इंसान की दो प्रकृति – एक पुश्तैनी प्रकृति और दूसरी ईश्वरीय प्रकृति
हमारे जीवन के दो पहलू हैं – पहला वो जो वंश से जुड़ी प्रकृति से पैदा होता है। और दूसरा वो जो हमारे भीतर मौजूद ईश्वरीय संभावना से पैदा होता है। पहले से दूसरे पहलू की और मुड़ना हमारे ही ऊपर है।
प्रसून जोशी : सद्गुरु, मेरी लिखी हुई एक कविता है जिसकी पंक्तियां कुछ इस तरह हैं: बीज में सब कुछ लिखा है एक पुड़िया में मेरा अस्तित्व सारा है समाया... सद्गुरु, क्या जीवन पहले ही लिखी जा चुकी किसी स्क्रिप्ट के अनुसार चल रहा है?
सद्गुरु: बीज में बहुत कुछ लिखा है, लेकिन सब कुछ नहीं। बीज में बहुत कुछ लिखा हुआ है, इतना कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। इतना कुछ लिखा है बीज में, फिर भी सब कुछ नहीं लिखा गया है और यही चीज इंसान की जिंदगी को ऐसा बनाती है जैसी यह है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि चाहे आप जीवन को पहले से तयशुदा तरीके से चलाएं या फिर कदम बढ़ा कर एक सचेतन जीवन जिएं।
हमारे अन्दर दो तरह के बीज हैं
बीज दो तरह के होते हैं: एक वह जो हमारे माता-पिता ने रोपा, जिससे हमें यह शरीर मिला। दूसरा बीज वह जो ईश्वर ने बोया और जो हमारे भीतर जीवन उत्पन्न करता है। ये दो अलग-अलग तरह के बीज हैं या कहें कि ये प्रकृति के दो अलग-अलग पहलू हैं। इनमें से एक को निश्चितता के लिए तैयार किया गया है और दूसरे को संभावना के लिए। संभावना का मतलब ही है अनिश्चितता। जो लोग अनिश्चितताओं से बचने की कोशिश करते हैं, वे वास्तव में संभावनाओं से मुंह मोड़ रहे होते हैं। शरीर से संबंधित बीज, या कहें भौतिक प्रकृति से संबंधित बीज जिसका रोपण हमारे माता-पिता की ओर से किया गया है, उसमें कुछ खास किस्म के नियम और बाध्यताएं होती हैं। इस बीज की मूल प्रकृति होती है, अपने जीवन को बचाए रखने की। भौतिक शरीर की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि यह बस जीवन को बचाए रखना चाहता है। जीवन को बचाने की चाह में प्रजनन भी शामिल है। इसके जीवन के लिए जो कुछ भी खतरा बन सकता है, यह उससे बचने की कोशिश करता है। लेकिन जो बीज ईश्वर ने हमारे भीतर रोपा है, जो बीज इस जगत के स्रोत ने हमारे भीतर डाला है, वह बीज नहीं है, वह खुद सृष्टिकर्ता है।
हम अलग-अलग तरीकों से निश्चितता पैदा करना चाहते हैं
हमारे माता-पिता ने हमें बस एक बीज दिया, जिससे यह शरीर बना। लेकिन इस सृष्टि के रचयिता ने हमें बीज नहीं दिया, इसने खुद को ही दे दिया, क्योंकि इस सृष्टि के स्रोत यानी सृष्टा के भीतर जो भी संभावनाएं हैं, वो सब हमारे भीतर भी समाहित हैं। कोई इंसान इस संभावना को अपने भीतर अनुभव करता है या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन यह संभावना उसके भीतर मौजूद तो है ही। जिन लोगों ने अपनी पहचान अपने भौतिक पहलुओं के साथ स्थापित की हुई है, वे हमेशा संभावनाओं या अनिश्चितताओं से बचने की कोशिश करेंगे, क्योंकि अनिश्चितता एक ऐसी चीज है, जिसे हमारा शरीर पसंद नहीं करता। शरीर को निश्चितता चाहिए।
ईश्वरीय अंकुर छूने के बाद संभावनाएं तलाशी जाती हैं
इस व्यापक और विशालकाय ब्रह्मांड में यह बेहद छोटी सी इकाई यानी इंसान हमेशा खतरे में है। अगर आप सिर्फ आसमान को देखें तो यह भी खतरनाक लगता है। इसलिए आपने इस बात की व्याख्या कर ली कि देवता ऊपर आसमान में रहते हैं और वहीं से अपना काम करते हैं, बारिश करते हैं, बिजली चमकाते हैं। ये सब चीजें बस निश्चितता पैदा करने के लिए की गईं। अगर आपको यह नहीं पता हो कि यह सब कैसे हो रहा है तो इसके पीछे की अनिश्चितता आपको मार डालती, क्योंकि आपका शरीर इसे नहीं संभाल सकता। यह अनिश्चितता तभी जाती है, जब आप उस बीज के अंकुर को स्पर्श करते हैं, जो ईश्वर ने आपके भीतर रोपा है। फिर आप निश्चितता की तलाश नहीं करते, आप संभावनाएं तलाशते हैं।
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