मृत्यु और मरना

सद्‌गुरु:  मृत्यु एक बहुत मूल सवाल है। वास्तव में मृत्यु के जो आंकड़े हमें पता चलते हैं, उसकी तुलना में, मृत्यु हमारे ज्यादा पास है। हर एक पल में हम मर रहे हैं, अंगों और कोशिकाओं के स्तर पर। यही वजह है कि डॉक्टर आपके अंदर देख कर ही आपकी उम्र बता देता है। सही बात तो ये है कि हमारा जन्म होने से भी पहले हमारे अंदर मृत्यु की शुरुआत हो जाती है। अगर आप अज्ञानी और अनजान हैं, तो ही आपको ऐसा लगता है कि मृत्यु बाद में किसी दिन आयेगी। अगर आप जागरूक हैं तो आप देखेंगे कि जीवन और मृत्यु, दोनों ही, हर पल में हो रहे हैं। अगर आप बस इतना ही करें कि थोड़ी ज्यादा जागरूकता के साथ साँस लें तो आप देखेंगे कि हर ली हुई साँस जीवन है और छोड़ी हुई साँस मृत्यु है।    

अगर आप बस इतना ही करें कि थोड़ी ज्यादा जागरूकता के साथ साँस लें तो आप देखेंगे कि हर ली हुई साँस जीवन है, और छोड़ी हुई साँस मृत्य है। /pullquote]

जन्म होने पर, पहला काम जो एक बच्चा करता है वो है साँस लेने का, हवा का दम लेने का। और, अपने जीवन का आखिरी काम जो आप करेंगे वो होगा साँस छोड़ने का। आप साँस छोड़ेंगे और फिर, अगर आप अगली साँस नहीं लेंगे तो आप मर जायेंगे। अगर ये बात आपको अभी समझ में नहीं आ रही है तो बस साँस छोड़िये और अपनी नाक को बंद कर लीजिये। कुछ ही सेकंड्स में आपके शरीर की हर कोशिका जीवन के लिये चीखना शुरू कर देगी। जीवन और मृत्यु हर समय हो रहे हैं। वे, बिना एक दूसरे से अलग हुए, एक साथ रहते हैं, एक साँस के जैसे। यहाँ तक कि उनका ये संबंध साँस से भी आगे जाता है, वो साँस से भी परे है। साँस तो बस एक सहायक भूमिका में है। वास्तविक काम तो जीवन ऊर्जा का है, जिसे हम प्राण कहते हैं और जो हमारे भौतिक अस्तित्व को काबू में रखती है। प्राण पर एक खास महारत हासिल कर के हम, काफी समय तक, साँस से परे जा कर भी जीवित रह सकते हैं। हालाँकि साँस की ज़रूरत शरीर को हर पल होती है, पर वैसे ही जैसे भोजन और पानी की है।  

मृत्यु एक बहुत ही मूल पहलू है, क्योंकि अगर कोई छोटी सी बात भी हो जाती है तो हो सकता है कि कल सुबह तक आप न हों। और, कल सुबह क्यों? अभी ही, कुछ छोटी सी बात हो जाये तो अगले ही पल आप मर सकते हैं। अगर आप अन्य जीवों की तरह होते तो हो सकता है कि आप इस सब के बारे में न सोच सकते, पर एक बार जब आपको मानवीय बुद्धि मिली है तो फिर आप अपने जीवन के ऐसे महत्वपूर्ण पहलू को अनदेखा कैसे कर सकते हैं? आप इसे अनदेखा करते हुए ऐसे कैसे रह सकते हैं जैसे आप हमेशा यहाँ रहने वाले हैं? ये कैसी बात है कि यहाँ लाखों साल रहने के बाद भी मनुष्य मृत्यु के बारे में कुछ भी नहीं जानता। वैसे तो वह जीवन के बारे में भी कुछ नहीं जानता। हम जीवन के झमेलों के बारे में जानते हैं, पर जीवन के बारे में हम क्या जानते हैं?

