गुरु पूर्णिमा: मानवता को मिली नई दिशा
इस हफ्ते के स्पॉट में सद्गुरु बता रहे है कि आदिगुरु ने गुरु पूर्णिमा के दिन मानवता को भेंट की एक नई संभावना। एक नई सोच, एक नया विज्ञान...
गुरु पूर्णिमा की यह रात हमारे प्रथम गुरु, आदिगुरु की रात के रूप में जानी जाती है। मानव इतिहास में पहली बार आज के ही दिन मानव जाति को याद दिलाया गया था कि उनका जीवन पहले से तय नहीं हैं। अगर मेहनत करना चाहे तो अस्तित्व का हर दरवाजा इंसान के लिए खुला है। ज़रूरी नहीं कि इंसान साधारण-से कुदरती नियमों के दायरे में बंद रहे। सीमाओं का बंधन इंसान की सबसे बड़ी तकलीफ है। हिंदुस्तान और कुछ हद तक अमेरिका में हम जेलों में बंदियों के लिए प्रोग्राम करते रहे हैं और हर बार जेल के अंदर घुसते ही मुझे वहां की हवा में दर्द का अहसास हुआ है। ऐसा अहसास जिसका मैं कभी बयान नहीं कर सकता। मैं बहुत भावुक किस्म का इंसान नहीं हूं लेकिन ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि वहाँ जाकर मेरी आंखों में आंसू न उमड़े हों क्योंकि वहां की हवा में बेइंतहा दर्द है। यह सीमाओं में बंद रहने का दर्द है।
सीमाओं में कैद इंसान को किसी भी अन्य प्राणी से ज़्यादा तकलीफ होती है। इस बात को जान कर और इंसान के इस बुनियादी गुण को समझ कर ही आदियोगी ने मुक्ति की बात कही थी। हमारी संस्कृति ने मुक्ति को सबसे ऊंचा और एकमात्र लक्ष्य माना है। ज़िंदगी में आपके हर काम का मकसद सिर्फ परम मुक्ति होता है। चाहे कोई भी कारण आपको सीमाओं में बंद रखे– जेल के सुरक्षाकर्मी, शादी, स्कूल के शिक्षक या महज कुदरती नियम- सीमाओं में बंद रहना इंसान को ज़रा भी नहीं सुहाता, क्योंकि उसकी सहज चाहत मुक्ति की ही होती है। कुछ हज़ार साल पहले आज ही के दिन आदियोगी ने पहली बार सभी बंधनों से परे जाने के रास्ते दिखाये।
Subscribe
वे दार्शनिक सिद्धांतों का बखान नहीं कर रहे थे और न ही कोई धार्मिक कट्टरता सिखा रहे थे। वे एक वैज्ञानिक विधि की बात कर रहे थे जिसके जरिये आप उन सीमाओं को मिटा सकते हैं जो कुदरत ने इंसानी ज़िंदगी के लिए बनायी हैं। हम जो भी सीमा रेखा खींचते हैं शुरू में उसका मकसद होता है हिफाज़त, लेकिन आगे चल कर अपनी हिफाज़त और आत्मरक्षा की ये सीमाएं हमारे ही कैद की दीवार बन जाती हैं। इन सीमाओं का कोई एक रूप-रंग नहीं है; इन सीमाओं ने बहुत-से जटिल रूप ले लिये हैं। ये महज मनोवैज्ञानिक सीमाएं नहीं हैं बल्कि आपकी हिफाज़त और खुशहाली के लिए बनी कुदरती सीमाएं हैं। इंसान की प्रकृति ऐसी है कि उसको बंधन की सीमाओं के परे गए बिना उसे सच्ची खुशहाली का अहसास नहीं होता। इंसान की दशा अजीब है – मुसीबत में होने पर वह अपने चारों ओर किले की सुरक्षा चाहता है, लेकिन खतरा टलते ही चाहता है कि ये किले गिर जायें, ग़ायब हो जायें। अपनी हिफाज़त के लिए अपने ही द्वारा खड़े किये गये किले जब हमारे चाहने पर गिर कर गायब नहीं होते तब हम इनके अंदर बंदी जैसा महसूस करने लगते हैं और हमारा दम घुटने लगता है।
बंधन के इन किलों को अपने लक्ष्य के पाने में इस्तेमाल करना और ज़रूरत न होने पर इनको गिरा देने की काबिलियत रखना - यही शिव की शिक्षा थी। कैसे बनायें ऐसा जादुई किला जिसको कोई दुश्मन भेद न सके पर आप जब चाहें इस पार से उस पार आ-जा सकें? शिव ने बहुत-से आश्चर्यजनक तरीके बताये। बदकिस्मती से मुट्ठी-भर इंसान भी ऐसे नहीं हैं जो अपनी बंधनों की प्रकृति को समझने और उससे बाहर निकलने के तरीकों की खोज करने के लिए ज़रूरी एकाग्रता, धैर्य और दिलचस्पी रखते हों। लोग सोचते हैं कि नशीली दवाएं ले कर, सिगरेट पी कर, अच्छा खा कर या फिर अच्छी नींद ले कर इस बंदिश से छूट जायेंगे। सृष्टि के तरीके इतने सरल नहीं है। यह हिफाज़त का कितना अनोखा डिज़ाइन है! पर जो इंसान नहीं देख पाता कि यह अंदर और बाहर दोनों तरफ से बंधन है वह इसका मकसद नहीं जान पाता, क्योंकि वह कभी बाहर जा ही नहीं पाया है।.
गुरु पूर्णिमा का दिन इस बात का उत्सव मनाने के लिए है कि आज के ही दिन पहली बार मानव जाति के लिए ऐसी नयी सोच, ऐसा असाधारण काम शुरू हुआ। मैं आदियोगी के आगे उनकी महानता के लिए सिर झुकाता हूं पर आदियोगी की सराहना से ज़्यादा मेरी सराहना उन सात ऋषियों के लिए है जिन्होंने खुद को इतना ऊंचा उठाया कि आदियोगी उनको नज़र-अंदाज़ न कर सके। मुझे नहीं लगता कि किसी दूसरे गुरु को ऐसे सात लोग मिल पाये जिनके साथ वे हर मनचाही चीज़ साझा कर पाते और जो इतने काबिल होते कि उनकी बतायी हर चीज़ को ग्रहण कर पाते। अनेक योगियों और गुरुओं को बहुत अच्छे शिष्य मिले जिनके उपर उन्होंने अपनी कृपा बरसा कर उनको तृप्त किया। लेकिन किसी भी गुरु को वैसे सात शिष्य नहीं मिल पाये जिनके साथ वे अपना ज्ञान साझा कर पाते। ऐसा अब तक नहीं हुआ है.......हम अभी भी कोशिश कर रहे हैं।