इस श्रृंखला में हर महीने, ईशा के हमारे ब्रह्मचारियों और संन्यासियों में से एक, अपनी व्यक्तिगत पृष्ठभूमि, अपने विचार और अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि इस पवित्र पथ पर चलने का उनके लिये क्या महत्व है !

एक प्रतिबद्धता

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स्वामी नंदीकेशा : शिक्षक ने कक्षा की समाप्ति करते हुए, अत्यंत प्रेमपूर्वक पूछा, "इस दुनिया को आनंदपूर्ण, प्रेमपूर्ण और शांतिपूर्ण बनाने के लिये क्या आप प्रतिबद्ध हो सकते हैं"? मैंने अपने आप को जोर से कहते हुए सुना, "हाँ"! प्रतिबद्धता के इस जोश ने मेरे जीवन को हमेशा के लिये बदल दिया।

मैं अपने कुछ मित्रों के साथ वर्ष 1992 में ईशा योग कक्षा में शामिल हुआ था। हम उन दिनों के वो अनूठे नवयुवक थे जो हर नयी चीज़ को परख, सीख रहे थे, हरदम कुछ नया खोज रहे थे - सभी प्रकार की नयी बातें। इस कक्षा के बाद, कोयंबटूर के आसपास, विभिन्न शहरों में लगने वाली कक्षाओं में दीक्षा के दिन हमने वॉलिंटियरिंग करना शुरू किया और फिर हममें से कुछ, तिरुपुर में सद्गुरु द्वारा किये गये बीएसपी कार्यक्रम में भी शामिल हुए। उसमें कई बार मैं इतना अधिक ऊर्जावान हो जाता था कि लोटता, कूदता और चीखता रहता था। स्वयंसेवकों के लिये मुझे संभालना बहुत कठिन हो जाता था। लेकिन इसमें मजा भी बहुत आता था। मुझे याद है, ग्रुप फोटो के लिये मैं अपने मित्रों के साथ पहली पंक्ति में, बीच में ही था और फिर हमने सद्‌गुरु को खींच कर मेरी गोद में ही बैठा लिया। 1 जनवरी 1993 के दिन, मैं तिरुपुर में ही सम्यमा में शामिल हुआ। उन दिनों में सम्यमा के दौरान जब हम बहुत ज्यादा उत्तेजित हो जाते थे तो प्रक्रिया के बीच में ही सद्गुरु हमें हॉल से बाहर भेज देते थे। फिर, एक दिन मुझे स्थिरता का स्वाद भी मिल गया।

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उस दिन हमसे कहा गया कि हम पृथ्वी के किसी एक तत्व पर ध्यान करें। मैंने एक वृक्ष का चुनाव किया। मैं उस वृक्ष के साथ इतना अधिक जुड़ गया कि मेरे आसपास क्या हो रहा था, मुझे उसका कुछ बोध ही नहीं रहा। मेरी समझ में, उस समय, मेरे आसपास कोई आवाज़ भी नहीं थी। कुछ समय बाद मुझे लगा कि किसी ने मेरे कंधे पर थपकी दी, "चलो, हम अंदर चलें", मुझे अपने पीछे से सद्‌गुरु की नरम आवाज़ सुनायी दी। जब मेरा ध्यान सद्गुरु की ओर गया तब मुझे ऐसा लगा कि वृक्ष के साथ मेरा जुड़ाव टूट गया था। बहुत प्यार से अपने दोनों हाथ उस वृक्ष की ओर बढ़ाते हुए मैंने उसे पकड़ने का प्रयत्न किया और रोने लगा, "ये मरम, ये मरम (ये वृक्ष, ये वृक्ष)"। सद्‌गुरु ने मुझे प्रेम से पकड़ा और अंदर ले गये। उन्होंने मुझे कहा कि मैं कुछ खा लूँ क्योंकि मैं भोजन करने भी नहीं गया था। मेरे जीवन में यह पहली बार था जब मुझे लगा कि जैसे मैं किसी अन्य जीवन में पूरी तरह से समा गया था।