मूल रूप से, ये परिस्थिति इसलिये आयी है क्योंकि इस ब्रह्मांड में आप कौन हैं, इसके बारे में आपने समझ खो दी है। हम जिस सौर प्रणाली में हैं, वो अगर कल गायब हो जाये तो बाकी के ब्रह्मांड को इसका पता भी नहीं चलेगा। ये सौर प्रणाली इतनी छोटी है, एक कण जैसी! इस छोटे से कण जैसी सौर प्रणाली में हमारी धरती एक सूक्ष्म परमाणु जैसी है और इस धरती पर आपका शहर एक परम सूक्ष्म परमाणु जैसा महीन है। पर, उसमें, आप एक बहुत बड़े आदमी हैं। ये एक गंभीर समस्या है। जब आपने, 'आप कौन हैं' के बारे में समझ पूरी तरह से खो दी है तो आपको ये क्यों लगता है कि आप जीवन या मृत्यु के बारे में कुछ भी जान पायेंगे?

प्रश्न: पर, सद्‌गुरु, मृत्यु की बात से मैं बहुत परेशान, अशांत हो जाता हूँ, चाहे मेरी बालकनी में कोई कबूतर मर गया हो या रास्ते पर कोई कुत्ता। मैं ऐसा क्यों महसूस करता हूँ?

सद्‌गुरु: सारे डर की जड़ यह है कि हम सब मरने वाले हैं। अगर आप मरने वाले नहीं होते तो आप में कोई डर नहीं होता क्योंकि अगर काट के आपके टुकड़े भी कर दिये जाते तो भी आप नहीं मरते। पर, इसमें डरने की बात क्या है? मृत्य तो एक अद्भुत घटना है। इससे कई चीजें खत्म हो जाती हैं। अभी तो आप जिस तरह से हैं, उससे आपको ये लगता होगा कि ये एक खराब चीज़ है पर अगर आप हज़ार साल तक जीवित रहें तो मृत्यु आपके लिये एक बड़ी राहत होगी। अगर आप बहुत ज्यादा समय तक जीवित रहें तो लोग सोचने लगेंगे कि आप कब मरेंगे? मृत्यु एक जबरदस्त राहत है। बस, बात इतनी ही है कि ये अकाल न हो, समय से पहले न हो। हम उस समय तक मरना नहीं चाहते जब तक हम कुछ कर सकते हैं, कुछ बना सकते हैं, कोई योगदान दे सकते हैं।

 

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मृत्यु अनिवार्य है 

यदि आप सही समय पर मरना चाहते हैं तो आपको साधना करनी चाहिये, जिससे आप यह तय कर सकें कि आप कब मरेंगे। नहीं तो, एक मरा हुआ कबूतर भी आपको याद दिलायेगा कि आप भी मरने वाले हैं। कल जो उड़ सकता था, वो आज मर कर सूख चुका है। ये कल्पना करना कि आप भी एक दिन ऐसे हो जायेंगे, आपके लिये भयावह हो सकता है, क्योंकि आपने यहाँ जो कुछ इकट्ठा किया है उसके साथ आपकी पहचान एक मजबूरी बन गयी है, आप उससे बहुत ज्यादा जुड़ गये हैं। जब मैं कहता हूँ 'आपने यहाँ जो कुछ इकट्ठा किया है, उसके साथ आपकी पहचान', तो याद रखिये - आप जिस शरीर को लेकर घूमते हैं, वो इस जमीन का ही एक टुकड़ा है। जिस मिट्टी को इकट्ठा कर के आपने अपना शरीर बनाया है, और अपनी कई तरह की पहचान बना ली है, वो पहचान इतनी मजबूत हो गयी है कि उसे खोना बहुत ज्यादा भयानक लगता है।

