उज्जैन का सिंहस्थ कुंभ - कुछ यादें, कुछ अनुभव
ईशा योग केंद्र में रहने वाली एक साधिका ने सिंहस्थ कुंभ मेले की यात्रा में हुए अपने अनुभवों को यहां साझा कर रहीं हैं

ईशा योग केंद्र में रहने वाली एक साधिका ने सिंहस्थ कुंभ मेले की यात्रा में हुए अपने अनुभवों को यहां साझा कर रहीं हैं...
आश्रम में रह रहे हममें से कुछ लोगों को यह सौभाग्य मिला कि हम उज्जैन के सिंहस्थ कुंभ मेले में जा सकें। इसके लिए तमिलनाडु से एक विशेष रेलगाड़ी चलाई गई थी, जिसमें प्रदेश से एक हजार से ज्यादा लोग जा रहे थे। यह सब किसी दिव्य कृपा की तरह था।
हमारी इस विशेष रेलयात्रा का वर्णन करें तो यह भी खुद में एक पूरी कहानी बन जाएगी। यह रेलगाड़ी अपनी ही खास लय में चल रही थी। जब चाहे, जहां चाहे, जितनी देर चाहे रूक जाती थी, और उसका विराम कभी-कभी बेहद लंबा, उबाऊ, दमघोंटू व पका देने वाला होता था। उसका रूकना जितना अचानक होता था, उसका चलना भी उतना ही अचानक होता था। ऐसे में हमें दौड़ कर रेल के दरवाजे तक पहुंचना पड़ता था और अपने उन साथियों को पहले ट्रेन में चढ़ाना पड़ता था जो कम फुर्तिले थे। और फिर हम लोग छलांग लगा कर ट्रेन में घुसते थे। खैर, आखिकार हमारी रेलगाड़ी निर्धारित समय से तकरीबन 20 घंटे देरी से रात दो बजे भोपाल स्टेशन पहुँची। वहां 21 बसें हमारा इंजतार कर रही थीं। ये बसें हमें भोपाल से उज्जैन और उज्जैन से वापस भोपाल लाने के लिए थीं। उन बसों का सफर भी अनोखा ही था! भोपाल स्टेशन से निकलने में ही हमको खासा इंतजार करना पड़ा। निकलते-निकलते तरीकबन सुबह के पौने चार बज गए। बसों की सीटें बहुत छोटी थीं। उनमें से कुछ बसें रास्ते में खराब हो गईं तो कुछ रास्ता ही भटक गईं और काफी चक्कर काटने के बाद मंजिल पर पहुँच पाईं।
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हालांकि इसकी भी अपने आप में एक कहानी है कि कैसे एक हजार से ज्यादा लोगों ने इन पूरे हालात में बिना किसी नुक्ताचीनी या भुनभनाहट के गरिमा और शांति के साथ इंतजार किया। लेकिन इसके साथ अच्छी बात यह भी रही कि मंत्रों, स्तुतियों, प्रार्थनाओं, ड्रम, ढोल व नाच-गाने के बीच प्रेम से बनाया गया स्वादिष्ट भोजन हमें रेल में और उज्जैन में खाने को मिला। उज्जैन में स्वयंसेवियों द्वारा हमारे रहने की व्यवस्था का विस्तृत वर्णन करें तो वह भी एक कहानी का रूप ले लेगी। उन्होेंने पूरे समर्पण के साथ हर चीज को ध्यान में रखते हुए हमारे ठहरने के लिए जगह की व्यवस्था की थी। लेकिन उज्जैन में आई जबरदस्त आंधी व बारिश की वजह से हमारे ठहरने और सोने के लिए जो व्यवस्था की गई थी, वह हमारे पहुँचने से पहले ही उजड़ गई थी। हालत यह थी कि जब हम भोपाल पहुंचे तो हमारे आयोजकों को यह भी पता नहीं था कि वे हमें कहां ठहरांएगे। तब एक स्कूल हमारी मदद के लिए आगे आया और उसने अपने मैदान, बरामदों और कक्षाओं को हमारे लिए खोल दिया और हमें वहां ठहरने की इजाजत दे दी।
लेकिन ये सारी कहानियां सुनाना मेरा मकसद नहीं हैं। मुझे तो उज्जैन की कहानी ही कहनी है। एक बार हम बस से आजाद हुए तो फिर क्षिप्रा नदी और महाकाल का जबरदस्त आकर्षण हमें अपनी ओर खींचने लगा। मेरी मलयेशियाई दोस्त जरा भी इंतजार करने के मूड में नहीं थी और वह निकल पड़ी। उसकी देखादेखी हम चार लोग भी उसके पीछे हो लिए। उसके साथ जाने की एक वजह तो यह थी कि कहीं वह इस भीड़ में अकेली खो न जाए और दूसरी वजह यह भी थी कि हम सब भी उज्जैन में मिले उन 24 घंटों का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल कर लेना चाहते थे। धूलभरी, चैड़ी व पक्की सड़कों पर तेज-तेज चलते हुए, भक्तों की भीड़ व रेले से गुजरते हुए, देवताओं व गुरुओं के बड़े-बड़े होर्डिंग्स और पंडालों के पास से निकलते हुए हमने नदी तक जाने का अपना रास्ता तय किया।क्षिप्रा नदी का पहला दर्शन ही विह्वल कर देना वाला था। उसे देखते ही मेरी दोस्त की आंखों में आंसु छलक आए। नदी का पानी जबरदस्त जीवंत था और उसमें पूरी तरह से स्त्रीत्व का दर्शन हो रहा था। नदी की काई भरी सीढ़ियों से उतर कर हमने खुद को क्षिप्रा को समर्पित करते हुए अपने को नदी के धुंधले पानी में डुबो दिया।