वर्ष 1993 के आते आते, हमारा मित्रों का समूह अत्यंत सक्रिय रूप से वॉलिंटियरिंग कर रहा था। 1994 के शुरू में ही सद्‌गुरु ने एक 90 दिन का होलनेस कार्यक्रम घोषित किया। चूंकि मैं कॉलेज के पहले वर्ष में था, मैं उस कार्यक्रम में शामिल न हो सका, पर हम सभी अन्य प्रतिभागियों की सहायता करने के लिये आते थे। 12 जुलाई को, जिस दिन कार्यक्रम शुरू होने वाला था, भारी वर्षा के साथ भयंकर तूफान आया। ईशा योग सेंटर के पास के एक गांव इरत्तु पल्लम के पास से निकलने वाली एक छोटी नदी में भारी बाढ़ आ गयी, तो हमने प्रतिभागियों के लिये एलेनदुरै में रहने की व्यवस्था की। कार्यक्रम अगले दिन ही शुरू हो सका। मेरा एक मित्र उसमें प्रतिभागी था और बाकी के हम वॉलिंटियरिंग के लिये कई बार आश्रम आये।

फ्रिसबी का खो जाना

वर्ष 1996 में मेरे कुछ मित्र ध्यान यात्रा (हिमालय तीर्थ यात्रा) पर जा रहे थे और मैं उन्हें विदा करने के लिये रेलवे स्टेशन गया था। मैं जब ट्रेन के अंदर पहुँचा तो वे सब अपनी अपनी जगह पर बैठे थे और हमें पता चला कि अंतिम समय में कुछ लोगों ने जाना रद्द कर दिया था, अतः कुछ सीटें अभी भी उपलब्ध थीं। मेरे मित्रों ने मुझसे पूछा, "तुम हमारे साथ क्यों नहीं चलते"? ज्यादा सोचे बिना मैं तैयार हो गया। मैं ट्रेन में था, 15 दिन की यात्रा पर जा रहा था और मेरे पास कपड़ों की कोई अतिरिक्त जोड़ी भी नहीं थी, गरम कपड़े नहीं, जूते भी नहीं, कुछ नहीं। हाँ, पर मित्रों की सहायता से इस सब का आसानी से प्रबंध हो गया, और यात्रा तो बहुत मजे की रही।

हम जब भी कहीं पर भी रुकते, सद्‌गुरु हमारे साथ फ्रिसबी खेलते। मैं अधिकतर बस खड़ा ही रहता क्योंकि मुझे तो फ्रिसबी को सही ढंग से पकड़ना भी नहीं आता था। एक बार, शायद ऋषिकेश में सद्‌गुरु ने मुझे बुलाया और उसे कैसे फेंकते हैं, ये सिखाने लगे। कुछ ही मिनटों बाद मैंने उसे ऊपर, हवा में फेंका तो वो काफी आगे उड़ती हुई गयी और पास के घने जंगल में कहीं गिर गयी। सद्‌गुरु ने मुझसे कहा, "मैंने ज़रा दूसरी तरफ क्या देखा, तुमने उसे फेंक भी दिया", वे समझ गये थे कि अब हम उसे वापस नहीं ला पायेंगे। मैं उसे ढूंढने के लिये दौड़ा पर उसका कोई फायदा नहीं हुआ। मैं बहुत शर्मिंदा हुआ, और बस में बैठने के बाद भी मेरा रोना रुक नहीं रहा था। "एक यही चीज़ थी जिसके साथ सद्‌गुरु खेलते थे और मैंने उसे भी खो दिया" ऐसा लगातार सोच सोच कर मैं रोता रहा। फिर अचानक मेरे मन में विचार आया, "ठीक है, ये सब चीजें गुरु के लिये बहुत महत्वपूर्ण नहीं होतीं"! और उसके बाद मैं शान्त हो गया।

ध्यानलिंग निर्माण की गहनता

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हमारा जीवन बहुत सारे तरीक़ों से सद्‌गुरु तथा ईशा की गतिविधियों के चारों ओर ही घूमता था, पर किसी भी कारण से मुझे यह विचार नहीं आया कि अब मुझे आश्रम में ही आ जाना चाहिये। वर्ष 1997 तक मैंने मेकेनिकल इंजीनियरिंग डिप्लोमा पूरा कर लिया था और तीन कारोबार शुरू किये, पर वॉलिंटियरिंग करता रहा। जब भी विषय निकलता तो हम एक दूसरे से कहते, "एक आनंदपूर्ण व शांतिपूर्ण दुनिया बनाने में यही हमारा योगदान है"। जब सद्‌गुरु ने ध्यानलिंग पर काम शुरू किया, हममें से किसी ने भी इसे किसी धार्मिक काम के रूप में नहीं लिया। हमें बस यही लगता था कि सद्‌गुरु जो कुछ भी कर रहे थे वो लोगों की भलाई के लिये ही था।