मान लीजिये, आपका वजन जरूरत से ज्यादा हो गया है और हम आपको 10 कि.ग्रा. वज़न कम करने में मदद करते हैं तो क्या ये आपको खराब लगेगा? क्या आप इसके लिये रोयेंगे? बिल्कुल नहीं! अधिकतर लोग बहुत ज्यादा खुश होते हैं जब वे 10 कि.ग्रा. वजन कम कर लेते हैं। अब मान लीजिये कि आपने अपना पूरा 60 या 50 कि.ग्रा. वजन छोड़ दिया, तो इसमें क्या बड़ी बात है? अगर आप जीवन को वैसे ही जानते हैं जैसा वो है, और अपने इकट्ठा किये हुए वजन के ढेर में ही पूरी तरह से खोये हुए नहीं है तो शरीर छोड़ देना कोई बड़ी बात नहीं है।

पक्षियों, कीड़ों, कुत्तों या मनुष्यों के शरीर तो बस ऐसे ही हैं जैसे मिट्टी को वापस मिट्टी में डाल दिया गया हो। ये कोई बड़ा नाटक नहीं है, बस एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। आपने जो कुछ उठाया था, उसे वापस करना और एक नये रूप में बदल देना ही है। आप अपने जन्म लेने, जीवन और मृत्यु को बहुत महत्व दे सकते हैं, पर जहाँ तक धरती माँ का सवाल है, वह तो सिर्फ़ चीजों को नये रूप में ढाल रही है। वह आपको अपने में से बाहर निकालती है और फिर वापस खींच लेती है। आप अपने बारे में बहुत सारी कल्पनायें कर लेते होंगे पर आपने जो इकट्ठा किया है वो आपको वापस तो करना ही है। ये एक अच्छी आदत है। आप किसी से कुछ भी लेते हैं तो वो आपको कभी ना कभी तो वापस करना ही है। मेरी बात पर विश्वास कीजिये, मरना एक अच्छी आदत है।

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प्रश्न : पर, मृत्यु के बारे में जानने का अच्छी तरह से जीने से क्या संबंध है?

सद्‌गुरु: मृत्यु जीवन की आधार-रेखा है। अगर आप मृत्यु को नहीं समझते तो जीवन को कभी न जान सकेंगे और न ही संभाल सकेंगे, क्योंकि जीवन और मृत्यु साँस लेने और छोड़ने की क्रिया जैसे हैं। वे साथ साथ रहते हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया तभी शुरू होती है जब आपका सामना मृत्यु से होता है, वो चाहे आपकी खुद की हो या किसी ऐसे प्रिय व्यक्ति की जिसके लिये आपको लगता हो कि उसके बिना आप जीवित रह ही नहीं पायेंगे। जब मृत्यु पास आ रही हो या आ गयी हो तब ही ये सवाल अधिकतर लोगों के मन में आता है, "ये सब क्या है? इसके बाद क्या होगा"? जब तक जीवन का अनुभव बहुत ज्यादा वास्तविक लगता है तब तक आप विश्वास ही नहीं कर पाते कि ये सब ऐसे ही खत्म होने वाला है। पर, जब मृत्यु पास में आ जाती है तब मन ऐसा सोचने लगता है कि अभी कुछ और बाकी है, कुछ और होना चाहिये। मन चाहे कुछ भी सोच ले पर सही तौर पर ये जानता कुछ नहीं है क्योंकि मन सिर्फ उसी जानकारी के आधार पर सोचता है जो उसने इकट्ठा की है। मन का मृत्यु के लिये कोई खिंचाव नहीं है क्योंकि उसके पास मृत्यु के बारे में कोई सच्ची जानकारी नहीं है, सिर्फ सुनी सुनायी बातें हैं, गपशप है।

आपने ये सब गपशप सुनी है कि मरने पर आप जा कर भगवान की गोद में बैठ जायेंगे। अगर ऐसा है तो आपको आज ही मर जाना चाहिये। अगर आपको ऐसा विशेषाधिकार मिलने वाला है तो मुझे समझ में नहीं आ रहा कि आप इसे टाल क्यों रहे हैं? आपने स्वर्ग और नर्क के बारे में भी गप्पें सुनी हैं। देवदूत और दूसरे जो भी हैं, उनके बारे में भी गप्पें सुनी हैं। पर, आपके पास कोई पक्की जानकारी नहीं है। मृत्यु के बाद क्या होता है उसके बारे में सोचने में अपना समय व्यर्थ मत कीजिये क्योंकि वो आपके मन का क्षेत्र नहीं है।

