शिवयोगी
सद्गुरु एक निराश साधक के रूप में अपने एक जीवनकाल, गुरु की कृपा और ध्यानलिंग की प्राण प्रतिष्ठा के बारे में बता रहे हैं।
सद्गुरु: आध्यात्मिकता के फूल को खिलाने के लिए, अनुग्रह या कृपा की गोद का मिलना बहुत महत्व रखता है। अगर आप अनुग्रह के बिना विकसित होना चाहते हों, तो आपको अपने प्रति अमानवीय व्यवहार रखना होगा। जो लोग, कामों को करने के कठोर तरीके चुनते हैं, उन्होंने वह चुनाव इसलिए किया है क्योंकि वे अनाथ साधक हैं - वे अनुग्रह की गोद के बिना खिलने के प्रयत्न कर रहे हैं।
मैंने इस पीड़ा को किसी भी व्यक्ति से कहीं अधिक जाना है। गहन और हृदयविदारक साधना के दो जीवनकालों के बाद, शरीर पूरी तरह से बिखर गया। कुछ लोगों के लिए, उनके शरीर बिखरने से पहले ही, उनके हृदय टूट कर बिखर जाते हैं। परंतु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने हृदय को आहत नहीं होने देते क्योंकि वे स्वयं को पत्थर की तरह बना देते हैं। तो पहले शरीर टूटता है, फिर धीरे-धीरे हृदय भी टूटने लगता है।
उन दो जीवनकालों के दौरान, लोग मुझे शिवयोगी के नाम से जानते थे। मैंने विविध संभावनाओं और आयामों का अन्वेषण किया, अनगिनत स्थानों पर गया, वास्तव में तीव्र साधनाएँ कीं। मैंने अलग-अलग प्रकार की समाधियों का अनुभव पाया और कई तरह की क्षमताओं में निपुण हो गया, परंतु फिर भी, वह वास्तविक घटना नहीं घटी। इस तरह, मैंने गुह्य या तांत्रिक विद्याओं का आश्रय लिया ताकि मुझे कोई ऐसा मिल सके, जो उस अंतिम सोपान तक ले जाने में सहायक बन सके। शरीर की एक विशेष तरह की समझ और निपुणता तथा अपने भीतर अनेक स्तरों पर होने वाली रचना की प्रक्रिया की जानकारी की वजह से, मैंने निर्णय लिया कि मैं अपनी देह का त्याग करने के बाद, शरीर के बिना अपनी खोज जारी रखूँगा।
उसी बिंदु पर मेरे जीवन में, मेरे गुरुदेव ने प्रवेश किया। उन्होंने अपनी छड़ी से मुझे स्पर्श किया। और जिस वास्तु का भी साक्षात्कार होना था, वह उसी क्षण हो गया। मैं उस चरम पर आ पहुँचा, जो अस्तित्व का चरम है।
मेरे गुरुदेव
एक बेचारा गुरु क्या करता? मैं निरंतर कुछ न कुछ करता ही रहा हर चीज़ को जब मैं था देख चुका तब वे मुझे सिखाने आए कि क्या है ‘बस होने’ का तरीका। – सद्गुरु
गुरु के साथ मेरी भौतिक आत्मीयता केवल कुछ क्षणों की रही। और उन्हीं कुछ क्षणों में उस विलक्षण छलिए ने मुझे अपनी परियोजना के लिए दास बना लिया। जाने कैसे उन्हें ये लगा कि शिवयोगी ध्यानलिंग की स्थापना के लिए उपयुक्त होगा। इस तरह उन्होंने यह कार्य मुझे सौंपा - यह कार्य वाणी या शब्दों के माध्यम से नहीं हुआ, उन्होंने सिर्फ ध्यानलिंग की स्थापना से जुड़ी गहन तकनीक ही संप्रेषित कर दी। यदि वे मेरे माध्यम से इस कार्य को न करवाना चाहते तो आज मेरी भौतिक उपस्थिति का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। शिवयोगी ध्यानलिंग की स्थापना करना चाहते थे, परंतु वे सीमित संसाधनों और सहयोग के अभाव के कारण ऐसा संभव नहीं कर सके। उसी कार्य को पूरा करने के लिए उन्होंने सद्गुरु श्री ब्रह्मा के रूप में जन्म लिया।