चूंकि मैंने इंजीनियरिंग की हुई थी तो मुझे भी ध्यानलिंग के निर्माण कार्य में सहयोग देने के लिये बुलाया जाता था, जिससे मुझे बहुत खुशी होती थी। एक ऐसा ही महत्वपूर्ण दिन था, 14 फरवरी 1998, जब लिंग को आवुडयार पत्थर पर जोड़ा जाना था। उसके एक दिन पहले मैं आश्रम गया था और मैंने लिंग पर तथा तांबे के उस बर्तन पर जिसमें लिंग रखा जाना था, कुछ ज़रूरी निशान लगाये थे। शाम को अपने बिज़नेस पार्टनर के भाई की शादी के लिये मैं कोयंबटूर गया था। अगले दिन, दोपहर 3.30 बजे, जब मैं आश्रम वापस आने के लिये तैयार हो रहा था, हमें समाचार मिला कि शहर में एक शक्तिशाली बम विस्फोट हुआ था। अगले 40 मिनटों में ऐसे ही 5 विस्फोट और हुए। इन विस्फोटों में लगभग 50 लोग मारे गये और बहुत सारे घायल हुए। शहर के बहुत से भागों में कर्फ्यू लगा दिया गया। मैं नियत समय में आश्रम कैसे पहुँचूँ, यही सवाल मेरे मन में छाया था। अंत में मैं अपने को रोक न सका और लगभग 5 बजे सिंगनलरूर से आश्रम की ओर जाने के लिये निकल पड़ा।

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गलियाँ और रास्ते उस समय तक वीरान हो गये थे पर फिर भी परिस्थिति काफी अस्तव्यस्त थी क्योंकि अभी और ज्यादा विस्फोट होने का भी खतरा था। मुझे कई एम्बुलेंस इधर उधर आती जाती दिख रहीं थीं और रास्तों पर खून बिखरा था, कई भवनों और वाहनों को नुकसान हुआ था। बहुत से रास्ते बंद कर दिये गये थे और मैं लगातार सोच रहा था कि आश्रम तक का रास्ता कैसे मिलेगा? जब मैं गाँधीपुरम के पास था और निराशा बढ़ रही थी, तभी एक व्यक्ति मेरे पास आ कर लिफ्ट माँगने लगा। उसे वीराकेरलम जाना था जो आश्रम के रास्ते में ही था। मैंने चुपचाप उसे अपने पीछे बैठा लिया। उसे सभी रास्ते अच्छी तरह से मालूम थे और अगले 1 घंटे में मैं आश्रम पहुँच गया, प्रक्रिया शुरू होने से ठीक पहले।

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प्रक्रिया बहुत अच्छी तरह से हुई। बाद में मुझे पता चला कि पिछले दिन, जब हम शाम के खाने के लिये बैठ रहे थे तब सद्‌गुरु ने पहली बार किसी से मेरे बारे में पूछा था, "वो लड़का कौन है"?

मैं उनके पास बैठा, संतरों को छीला और हर एक फाँक को साफ कर के उनके लिये एक थाली में रखता गया। सद्‌गुरु एक एक फाँक को धीरे धीरे खा रहे थे, जैसे वे उनका भरपूर स्वाद ले रहे हों।