जागरूकतापूर्वक मरना

इसे जानने का एक ही तरीका है, और वो है - प्रज्ञा, जैसा कि भारतीय भाषाओं में हम इसे कहते हैं। अंग्रेज़ी में हम इसे एवेयरनेस अर्थात जागरूकता कहेंगे। पर, कृपया इस शब्द को इसके सामान्य अर्थ में मत लीजिये। अगर आप जागरूक हैं तो आप चीजों के बारे में सोचे बिना, और उनकी जानकारी मिले बिना उन्हें जान सकते हैं। अगर आप अपने आसपास के जीवन को ध्यान से देखते हैं तो ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिनके बारे में बिना सोचे हुए भी हर प्राणी उनको जानता है। सही तौर पर अगर आपको उनके बारे में सोचना हो तो आपको ये भी पता नहीं चलेगा कि साँस कैसे लें! ये बस होता है। वो आपकी बुद्धिमत्ता नहीं है, वो तो सृष्टिकर्ता की बुद्धिमत्ता है। आपके शरीर जैसी जटिल मशीन अगर आपको चलाने के लिये दी जाती तो एक बड़ी आफत खड़ी हो जाती।

...जीना और मरना जैसा कुछ भी नहीं है। ये बस लीला है, एक नाटक, एक खेल।

बहुत सारी चीजें आपकी सहायता, समझ और सोच के बिना होती हैं। प्रज्ञा विचारों से भी परे है। प्रज्ञा वो है जो सृष्टिरचना का स्रोत है। अगर आप उस तक पहुँच बना लेते हैं तो आप उस सीमारेखा को पार कर सकते हैं जो हमें लगता है कि जीवन और मृत्यु के बीच में है। असल में, कोई सीमारेखा नहीं है - आप अभी ही जी भी रहे हैं और मर भी रहे हैं। सामाजिक स्तर पर, लोगों के सीमित अनुभवों और उनकी सीमित समझ में, कोई आज यहाँ हो सकता है और कल जा चुका हुआ हो सकता है। पर जीवन के संदर्भ में, अस्तित्व की प्रक्रिया के संदर्भ में, जीना और मरना जैसा कुछ भी नहीं है। ये बस लीला है, एक नाटक, एक खेल।

दिव्य खेल

जब हम कहते हैं कि ये सब एक दिव्य लीला है तो इसका अर्थ ये नहीं है कि दिव्यता दूसरों को दुख दे कर खुश होने वाली कोई दुष्ट शक्ति है, जो आपके जीवन के साथ खेलने का मजा ले रही है। हम इसे खेल इसलिये कहते हैं क्योंकि सब एक दूसरे के साथ गुँथा हुआ है। अस्तित्व की दृष्टि से आप बचपन, जवानी, प्रौढ़ता, और बुढ़ापे में फर्क नहीं कर सकते। ये सब एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। आप जिसे व्यक्ति कहते हैं और आप जिसे ब्रह्मांड कहते हैं, वे एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते। आप जिसे परमाण्विक कहते हैं और आप जिसे ब्रह्मांडीय कहते हैं, उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस अर्थ में, ये सब एक खेल ही है।

मृत्यु और उसके परे जो कुछ है, वो कोई ऐसा रहस्य नहीं है जो कहीं स्वर्ग या नर्क में छुपा हुआ हो - ये यहीं है, अभी है।

