काशी क्यों
इस हफ्ते का स्पॉट सद्गुरु काशी से लिख रहे हैं "जो लोग मुझे एक लंबे अर्से से जानते हैं, वे यह सोचने लगे हैं- ‘सद्गुरु काशी यात्रा पर क्यों जा रहे हैं? जैसे जैस उनकी उम्र बढ़ रही ...
जो लोग मुझे एक लंबे अर्से से जानते हैं, वे यह सोचने लगे हैं- ‘सद्गुरु काशी यात्रा पर क्यों जा रहे हैं? जैसे जैस उनकी उम्र बढ़ रही है, उनका दिमाग हल्का होता जा रहा है।’ तो अब यह काशी क्यों?
मूल रूप से जीवन या अस्तित्व को देखने के दो तरीके हैं। पहला तो यह, जिसमें लोगों को लगता है कि कही कोई ईश्वर होगा और जब उसके पास करने के लिए कुछ नहीं होगा तो वह एक सृष्टि की रचना किया होगा। यह तो एक सोच हुई। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि लोग ईश्वर को एक अतींद्रिय या भावातीत चीज समझते हैं। जिसमें माना जाता है कि सृष्टि की रचना से उनका कोई संबंध नहीं है, यह तो ऐसी चीज है, जो उससे स्वयं ही निकली है। जबकि सृष्टि की रचना से जुड़ी दूसरी सोच है कि कॉस्मोजेनिक यानी ब्रम्हांडोत्पन्न या ब्रम्हांड से उत्पन्न। दरअसल, कॉस्मोजेनिक शब्द दो शब्दों कॉस्मॉस ओर जेनेसिस से मिलकर बना है। ग्रीक भाषा में कॉस्मॉस का शाब्दिक अर्थ होता है ‘व्यवस्थित किया गया’, जबकि जेनेसिस का मतलब है प्रारंभ या उत्पत्ति। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि सृष्टि की रचना किसी आकस्मिक या बेतरतीब ढंग से न होकर एक पूरे योजनाबद्ध तरीके से हुई है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है, जो किसी के मुख या हाथ से निकली हो, बल्कि इसे पूरे सोच-विचार के साथ बनाया गया है। कोई भी व्यक्ति सृष्टि को अगर गौर से देखेगा तो उसे साफ समझ में आ जाएगा कि ये सब कुछ अपने आप किसी बेढंगे तरीके से नहीं हुआ है, बल्कि यह एक उत्पत्ति या विकास प्रक्रिया के तहत हुआ है, जो इसके भीतर से ही उपजी है।
योगियों ने जब ब्रम्हांड की अपने भीतर से विकसित होने की इस प्रकृति या खूबी को देखा और जाना कि इसके विकसित होने की क्षमता असीमित है तो वह लोग इसे अपनाने के लिए लालायित हो उठे। इसके तहत देश के कई हिस्सों के साथ-साथ दुनिया के कुछ कोनों में भी ऐसी जबरदस्त काशिशें हुईं, इस सिलसिले में आपको डेल्फी देखना चाहिए, जहां उन्होंने एक लघु काशी खड़ा कर दिया है। मौलिक रूप से अगर देखा जाए तो इस सृष्टि में जो भी चीज मौजूद है, वह किसी न किसी रूप में इस ब्रम्हांड का एक लघु प्रतिरूप ही है, इंसानी शरीर के साथ भी यही लागू होता है। अस्तित्व में मौजूद हर चीज इस ब्रम्हांडीय संभावना का एक सूक्ष्म रूप है। इसी सिद्धांत के आधार पर कई चीजें की जा चुकी हैं।