सक्रिय रूप से वॉलिंटियरिंग कर रहे मेरे एक मित्र ने एक दिन सुझाया कि अब हमें पूर्णकालिक रूप से आश्रम आ जाना चाहिये। बिना कुछ ज्यादा सोचे, मैंने हाँ कह दिया। मैं जिन तीन कारोबारों को चला रहा था, उनको मैंने बंद करने का निर्णय किया। बंद करने की प्रक्रिया काफी उलझनभरी, मुश्किल थी पर सद्‌गुरु की कृपा से और आश्रम के सहयोग से ये भी हो गया। ये बहुत आश्चर्यजनक था कि उन दिनों, मैंने जो भी बड़े निर्णय लिये थे, उनके पीछे सद्‌गुरु के निकट जाने की ऐसी कोई खास इच्छा नहीं थी। मैं जानता था कि मैं जो कुछ भी कर रहा था, उसके पीछे की शक्ति सद्‌गुरु ही थे, पर मैं हमेशा उन गतिविधियों की गहनता से प्रभावित रहता था, जो उन्होंने लोगों की भलाई के लिये की थीं। वर्ष 2000 की महाशिवरात्रि के दिन, जब मुझे ब्रह्मचर्य की दीक्षा मिली, सिर्फ तभी मुझे अपनी आगे की आध्यात्मिक यात्रा की कुछ समझ आयी।

जब मुझे गुरु को खिलाने का मौका मिला

सद्‌गुरु के साथ बिताये हुए मेरे समय का एक सबसे अधिक हृदयस्पर्शी क्षण उन्हीं दिनों आया था! एक दिन मैं ट्रैंगल ब्लॉक में था और मैंने वहाँ सद्‌गुरु को आते देखा। उनको इधर, उधर कुछ ढूंढते देख कर मैं दौड़ते हुए उनके पास गया और मैंने उनसे पूछा कि वे क्या ढूँढ़ रहे थे? उन्होंने पूछा, "क्या हल्का खाने के लिये कुछ है"? सुबह का खाना समाप्त हो चुका था पर मैं दौड़ कर देखने के लिये गया। किसी तरह से मुझे कुछ संतरे मिले। मैं जानता था कि जब सद्‌गुरु कुछ खाने के लिये माँग रहे थे तो इसका मतलब था कि उन्होंने अपना पिछला खाना कई घंटों पहले खाया होगा। मुझे बहुत दुःख हुआ कि उन्हें खिलाने के लिये मुझे कुछ संतरे ही मिले थे। मैं उनके पास बैठा, संतरों को छीला और हर एक फाँक को साफ कर के उनके लिये एक थाली में रखता गया। सद्‌गुरु एक एक फाँक को धीरे धीरे खा रहे थे, जैसे वे उनका भरपूर स्वाद ले रहे हों। आज तक, उन्हें अपने हाथों से कुछ दे सकने का ये अवसर मेरे जीवन के सबसे बड़े क्षणों में से एक रहा है।

निर्माण कार्य और रखरखाव

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ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा के बाद स्वामी निसर्ग ने मुझे निर्देश दिये कि मैं मेनटेनेंस विभाग को सँभालूं। चूंकि उस समय हम लोग ज्यादा नहीं थे और हर चीज़ के लिये धन की व्यवस्था एकदम नपी तुली रहती थी, मेरे पास इसके सिवा कोई चारा नहीं था कि मैं हर चीज़ स्वयं ही सीखूँ और करूँ - कचरा प्रबंधन, बिजली का काम, प्लंबिंग, टेलीफोन आदि। उन दिनों, हम लोग हमेशा ही आश्रम का धन एवं संसाधन बचाने के लिये नये नये तरीके ढूंढते रहते थे, और हम जो कुछ भी कर रहे थे उसकी दक्षता बढ़ाने में लगे रहते थे। मुझे याद है कि एक बार दिन के दौरान हम पानी की टंकियाँ नहीं भर पाये थे क्योंकि बिजली विभाग हमें मोटर चला कर पानी की टंकियाँ भरने के लिये बिजली सिर्फ रात को 10 बजे के बाद ही देता था।

एक और बात ये थी कि उन दिनों हम पानी को एक से दूसरी जगह पर ले जाने के लिये एल्केथीन पाईप का प्रयोग करते थे जो महीने में दो तीन बार टूट जाते थे। और जब भी ऐसा होता था तो हमें कोयंबटूर से प्लम्बर लाना पड़ता था, जिसका अर्थ था ज्यादा धन एवं समय का खर्च होना और उन कई घंटों में पानी की आपूर्ति बंद हो जाती थी। उस समय भारत में पीवीसी पाईप लोकप्रिय हो रहे थे तो मैंने स्वामी निसर्ग के सामने सुझाव रखा कि हम आश्रम में पूरी पाईप लाइन व्यवस्था को एल्केथीन से पीवीसी में बदल दें। यद्यपि इसमें काफी ज्यादा काम था और खर्च भी बहुत होता पर वे इसके लिये तैयार हो गये। इससे, उन कुछ वर्षों के समय में, हमारी पानी की व्यवस्था कुछ हद तक स्थिर हो गयी।