पर जब आप किसी एक चीज़ और दूसरी के बीच सीमारेखा खींच देते हैं तो फिर कोई खेल नहीं होगा। जब आप यहाँ बैठे हैं, तब साँस आपके और पेड़ के बीच में खेल रही है। आप उसको इस अर्थ में अलग नहीं कर सकते कि, "मैं अपनी साँस ले रहा हूँ, उसको उसकी साँस लेने दो"। बहुत से घरों में ऐसा होता है - "मैं अपना काम कर रहा हूँ, तुम अपना काम करो"। जिस पल आप खेल को रोकने की कोशिश करेंगे, जीवन आपके हाथों से फिसल जायेगा।

जीवन और मृत्यु को जानने के लिये सभी तरह की चीजें की गयीं हैं। पर, इसके बारे में सोच कर या प्रयोग कर के आप इसे नहीं जान सकते। लोग जब मुझसे मृत्यु और उसके बाद क्या होता है, इसके बारे में पूछते हैं तो मैं उन्हें याद दिलाता रहता हूँ कि इसके बारे में जानने का सबसे बेहतर तरीका इसका अनुभव करना है। मैं ये इशारा नहीं कर रहा कि उन्हें मर जाना चाहिये। मेरा ऐसा कहने का मतलब बस ये होता है कि आप जीवन का अनुभव करें, अपने अंदर के जीवन का। अगर आपको सिर्फ शरीर का ही अनुभव है, तो मैं जो कुछ भी कहूँगा उसका आप गलत निष्कर्ष निकालेंगे। अगर जीवन के बारे में आपके अनुभव सिर्फ शारीरिक और मानसिक संरचना तक ही सीमित हैं तो आप इस आयाम तक अपनी पहुँच नहीं बना पायेंगे। मृत्यु और उसके परे जो कुछ है, वो कोई रहस्य नहीं है जो कहीं स्वर्ग या नर्क में छुपा हुआ हो - ये यहीं है, अभी है। बात ये है कि अधिकतर मनुष्यों ने इस तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है क्योंकि वे बाकी चीजों के साथ बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं।

उनके लिये उनका पेशा, कारोबार उनके जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनके प्रेम सम्बंध उनके लिये जीवन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। अपने पड़ोस में किसी के साथ एक छोटा सा झगड़ा उनके लिये उनके जीवन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। और, जीवन से बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण उनके कपड़े हैं जो वे पहनते हैं। ये बस कुछ उदाहरण हैं। चूंकि जीवन के बारे में आपकी समझ गलत है तो जीवन आपसे दूर रहता है। पर, वास्तव में जीवन आपकी पकड़ से दूर नहीं रहता - आप जीवन से दूर भाग रहे हैं। जीवन आपको टालने की कोशिश नहीं कर रहा, आप ही हर तरीके से इसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।

आपके जीवन में, आपको जो कड़वे, दर्दभरे अनुभव हुए, वे कभी भी जीवन ने नहीं बनाये। वे सिर्फ इस वजह से हुए क्योंकि आप अपने शरीर और मन को ठीक तरह से संभाल नहीं रहे थे। जीवन ने कभी भी आपको दुख और दर्द नहीं दिये हैं। ये बस आपके शरीर और मन की वजह से हुए। आप नहीं जानते कि अपनी शारीरिक और मानसिक संरचना को कैसे संभालें? आपको दो अद्भुत साधन दिये गये थे पर आप उनके साथ गड़बड़ करते रहे। सभी दुख और दर्द सिर्फ आपकी ही वजह से आये हैं, ये जीवन से नहीं आये हैं।

प्रज्ञा, समझ का वो आयाम है जो आपको जीवन, उसके स्वभाव और उसके स्रोत तक पहुँचा देता है। ये अलग-अलग चीजें नहीं हैं, ये बस अलग-अलग नाम हैं जो हम जीवन को देते हैं। यहाँ कोई स्रोत नहीं है, कोई अभिव्यक्ति नहीं है - ये सब बस एक ही हैं। जीवन और मृत्यु जैसी कोई चीज़ नहीं है। यहाँ, न तो जीवन है, न ही मृत्यु - ये सब बस इन चीजों का खेल है। आप इस पर एक खेल खेलते हैं, और फिर किसी दिन रुक जाते हैं। जीवन खेलता है और रुकता है, खेलता है और रुकता है, पर मूल जीवन कोई खास गतिविधि नहीं है, कोई ऐसी ख़ास चीज़ नहीं है जो हो रही हो। ये एक अद्भुत घटना है जो बस यहॉं है। ये सृष्टिरचना की पृष्ठभूमि है। सृष्टिरचना का स्रोत है।