इसके बाद महाकल के दर्शन के लिए हम चल दिए। मंदिर में भीतर प्रवेश करने से पहले हम भी बाकी तीर्थयात्रियों के साथ लाइन में लग कर ऊपर चढ़ते जा रहे थे। हम लोग एक गलियारे से गुजरते हुए, चोटिल हो कर उस कमरे तक पहुंचे , जहां महाकाल के गर्भगृह का चैखट था। वहां से गुजरते हुए हमें महाकाल के दर्शन की एक झलक मिली। उस लिंग की स्याह से गहरी स्याहता और रिक्तता हमारे भीतर अंकित हो गई थी।
हम लोग मंदिर परिसर में ही बैठकर महाकाल की विशाल मौजूदगी का रसपान करने लगे। ऐसा लग रहा था कि हम लोग वहां कई दिनों तक बैठे रहें। वह जगह अपने आप में बेहद प्रबल और शांति की ओर खींचने वाली थी। अफसोस की बात है कि हमें बस पकड़नी थी, अगर बस पकड़ने का विचार मन से निकल भी जाता तो मंदिर के सुरक्षाकर्मी वहां हमें अधिक देर ठहरने नहीं देते। वे लोगों को रुकने की मोहलत न देते हुए लगातार आगे बढ़ा रहे थे। हम लोग जल्दी-जल्दी पास ही स्थित देवी मंदिर में दर्शन के लिए चल दिए, जो आश्चर्यजनक ढंग से जीवंत देवी थीं।
वहां से हम अपने बस की तरफ जाने लगे थे कि रास्ते में कुछ ईशा ब्रह्मचारियों से हमारी मुलाकात हो गई। उन्होंने हमसे कहा कि ‘आप बस को पकड़ने की चिंता न करें, सिर्फ हमारे पीछे चलते रहिए’। हम लोग कुछ देर तक उज्जैन की शानदार सड़कों पर चलते रहे, अंत में हम एक ऐसी गली में जा पंहुचे, जहां बहुत नागा साधुओं का डेरा था। उन नागा साधुओं के बीच से गुजरना, उन्हें देखना और अपने अभिमान में डूबे व राख में लिपटे कुछ नागा योगियों से बातचीत करना भी अपने आप में एक शानदार अनुभव था। उनमें से कुछ योगियों व साधुओं की उपस्थिति बेहद प्रभावशाली थी।
अगले दिन हम लोग काल भैरव के दर्शन करने के लिए गए। हम दिन की तपती धूप और तेज गर्मी में कई घंटे लाइन में लगे रहे। हमारे ईशा सूमह के आसपास देश के कुछ हिंदी भाषी इलाकों से आए तीर्थयात्रियों का जत्था भी इकट्ठा हो गया था। इस दौरान हम लोग सद्गुरु द्वारा इस यात्रा के लिए दीए गए मंत्र ‘योग योग योगीश्वराय’ का लगातार जाप कर रहे थे। यह देखना अपने आप में वाकई बेहद शानदार था कि ईशा से कोई संबंध न होते हुए भी लाइन में लगे आसपास के लोगों ने भी पूरी तन्मयता के साथ हमारे संग ‘योग योग योगीश्वराय’ का जाप कर रहे थे।
काल भैरव के दर्शन की झलक लेकर हम जल्दी -जल्दी कालभैरव घाट की ओर चल दिए, जहां एक छोटा सा मंदिर था। मेरे लिए यह एक बेहद प्राकृतिक और शक्तिशाली जगह थी। अगर हमें आगे नहीं जाना होता तो मैं वहां कुछ देर बैठ कर कुछ समय बिताना चाहता।
अपनी उज्जैन की यात्रा के समापन के रूप में हम लोग घाट से मत्स्येंद्रनाथ की समाधि की ओर बढ़ गए। वहां के रास्ते में बीच में महाकाली का मंदिर पड़ता था, जहां देवी की भेदने वाली स्त्री शक्ति को महसूस किया जा सकता था। मंदिर की देखभाल कुछ युवा कर रहे थे। अपनी लंबी लटों और चमकती हुई आंखों के चलते वह मंदिर के पुजारी कम और कोई प्रचीनकालिक योगी ज्यादा दिख रहे थे। उसके बाद, हम लंबी पक्की व झुलसा देने वाली सड़क से गुजरते हुए समाधि तक पहुंचे। उसके पास कुछ देर बैठ कर हमने गुरु की जानी पहचानी मौजूदगी का आंनद लिया। सिंहस्थ कुंभ मेले की इन विविध छटाओं के आनंद के बीच ही हमें सद्गुरु की कृपा में डूबने का मौका मिला, जो अपने आप में जबरदस्त और बेहद प्रभावकारी था। आश्रम की ओर लौटते हुए काफी हल्कापन या शायद कुछ खालीपन सा लग रहा था। यह पूरा अनुभव शब्दों की सीमा से परे था। इसके लिए आभार प्रकट करना अर्थहीन और उनके चरणों में अपना शीश झुका देना नाकाफी लगता है।