बाद में मुझे आश्रम में हो रहे निर्माण कार्य को संचालित करने का काम भी दिया गया। हमारा पहला बड़ा काम था चित्रा ब्लॉक और फिर स्पंदा हॉल का निर्माण। चित्रा ब्लॉक के दरवाजे और खिड़कियाँ हम लोगों ने अपने नौसिखिया हाथों और दिमाग से स्वयं यहीं आश्रम में ही तैयार किये थे, और स्पंदा हॉल की निर्माण टीम का हिस्सा होना ही बहुत रोमांचित करने वाला था। हमें यह देख कर बहुत आश्चर्य होता था कि कैसे सद्‌गुरु बिना किसी विशेष प्रयत्न के, इस प्रकार के अद्वितीय, और साथ ही कम खर्च वाले डिज़ाइन बनाते थे - छत से ले कर, रास्तों और प्रवेश द्वार और पत्थर के साँपों तक - सब कुछ! हमारे पास एकदम सतर्क रह कर सीखने के सिवाय दूसरा कोई रास्ता नहीं था - ये आज भी सत्य ही है।

सद्गुरु के विश्वास को संभालने की जिम्मेदारी

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एक बार ऐसा हुआ कि मैं सद्‌गुरु के पीछे पीछे चल रहा था और वे दो राजनीतिक नेताओं से बात करते जा रहे थे। अचानक, पीछे मुड़ कर उन्होंने मुझसे पूछा, "आप कितने विभाग संभालते हैं, स्वामी?" "कुछ विभाग, सद्‌गुरु", मैंने जवाब दिया। "आप कितने लोगों के साथ काम करते हैं?" "शायद 100 - 150", मैंने कहा क्योंकि मैंने कभी गिनती नहीं की थी। "देखिये, नेता होने के लिये आप कोई असाधारण व्यक्ति हों, ये आवश्यक नहीं है। ज़रूरत बस प्रतिबद्धता की है और अपने हृदय में लोगों की खुशहाली की चाह बसाने की", उन्होंने मेरी तरफ इशारा करते हुए उन लोगों से कहा। इस छोटी सी घटना का मुझ पर गहरा असर पड़ा। कुछ सालों बाद मुझे ग्रुप कोऑर्डिनेटर (GC, ईशा की एक इकाई के प्रमुख) बनने की जिम्मेदारी दी गयी। तो सद्‌गुरु का ये सरल सा विश्वास मुझे अपने पैरों पर खड़ा रखे रहा और इसने मुझे यह जिम्मेदारी संभालने की घबराहट से बाहर आने में मदद की। कई प्रकार से, ये वही संस्कार हैं जिनके साथ मैं अन्य लोगों के साथ भी काम करता हूँ।

हम सब की अपनी कमज़ोरियाँ हैं। यदि सद्‌गुरु मुझे स्वीकार कर सकते हैं और मेरी कमज़ोरियों के बावजूद भी मेरे साथ काम कर सकते हैं, तो मैं कौन होता हूँ जो दूसरे लोगों के साथ काम करने के लिए मना करूँ?

मेरे काम में, मुझे जब निर्णय लेने होते हैं, उनके पीछे एक और बात मेरी मदद करती है और वो ये है कि ‘ईशा’ वह है जो सद्‌गुरु ने सारे संसार के लोगों की खुशहाली के लिये बनाया है। विशेष रूप से उन लोगों के लिये, जिन्होंने अपना वो सब कुछ पीछे छोड़ दिया है जो दुनिया उन्हें दे रही थी, और वे यहाँ, ईशा में अपने जीवन को समर्पित करने के लिये आ गये हैं। ये सिर्फ एक संस्था नहीं है। हम सब की अपनी कमज़ोरियाँ हैं। यदि सद्‌गुरु मुझे स्वीकार कर सकते हैं और मेरी कमज़ोरियों के बावजूद भी मेरे साथ काम कर सकते हैं, तो मैं कौन होता हूँ जो दूसरे लोगों के साथ काम करने के लिए मना करूँ? और मैंने यह भी देखा है कि अगर आप लोगों पर विश्वास करते हैं और उन्हें स्वतंत्रता देते हैं, तो चाहे उनकी वर्तमान विवशतायें कुछ भी हों, वे आश्यर्चचकित कर देने वाले परिणाम आप को देंगे। इसका अर्थ ये नहीं है कि जब ज़रूरत हो तब मैं कड़े निर्णय नहीं लेता, परंतु सद्‌गुरु की कृपा से मेरे मन में कम से कम ये बात विकसित हो गयी है कि चाहे कुछ भी हो, मैं किसी भी व्यक्ति में सम्पूर्ण विश्वास नहीं खो देता।