प्रश्न :  मैंने मृत्यु को बेहद नज़दीक से देखा, जब मैं एक कार द्वारा टक्कर मारे जाने से, बस कुछ ही सेकंडों से बाल-बाल बच गया। उन कुछ सेकंडों में, मैंने सब कुछ एकदम धीमी गति में और असाधारण रूप से विस्तार में अनुभव किया। तो, उन कुछ सेकंडों का मेरा अनुभव उस तरह से क्यों हुआ और क्या मैं जीवन का अनुभव विस्तार के उस स्तर पर जागरूकतापूर्वक कर सकता हूँ?

सद्गुरु:: एक बार कुछ ऐसा हुआ - इंडियाना, अमेरिका के एक छोटे से कस्बे के एक शराबखाने में दो बूढ़े आदमी मिले। दोनों अलग-अलग टेबल पर चिड़चिड़ाते हुए से बैठे थे और पी रहे थे। फिर, उनमें से एक ने दूसरे की ओर देखा और उस आदमी की कनपटी पर एक जन्मचिन्ह देखा। उसकी तरफ देख कर वो बोला, "अरे, क्या तुम जोशुआ हो"? "हाँ, तुम कौन हो"? "क्या तुम नहीं जानते, मैं मार्क हूँ, हम लोग युद्ध में साथ थे"। "अच्छा, हे भगवान"! फिर वे दोनों खुश हो गये, "दूसरे विश्वयुद्ध में हम साथ-साथ थे, उसको अब पचास साल हो गये हैं"।

फिर, वे एक ही टेबल पर बैठ कर पीने लगे। वे खा भी रहे थे और बातें भी कर रहे थे। उन्होंने यूरोप में युद्ध के दौरान 40 मिनिट की एक कार्रवाई में एक साथ भाग लिया था। वो 40 मिनिट की बमबारी का समय था। उन 40 मिनिटों के बारे में वे दो घंटों तक गजब के विस्तार से बातें करते रहे। जब उनकी बातें खत्म हुईं तो एक ने दूसरे से पूछा, "तब से तुम क्या करते रहे हो"? वो बोला, "अरे, मैं बस एक सेल्समैन का काम कर रहा था"। 40 मिनिट के युद्ध के बारे में वे दो घंटों तक खूब उत्तेजना के साथ बातें करते रहे पर फिर 40 साल का जीवन - बस एक वाक्य में - मैं बस एक सेल्समैन था। उसके जीवन में 40 साल बस यही हुआ।

कब्र के लिये अभ्यास

दुर्भाग्यवश, बहुत सारे लोग केवल तभी जीवंत होते हैं जब मृत्यु उनके सामने खड़ी होती है - चाहे युद्ध में या कार दुर्घटना में। जब मरने की संभावना से आप आमने-सामने होते है - तभी आप पूरी तरह से जीवंत होते हैं। ये कितना दुर्भाग्यपूर्ण है! जब आप सही ढंग से, वास्तव में अपने मरणशील होने का सामना करते हैं तभी ये समझते हैं कि आपका जीवित होना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।