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काशी शहर को एक ऐसे उपकरण के रूप में तैयार किया गया है, जो स्थूल और सूक्ष्म को जोड़ता है। मानव रूपी इस लघु प्राणी में ब्रम्हांडीय यथार्थ के साथ सामंजस्य बैठाने, सुख और परम आनंद को जानने, और ब्रम्हांडीय प्रकृति के साथ एकाकार करने की जबरदस्त संभावना है। ज्यामितीय ढंग से देखें तो काशी अपने आप में इस चीज का सर्वश्रेष्ठ उदाहारण है कि कैसे ब्रम्हांड व सूक्ष्म ब्रम्हांड जुड़ सकते हैं। उदाहरण के लिए ध्यानलिंग (ईशा योग केंद्र में सद्गुरु द्वारा स्थापित) भी अपने आप में उस ब्रम्हांड का लघु रूप है, लेकिन चूंकि हमारी अपनी सीमाएं थीं, इसलिए हम उस ब्रम्हांड का एक छोटा कैप्सूल रूप ही बना सके। अगर कोई व्यक्ति उस अपरिमित के प्रति खुलने के लिए तैयार है तो यह अनंत तक खुलने के लिए तैयार है, क्योंकि यह ऐसा जरिया है, जो इंसान के लिए चरम संभावनाओं के द्वार खोलता है।
काशी जैसी नगरी को बनाने के एक पागलपन या जूनन जैसी महत्वाकांक्षा चाहिए और उन लोगों ने आज से हजारों साल पहले यह कर दिखाया। इस नगरी में 72000 मंदिर या तीर्थ स्थान थे, जितनी हमारे शरीर में नाड़िया होती हैं। इसकी पूरी प्रक्रिया ऐसी है मानो एक विशाल इंसानी शरीर किसी बड़े ब्रम्हांडीय शरीर से संपर्क बनाता है। इसी वजह से इस परंपरा की शुरुआत हुई कि अगर आप काशी जाते हो तो फिर वहां सब कुछ है। काशी जाने के बाद आपको उसे छोड़ने की जरूरत नहीं है, क्योंकि जब एक बार आप उस ब्रम्हांडीय प्रकृति से जुड़ जाते हैं तो फिर आप कहीं और क्यों जाना चाहेंगें?
काशी के बारे में प्रचलित किंवदंतियां सौ फीसदी तक इसी सिद्धांत पर आधारित हैं कि यहां खुद शिव का वास रहा है। कहा जाता है कि यह उनका जाड़े का ठिकाना हुआ करता था। पहले वह संन्यासियों और तपस्वियों की तरह हिमालय के ऊपरी भाग में रहा करते थे, लेकिन जब उनकी शादी एक बार राजकुमारी से हो गई तो फिर उन्हें भी कुछ समझौते करने पड़े। एक शिष्ट व सभ्य पुरुष की तरह उन्होंने भी तय किया कि वह मैदानी इलाके में रहेंगे और तब उन्होंने काशी को चुना, क्योंकि काशी उस समय की सबसे भव्य बसी हुई नगरी थी।
शिव के बारे में एक रोचक कहानी है। कुछ राजनैतिक कारणों के चलते शिव को काशी छोड़नी पड़ी। दरअसल, देवताओं को भय सताने लगा कि अगर काशी को ठीक तरह से संभाला नहीं गया तो यह अपना महत्व खो देगी, इसलिए उन सबने मिलकर दिवोदास से कहा कि तुम यहां के राजा बन जाओ और काशी की देखभाल करो। दिवोदास ने देवताओं की बात तो मान ली, लेकिन साथ ही अपनी एक शर्त भी रख दी। दिवोदास का कहना था, ‘अगर मैं राजा बनता हूं तो शिव को काशी छोड़कर जाना होगा, उनके आसपास रहते बतौर राजा मैं काम नहीं कर पाऊंगा। क्योंकि लोग हर वक्त उन्हें ही घेरे रहेंगे और उन्हीं की बात सुनेंगे।’ इस पर शिव पार्वती को लेकर मंदार पर्वत पर जाकर रहने लगे। हालांकि वह वहां रहना नहीं चाहते थे। शिव वापस काशी आना चाहते थे, इसलिए उन्होंने पहले अपने दूत वहां भेजे। दूत काशी पहुंचे, लेकिन उन्हें काशी इतनी भा गई कि वे वापस ही नहीं गए। उसके बाद शिव ने 64 अप्सराओं को भेजा और उनसे कहा, ‘तुम सब मिलकर किसी तरह राजा को पथभ्रष्ट करो। एक बार हमें उसमें कोई खोट मिल गया तो फिर हम उसे अपना बोरिया बिस्तर लपेट वहां से जाने के लिए कह सकते हैं। और फिर मैं वापस आ जाऊंगा।’ अप्सराएं आईं और उन्होंने काशी के समाज को पूरी तरह से घेर लिया। वे समाज को भ्रष्ट करना चाहती थीं, लेकिन उन्हें भी वो जगह इतना भा गई कि वे सब काशी के मोह में गिरफ्त हो गई। इसमें वह अपना मकसद ही भुला बैठीं और अंत में सब वहीं बस गईं। उसके बाद शिव ने सूर्य को भेजा। सूर्य को भी वह जगह ऐसी पसंद आई कि वह भी वापस नहीं गए। काशी में बने सभी सूर्य या आदित्य मंदिर उन्हीं की याद में बने हैं। सूर्य जब शिव द्वारा दिए गए अपने मकसद को पूरा नहीं कर पाए तो काशी के प्रति अपने प्रेम और अपनी जिम्मेदारी पूरी न करने पर वह इतने शर्मिंदा हो उठे और डर गए कि वह दक्षिण की ओर घूमकर हल्का सा एक ओर झुक गए और फिर वहीं बस गए। फिर शिव ने ब्रम्हा को भेजा। ब्रम्हा भी काशी आए और इसके मोह में ऐसे घिरे कि वापस जाना ही भूल गए। तब शिव ने कहा, ‘मैं इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं कर सकता।’ और फिर उन्होंने अपने दो सबसे भरेासेमंद गणों को वहां भेजा। वे दोनों काशी आए तो, लेकिन वे अपना मकसद नहीं भूले। हालांकि इन दोनों को भी काशी इतनी पंसद आई कि वे सोचने लगे कि ‘शिव के लिए मंदार पर्वत नहीं, बल्कि यही वो असली जगह है, जहां उन्हें रहना चाहिए।’ उसके बाद वे काशी नगरी के द्वारपालक बन गए। अंत में शिव ने गणेश और अपने एक और गण को काशी भेजा। इन दोनों ने आते ही काशी नगरी की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। ये लोग उस नगरी को फिर से संवारने सजाने लगे, उसकी रक्षा करने लगे। उन्होंने सोचा, चूंकि शिव को तो हर हाल में यहां आना है, इसलिए वापस मंदार पर्वत पर जाने का कोई मतलब नहीं है। उधर दिवोदास भी मुक्ति के फेर में पड़ गए। उन्हें कोई भी चीज पथभ्रष्ट नहीं कर सकी, लेकिन उनके भीतर मुक्ति की चाह ऐसी बढ़ी कि वे अंत में मुक्ति को प्राप्त हुए। उनके जाने के बाद शिव वापस काशी लौट आए।
ये सारी कहानियां हमें बताती हैं कि कैसे-कैसे दिव्य लोगों के मन में यहां बसने की चाहत रही है। हालांकि इसके पीछे किसी तरह का आनंद या उनकी लिप्सा नहीं थी, बल्कि वे असीम संभावनाएं हैं, जो यह नगरी किसी इंसान को पेश करती है। यह शहर कोई रहने का ठिकाना या आशियाना नहीं था, बल्कि अपनी सभी सीमाओं और बंधनों से बाहर निकलने की एक प्रणाली थी। यह ऐसी पद्धति थी, जिसके जरिए यह छोटा सा इंसान रूपी जीवधारी, ब्रम्हांड रूपी बृह्द रचना से जुड़ सकता था।