आत्म-रक्षा की दीवारें, आत्म-कैद की दीवारें भी हैं
इस दुनिया में हर इंसान अपने लिए सुरक्षा की चाह में कई तरह की दीवारें खड़ी करता रहता है। लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि ये दीवारें हमारे लिए जेल की दीवार बन रही हैं? आज के स्पॉट में सद्गुरु, इसी मुद्दे पर एक कविता के साथ अपनी बात रख रहे है:
दुनियाभर में घूमते हुए मैंने पाया कि बहुत सारे लोग अपने चेहरे पर कड़वाहट, अवसाद या नाराजगी का भाव लिए घूम रहे हैं। दुनिया में बहुत सारी समस्याएं हैं, लेकिन हर समस्या में एक संभावना छिपी हुई है।
आत्म-रक्षा की दीवारें कैद की दीवारें भी हैं
अगर आप बाधा पैदा करेंगे तो तरक्की और रूपांतरण की कोई संभावना नहीं होगी। जिस बीज में अंकुरण नहीं होता, वह एक बेकार बीज है। अंकुरण का मतलब है कि आप जो भी थे, उसे भुला कर कुछ नया बनने के लिए आप इच्छुक हैं। सुषुप्त बीज में एक सुरक्षा होती है, क्योंकि उस पर एक छिलका होता है। अगर आप एक कोमल अंकुर हो जाएंगे तो आप नाजुक और असुरक्षित हो जाएंगे। अगर आप नाजुक और कमजोर होने के लिए तैयार नहीं हैं तो आप रूपांतरण के लिए भी तैयार नहीं होंगे। जो भी बदलता नहीं, रूपांतरित नहीं होता, वह मरे हुए के समान है। जो भी चीज जीवंत है, वह हरदम बदलती रहती है।
आध्यात्मिक मार्ग पर होने के बावजूद अगर आप अपने बेवकूफाना रवैए और सिद्धांतों से खुद को बाकी सृष्टि से अलग रखने में सफल हो रहे हैं, तो इसका मतलब है कि आप अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं। इस असीम कृपा के संपर्क में आना जन्मों-जन्मों में मिलने वाला एक अवसर है। जब मैं यह देखता हूं कि लोग अपने आसपास चारों तरफ हर चीज को लेकर एक दीवार खड़ी कर एक असीम संभावना और अपने जीवन को बेकार कर रहे हैं, तो मुझे बहुत दुख होता है। आत्म-रक्षा की दीवारें खुद के लिए बनाई गई जेल जैसी हैं। यह कविता इसी बारे में है:
आवाज एक झींगुर की भी
हो सकती है
प्रेम का गीत -
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जो समा जाए दिल में।
दहाड़ एक बाघ की
हो सकती है इजहार
उसके अकेलेपन का,
बजाए उसकी उग्रता के।
शोर हवाओं का
ला सकता है
सौभाग्यशाली बरसात को
बजाय तबाही के
फुफकार एक सांप की
नहीं होती हमेशा जहरीली।
क्या कर रहे हो तुम
नज़रंदाज़ - मिलन की सभी पुकारों को
और कर रहे हो खड़ी दीवार
जीवन और अपने बीच।