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मैं जब लोगों को देखता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे वे कब्र के अंदर जाने का अभ्यास कर रहे हैं - जब वे अपनी कब्र में होंगे तब उन्हें कैसा होना चाहिये, उनके चेहरे के भाव कैसे होने चाहिये? वे ये बात नहीं समझते कि मरना तो उन्हें है ही। उन्हें लगता है कि वे हमेशा यहाँ रहेंगे। जब वे जीवित हैं तो हमेशा मृत्यु का अभ्यास करते रहते हैं। पर, जब आप उन्हें मृत्यु का खतरा दिखायेंगे तो वे जीवंत हो उठेंगे। आप को क्या लगता है, कृष्ण ने अपना उपदेश युद्ध के मैदान में क्यों दिया? किसी आश्रम के शांतिपूर्ण माहौल में नहीं, भारत के सुंदर जंगलों में नहीं, न ही हिमालय की किसी गुफा में, पर एक खतरनाक युद्ध के मैदान में - क्योंकि मारे जाने का खतरा दिखे बिना ज्यादातर मनुष्यों में अपने जीवन की ओर देखने की बुद्धि ही नहीं होती।

मुझे लगता है कि जब बिना ड्राइवर के अपने आप चलने वाली कारें आ जायेंगी, तब बहुत सारे लोगों को आत्मज्ञान हो जायेगा। कुछ समय बाद शायद आप सीख जायेंगे कि इस बात को कैसे अनदेखा करें - वो बात अलग है - पर शुरुआत में आप नहीं जानते कि ये रुकेगी या नहीं। आप को नहीं मालूम कि ये ठीक समय पर रुकेगी या कहीं जा कर भिड़ जायेगी। मुझे लगता है कि जब ये अपने आप चलने वाली कारें उपयोग में आ जायेंगी, तब उसके कुछ ही महीनों में इस धरती पर कुछ लोगों को तो आत्मज्ञान हो ही जायेगा। तो हमें कुछ आत्मज्ञानियों के लिये तैयार रहना चाहिये।

जीवन के लिये जीवंत होना

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किसी कार दुर्घटना की राह मत देखिये। आपको ये जानना ही चाहिये कि आप इसी समय गिर कर मर सकते हैं। मैं आपके लिये ऐसा नहीं चाहता और आपको लंबे जीवन का आशीर्वाद भी देता हूँ, पर ये संभव है। हर रोज़, कई सारे लोग इस तरह से मर जाते हैं। बैठे-बैठे, खड़े-खड़े, लेटे हुए - वे हर तरह की मुद्रा में मरते हैं। जब आपको समझ आती है कि आप मर सकते हैं तो अचानक ही आपको जीवन का मूल्य समझ में आता है, आप उसके प्रति जीवंत हो उठते हैं। मैं लोगों को याद दिलाता रहता हूँ कि इस जीवन में आप असफल नहीं हो सकते। हर कोई सफल होगा। आपने कभी ऐसा नहीं देखा होगा कि किसी को इसलिये बंदी बनाया गया कि उसने जीवन ठीक से नहीं जिया। हर कोई सफल रहता है। पर, बहुत सारे लोग, बिना ये जाने कि वे किस चीज़ में से गुजरे हैं, बस गुज़र जाते हैं।

जब आपकी दुर्घटना होने वाली थी, कुछ सेकंडों के लिये, आप जान रहे थे कि आप किस परिस्थिति में से हो कर गुज़र रहे थे। बाकी के समय आप ये नहीं जानते। अभी तो आपके दिमाग का नाटक हर चीज़ पर हावी है। इसका मतलब ये है कि आपकी मूर्खतापूर्ण रचना उस भव्य सृष्टिरचना पर हावी है, जिसमें हम रह रहे हैं। पर, जब आपकी ये मूर्खतापूर्ण रचना टूट गयी, तब आप परिस्थिति के उस जबरदस्त खतरे के कारण न कुछ सोच सके, न किन्हीं भावनाओं में बह सके, तब ही आपको लगा कि आप वास्तविक रूप से जीवंत थे।

ये सारा योग जो हम आपको सिखा रहे हैं, वे सारी प्रक्रियायें जिनमें हम आपको दीक्षित कर रहे हैं, वे बस इसीलिये हैं कि आप अपने खुद के नाटक से दूर रहें जिससे ब्रह्मांड का ये खेल आपकी समझ में आ सके। क्योंकि इसके बिना इस जीवन में कुछ भी नहीं है।

 

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