हम अकसर अपनी बोल-चाल में यह कहते रहते हैं कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते। लेकिन क्या कभी हमने गौर किया है कि पैसे सचमुच पेड़ो पर भी उग सकते हैं। कैसे ? आइए जानते हैं:

हमारे लिए एक जिंदा पेड़ की कीमत ज्यादा है या कटे पेड़ की? भारत के पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा करवाए गए एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया कि एक 50 वर्ष पुराने पेड़ को अगर उसकी लकड़ी के लिए काटा जाए, तो वह करीब 50,000 रुपये (900 डॉलर) मूल्य का होता है, लेकिन अगर उसे छोड़ दिया जाए, तो वह जो पर्यावरण संबंधी सेवाएं देता है उसकी कीमत लगभग 23 लाख रुपये (40,000 डॉलर) के बराबर होगी।

इन सेवाओं का ब्यौरा देखते हैं:

  • 50 सालों में दिया गया ऑक्सीजन – 3,50,000 रुपये (6300 डॉलर)
  • जल के पुनर्चक्रण (रिसाइकलिंग) संबंधी सेवाएं – 4,50,000 रुपये (8100 डॉलर)
  • मिट्टी का संरक्षण – 3,75,000 रुपये (6750 डॉलर)
  • प्रदूषण नियंत्रण – 7,50,000 रुपये (12,500 डॉलर)
  • पशु-पक्षियों को मिला आश्रय – 3,75,000 रुपयें (6750 डॉलर)

संक्षेप में देखें तो एक कटा हुआ पेड़ = 50,000 रुपये (900 डॉलर), एक जीवित पेड़ = 23 लाख रुपये (40,000 डॉलर) मूल्य का होता है।

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जैव-गतिविधियों के मुख्य केंद्र

पर्यावरण को होने वाले फायदों के अलावा, अध्ययनों से पता चला है कि अधिकांश उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिकल) वनों में, लकड़ी के लिए पेड़ों को काटने से ज्यादा कमाई लकड़ी के अलावा बाकी वन्य-उत्पादों की बिक्री से हो सकती है। इसके अलावा, उष्णकटिबंधीय वन जैव-गतिविधियों के मुख्य केंद्र होते हैं और उनमें बायोटेक्नॉलॉजी (जैवप्रौद्योगिकी) के प्रयोगों के लिए जबरदस्त संभावना होती है। पश्चिमी घाट के कुछ खास स्थान सिर्फ फार्मास्यूटिकल उद्योग के लिए ही अंदाजन सैंकड़ों डॉलर प्रति हेक्टेयर कीमत के हैं। उदाहरण के लिए पश्चिमी घाट में ऊंचे पहाड़ी जंगलों, जिन्हें ‘शोला’ कहा जाता है, में पेनिसिलियम और दूसरे कवकों (फंगस) की दुर्लभ किस्में मिलती हैं।

शोला वन एक अनूठा फॉरेस्ट-इकोसिस्टम (वन-परितंत्र) हैं। इसका मुख्य कारण है इसकी ऊंचाई, सदाबहार प्रकृति और सबसे अलग-थलग रहने के कारण वहां पौधों और पशुओं की ऐसी बहुत सी प्रजातियां बड़ी संख्या में पाई जाती हैं, जो धरती पर कहीं और नहीं पाई जातीं। नीलगिरि के दलदल में पराग कणों के विश्‍लेषण से पता चला कि ये जंगल 35,000 वर्ष पहले भी मौजूद थे, तब से जब धरती पर इंसानों का प्रभाव महसूस भी नहीं किया गया था। इन जंगलों की ओर शायद ही किसी का ध्यान जाता है लेकिन ये दक्षिण भारतीय समुदायों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। शोला वन वर्षा के अधिकांश जल को रोक लेते हैं और पूरे साल नदियों के रास्ते उसे धीरे-धीरे छोड़ते हैं। इससे दक्षिण भारत की अधिकांश जनसंख्या की पानी की जरूरत पूरी होती है। कई दक्षिण भारतीय राज्यों में पानी को लेकर होने वाले विवादों को देखते हुए यह खास तौर पर महत्वपूर्ण हो जाता है।