इस बारे में एक उदाहरण है जो मुझे याद है। कई साल पहले, मुझे एक सेवादार के विरुद्ध कई शिकायतें मिली थीं, जो कुछ गलत काम कर रहा था। कई बार चेतावनियाँ देने के बाद भी जब कोई फर्क नहीं पड़ा, तब मुझे उसके व्यवहार के परिणामों को उसके सामने स्पष्ट करते हुए, उसे आश्रम छोड़ देने के लिये कहना पड़ा। तब वो दुःखी दिखायी दिया और मुझे भी खराब लग रहा था। कुछ सालों बाद, एक बार मैं ध्यानलिंग से बाहर आ रहा था, तो एक व्यक्ति मेरे पास इस तरह दौड़ते हुए आया जैसे कि हम पुराने मित्र हों। मैं उसे पहचान नहीं पाया, पर वो बोला, "स्वामी, क्या आप मुझे पहचानते हैं? आप ने मुझे मेरे काम से निकाल दिया था और तब मुझे समझ में आया कि मैं जो कुछ कर रहा था वो ठीक नहीं था। इससे मुझ पर इतना असर हुआ कि मैंने अपने आप को सही करने के लिये बहुत काम किया। अब मेरे पास दूसरी जगह एक अच्छी नौकरी है और मैं खुश हूँ। इस तरह उसने अपनी सरल से तरीक़े से, अपनी कृतज्ञता व्यक्त की और मुझे बहुत अच्छा लगा कि मैंने उस समय एक सही निर्णय लिया था।

GC की एक जिम्मेदारी के रूप में मुझे लगातार सद्‌गुरु के संपर्क में रहना पड़ता है जिससे उनका मार्गदर्शन पा सकूँ और उनके कार्य में सहयोग दे सकूँ। सद्‌गुरु के बारे में एक बात जो मुझे हमेशा अचंभित करती है वो ये है कि वे कैसे अद्भुत सर्व समावेशी हैं, कैसे वे अपने आप को एक खास तरीके से रख पाते हैं, चाहे उनके आसपास की परिस्थिति कैसी भी हो, और वे किस प्रकार की विभिन्न गतिविधियाँ कर रहे हैं? ईशा के विरुद्ध गलत तरह के आरोप लगाने वाले लोग भी जब सद्‌गुरु के पास किसी बहाने से मिलने आते हैं तब भी मैंने सद्‌गुरु को कोई भी प्रतिरोध करते हुए नहीं देखा। वे कहते हैं, "मेरा काम विश्व के 710 करोड़ लोगों के साथ है और ये लोग भी मनुष्य ही हैं। इनके साथ कुछ ज्यादा काम करने की ज़रूरत है, बात बस यही है! कभी कभी, वे सारा सारा दिन, एक के बाद एक बैठकें करते रहते थे। उनको इतना काम करते देख कर मेरा दिल दुखता था। पर सब कुछ होने के बाद, दिन के अंत में, सद्‌गुरु वैसेही होते थे और अपने घर में अपने कुत्तों से वैसे ही उत्साह से मिलते, जैसे रोज करते हैं।

सद्गुरु के साथ होना

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लोगों के लिये सद्‌गुरु की चिंता को देख कर मन अभिभूत हो जाता है। हाल ही में, एक दिन उन्होंने सारी ध्यानलिंग टीम के साथ सर्प वसल होते हुए आदियोगी तक की पदयात्रा की। मार्ग में उनका ध्यान बहुत सी चीजों की ओर गया जहाँ कुछ करने की ज़रूरत थी, वे मुझे बताते गये। जब तक हम आदियोगी पहुँचे, सूची काफी लंबी हो गयी थी। फिर वे आदियोगी के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गये और झुक कर प्रणाम करते हुए हमसे बोले, "यहाँ जो कुछ हो रहा है, वह मानवता के लिये बहुत महत्वपूर्ण है और मैंने यह सब अब आप लोगों के हाथों में छोड़ दिया है। कृपया इसको संभालिये"। उनको यह कहते सुन कर मुझे अपने आँसू रोकना मुश्किल हो गया।

