

सबसे पहले आप यह समझें कि आप दुनिया में खाली हाथ आए थे, इसलिए आप किसी को कुछ दे ही नहीं सकते। दूसरों को देने का जो हम दिखावा करते हैं, वह अपने आप में एक तरह का अपने रचयिता या ईश्वर के साथ छलावे की कोशिश होती है। चूंकि ईश्वर भी इस खेल में शामिल है। हम सब एक खेल खेल रहे हैं। चूंकि हम लोग काफी चालाक है, इसलिए हम उसे छलने की कोशिश करते हैं, लेकिन बुद्धिमान होने के कारण ईश्वर भी हमसे खेल खेलता है। जबकि असलियत में यहां देने के लिए कुछ भी नहीं है, क्योंकि हमारे पास जो भी है, वो सब यहीं से लिया गया है। हम लेते या बटोरते ज्यादा हैं और बांटते कम है। वैसे, जीवन इसी तरीके जिया जा सकता है। हालांकि यह खास मायने नहीं रखता कि आपने कितना दिया या बांटा। आप जितना लेते हो, वह आपके बांटते से हमेशा ज्यादा होता है। जीवन जीने का यही एक तरीका है।

तो आप बांटने का श्रेय ज्यादा न लें, यह एक चाल या छल है। अगर आपके पास ईश्वर से जुड़ने का कोई रास्ता नहीं है तो एक आसान सा रास्ता मैं आपको सुझाता हूँ। आप अपने जीवन का हर कर्म और सांसें दूसरों के लिए समर्पित कर दें और देखें कि आप अपने आस-पास वालों के लिए और क्या कर सकते हैं। इसमें यह मायने नहीं रखता कि आप क्या कर रहे हैं। मात्र चैबीस घंटों में आपको फर्क महसूस होने लगेगा। आपका जीवन धन्य हो उठेगा। इन अद्भुत अनुभवों से आपको जीवन खूबसूरत नजर आने लगेगा। इससे आपके चेहरे पर एक चमक होगी। दरअसल यही वो एकमात्र तरीका है, जिससे जीवन में सुंदरता आती है।

देना या बांटना ही जीवन है। यह एक तरह का आदान-प्रदान है। हर देने में एक लेना भी होता है। हम बांटने से ज्यादा बटोरते हैं। लेकिन इस लेन-देन में आप लेने या बटोरने पर ध्यान न दें। बस देने को याद रखिए। बांटते रहिए, बटोरने की जरूरत ही नहीं है। जो भी आपको मिलना है, वह खुद ब खुद आपको मिलेगा। दरअसल, ईश्वर बेहद दयालु और कृपालु है।

यह एक व्यक्ति की कहानी है। उसने सौ एकड़ जंगल को काट कर खेती योग्य जमीन तैयार की और उसमें वह खेती करने लगा। इस काम में उसके दोनों बेटों ने भी उसकी मदद की। अपने अंतिम समय में उस व्यक्ति ने अपने दोनों पुत्रों को बुलाकर कहा कि मेरे मरने के बाद इस जमीन का बंटवारा नहीं होना चाहिए। हां, इस पर उगने वाली फसल को तुम दोनों आधा-आधा बांट लेना।

पिता के गुजरने के बाद दोनों भाई अपने पिता की अंतिम इच्छा का आदर करते हुए फसल को आधा-आधा बांटने लगे। समय के चलते एक भाई ने शादी कर ली और उसके पांच बच्चे हुए। जबकि दूसरे भाई ने शादी नहीं की। एक दिन शादीशुदा भाई के दिमाग में एक कीड़ा कुलबुलाया कि हम दोनों को आधा-आधा अनाज मिलता है। लेकिन मेरा भाई तो अकेला है। उसका कोई नही है।

अगर आप नहीं जानते कि किस तरह से दैवीय कृपा हासिल की जाए तो उसे पाने के तमाम सरल तरीके हैं। इसे पाने का एक आसान सा तरीका है. देना या बांटना। जब मैं देने या बांटने की बात करता हूं तो मेरा मतलब सिर्फ एक क्रिया या कार्य भर से नहीं होता।
बुढ़ापे में वह क्या करेगा?  उसकी देखभाल कौन करेगा?  मेरे पास तो पत्नी और मेरे पांच बच्चे हैं, जिनके भरोसे मेरा बुढ़ापा कट जाएगा। मेरे भाई को फसल में से ज्यादा हिस्सा मिलना चाहिएए ताकि बुढापे मे वह उसके काम आए। हालांकि वह जानता था कि उसका भाई इसके लिए राजी नहीं होगा। इसलिए एक रात अंधेरे में उसने अपने भाई के गोदाम में चुपचाप एक बोरी अनाज रख दिया और चुपचाप वापस आ गया। इसके बाद से जब भी उसे मौका मिलताए वह अपने भाई के गोदाम में अपने हिस्से का कुछ अनाज चुपचाप रख आता।

उधर दूसरे भाई के दिमाग में वही कीड़ा कुलबुलाया। उसके मन भी कुछ ऐसा ही विचार आया। उसे लगने लगा कि मैं अकेला हूँ, जबकि मेरे भाई के पांच बच्चे हैं। मै अकेला 50 फीसदी फसल लेकर अन्याय कर रहा हूं। जबकि मुझे अपने भाई को अपने से कुछ ज्यादा अनाज देना चाहिए। लेकिन वह यह भी जानता था कि उसका भाई इस बात के लिए राजी नहीं होगाए सो उसने भी रात के अंधेरे मे चुपचाप अपने भाई के गोदाम में अनाज की बोरियां रखना शुरू कर दिया। ऐसा सालों चलता रहा। दोनों मे से किसी को भी इस बात की भनक तक नहीं लगी। लेकिन एक दिन दोनो भाई रात को एक दूसरे के गोदाम में अनाज की बोरियां ले जाते हुए आपस में टकरा गए। दोनों ने एक दूसरे को देखा और दोनों जान गए कि क्या हो रहा था। दोनों के हाथों से बोरियां छूटकर जमीन पर गिर गईं। दोनों लज्जित होकर नजरें बचाते हुए अपने-अपने बिस्तर पर लौट गए। कुछ सालों बाद दोनों की मृत्यु हुई। गांव वालों ने एक मंदिर बनाने का फैसला किया। वह मंदिर के लिए जमीन ढूंढने लगे। जगह तलाशते-तलाशते गांव वाले उसी जगह पर जा पहुंचे, जहां दोनो भाई उस रात आपस में टकराने पर लज्जित हुए थे। गांववालों को लगा कि मंदिर बनाने के लिए सबसे उपयुक्त जगह यही होगी।  अगर आप कुछ बांट रहे हैं और अपने इस बांटने पर लज्जित हो रहे हैं तो समझ लीजिए कि जहां आप अभी हैं, वहां एक मंदिर खड़ा है।