गायब होते पेड़

पर्यावरणी और आर्थिक लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद, इन जंगलों को ऐतिहासिक रूप से सुरक्षित नहीं किया गया है। शायद इसलिए क्योंकि बौने, कम विकसित पेड़ों की लकड़ी की कोई कीमत नहीं होती है। इस विशाल परितंत्र का केवल एक हिस्सा अब बचा हुआ है क्योंकि चाय बागानों और एकधान्य खेती (मोनोकल्चर) के लिए कई दशकों से बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जा रहे हैं।

जब आप ‘लुप्तप्राय’ शब्द सुनते हैं, तो आपका ध्यान जानवरों की ओर जाता हे। वर्तमान समय में जंतुओं की 10820 प्रजातियां संकटग्रस्त मानी गई हैं। लेकिन यह याद रखना भी महत्वपूर्ण है कि लुप्त होने का खतरा पौधों पर भी मंडराता है। पौधों की 9390 किस्मों को भी लुप्तप्राय माना गया है। सिर्फ भारत में, पेड़ों की 60 प्रजातियों को अत्यंत संकटग्रस्त और 141 प्रजातियों को संकटग्रस्त माना गया है।

कृषिवानिकी

इसका उपाय क्या है? उम्मीद है कि सरकारी नीतियों में एक जीते-जागते, हरे-भरे वन का आर्थिक महत्व और फलते-फूलते परितंत्र का पर्यावरण के क्षेत्र में असीम महत्व को समझा जाएगा। अपने सकल घरेलू उत्पाद की बैलेंस शीट में वनों का मूल्य शामिल करना एक असरदार कदम हो सकता है। दूसरे, लकड़ी की बढ़ती मांग को वैकल्पिक, स्थायी उपायों से पूरा किया जाना चाहिए। जंगल पर से दबाव कम करने का एक सबसे अच्छा तरीका कृषि योग्य भूमि पर इमारती लकड़ी के पेड़ उगाना है।

इसे कृषिवानिकी कहा जाता है। खेती वाली जमीन पर पेड़ उगाने के बहुत से फायदे हैं। यह खेती योग्य भूमी में फिर से पर्यावरण संतुलन लाता है, मिट्टी का कटाव और पानी का बहाव रोकता है, उस स्थान पर मौसम की उग्रता को कम करता है और इसके साथ ही आय का एक वैकल्पिक स्रोत तैयार हो जाता है। निश्चित रूप से उस खास इलाके के जलवायु को ध्यान में रख कर उपयुक्त पेड़ चुनना चाहिए और किसानों को कृषि वानिकी के फायदे समझाए जाने चाहिए। कृषि वानिकी को जहां पर भी ठीक से अपनाया गया है, वहां बहुत अच्छे नतीजे देखने को मिले हैं। ऐसी योजना से फायदा उठा कर अपनी पूरी कृषि भूमि को एक कृषि वन में बदल देने वाले किसानों की कमी नहीं है। ऐसे खेत अक्सर परितंत्र के कई स्तरों का मिश्रण होते हैं, जिसमें ऊंचे पेड़, बलखाती बेलें, मध्यम आकार की झाड़ियां और निचले स्तर पर जड़ी-बूटियों की एक साथ मौजूदगी होती है।

समाधानों की कमी नहीं है। उम्मीद है कि जनता और सरकार, दोनों इन कीमती जंगलों का विनाश रोकने के लिए जल्द से जल्द काम करेंगे।

प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स, ‘जीवन हेतु पेड़’( Trees for Life) परियोजना, किसानों की मदद करता है कि वो अपनी कृषि भूमि में पर्यावरण के लिहाज से और आर्थिक रूप से लाभदायक पेड़ों को उगा सकें। वृक्षारोपण में सहायता के लिए Give Isha पर जाएं।

wildxplorer@Flickr