सद्‌गुरु ने कहा, "यहाँ जो कुछ हो रहा है, वह मानवता के लिये बहुत महत्वपूर्ण है और मैंने यह सब अब आप लोगों के हाथों में छोड़ दिया है। कृपया इसको संभालिये"।

आदियोगी की प्राणप्रतिष्ठा के समय से ईशा की गतिविधियाँ कई गुना बढ़ गयी हैं। यद्यपि ये बहुत सौभाग्य की बात है कि हजारों लोग रोज आदियोगी और आश्रम में आ रहे हैं, परंतु कई बार आश्रम में हम जितने लोग हैं, उनके लिये इस सब का प्रबंधन करना बहुत कठिन हो जाता है। पर सद्‌गुरु का हम से यह कहना, हमारे लिये बहुत बड़ी बात थी। हमें हमारे दल में और लोगों को दिये जाने वाले काम में कुछ परिवर्तन करने पड़े। अचानक से हुए ऐसे बदलाव हमारे आसपास के लोगों को दुःखी कर सकते हैं। पर यहाँ, यह देखना बहुत ही अद्भुत है कि अंत में सभी लोग हर चीज़ को स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि हम सब यहाँ एक ही उद्देश्य से काम कर रहे हैं - एक ही कार्य - लोगों की खुशहाली!

सद्‌गुरु के साथ होना आप को ऐसी परिस्थिति में भी ला देता है, जो आप को नहीं सुहाती। मेरे लिये एक ऐसा ही काम है उनके आसपास घूम रहे साँपों से निपटना। सद्‌गुरु मुझे कई बार मेरे साँपों से डरने के बारे में चिढ़ाते हैं और मुझे उनको संभालना सीखने के लिये कहते रहते हैं। अभी हाल ही में एक 6 फुट का साँप सद्‌गुरु के बाथरूम में घुस गया था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ ? तो मैं इसके बारे में बताने के लिये सद्‌गुरु के पास गया। "तुम उसे बस पकड़ कर बाहर क्यों नहीं निकल देते", उन्होंने पूछा! मैं हिला भी नहीं! वे मेरी ना को समझ गये और स्वयं उस साँप को उठाने के लिये गये। अभी हाल के एक दर्शन में, जब सद्‌गुरु ने एक स्वामी के बारे में बताया कि उनके साथ इतने दिनों रहने के बाद भी साँपों को संभालना नहीं सीख सके थे तो वे मेरे ही बारे में बात कर रहे थे। ये भी एक अजीब संयोग है कि उसी सुबह स्वामी हकेश ने मुझे बगीचे का एक छोटा सा साँप हाथ में पकड़ने के लिये दिया था। बड़ी मुश्किल से हाथ आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा था, "मुझे अब साँपों को संभालना सीख ही लेना चाहिये"। उसी शाम को सद्‌गुरु ने भी मेरी इसी कमज़ोरी का जिक्र किया। तो आजकल मैं ये प्रयत्न कर रहा हूँ।

यद्यपि हम सद्‌गुरु के साथ इतनी निकटता से काम करते हैं, मैं सद्‌गुरु को एक व्यक्ति के रूप में नहीं देखता - मेरे लिये तो वे स्वयं शिव हैं। मैं अपने आप को बहुत सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मैं इस प्राणप्रतिष्ठित स्थान में रहता हूँ जो उनके जीवन की ऊर्जा से भरा हुआ है। आज मैं जो कुछ भी जानता हूँ, आज मैं जो कुछ भी कर सकता हूँ, वो सब मैंने यहाँ सद्‌गुरु से ही सीखा है और उन लोगों से भी जो मेरे साथ इस पवित्र यात्रा पर हैं।

Editor's Note: Watch this space every second Monday of the month as we share with you the journeys of Isha Brahmacharis in the series, "On the Path of the Divine."