हस्तशिल्प मेला: मणिपुरी ब्लैक स्टोन पॉटरी
आज हम मणिपुर की काले पत्थर के बर्तन बनाने (पॉटरी) की कला पर गौर करेंगे...
ईशा फाउंडेशन द्वारा नवरात्रि उत्सव के दौरान 9 से 13 अक्टूबर तक ईशा योग सेंटर में हैंड्स ऑफ ग्रेस नामक एक हस्तशिल्प मेला आयोजित किया जा रहा है। यहां पचास स्टाल लगाए जाएंगे जिनमें बेहतरीन किस्म की हजारों हाथ से बनी कलाकृतियों का प्रदर्शन किया जाएगा। इसमें फर्नीचर, घर सजावट की चीजें, कपड़े, ऑर्गेनिक बॉडी केयर प्रॉडक्ट्स, पत्थर और धातुओं की बनी कलाकृतियां, ऐक्सेसरीज और गिफ्ट आइटम्स जैसी चीजें शामिल होंगी। ये सभी सामान भारत की हस्तशिल्प और हस्तकलाओं की शानदार परंपरा की झलक दिखाने वाले होंगे। हैंड्स ऑफ ग्रेस, एक अनोखी कोशिश है ईशा फाउंडेशन की, जो चाहता है भारतीय हस्तकला और हस्तशिल्प उद्योग में एक नई जान फूंकना। जो चाहता है आनेवाली पीढ़ियों के लिए पारंपरिक कलाओं की कभी न खत्म होने वाली विरासत तैयार करना। यह भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को और मजबूत करने की ईशा की बहुत बड़ी पहल का ही एक हिस्सा है।
भारत की हस्तकलाओं की परंपरा जितनी पुरानी है उतनी ही विविधताओं से भरी हुई है। अगले चार हफ्तों में हम हैंड्स ऑफ ग्रेस में शामिल विविध हस्तशिल्प शैलियों में से कुछ की झांकी पेश करेंगे और साथ ही आपको उनसे जुड़े कुछ कलाकारों से मिलवाएंगे जो इस क्राफ्ट प्रदर्शनी में शामिल हो रहे हैं। आज हम मणिपुर की काले पत्थर के बर्तन बनाने (पॉटरी) की कला पर गौर करेंगे।
ये सजाने मे ही नहीं इस्तेमाल में भी लाजवाब हैं।
हस्तकला: मणिपुरी ब्लैक स्टोन पॉटरी
दस्तकार: प्रेस्ली गसइनाव
गांव: लॉंगपी (लोरी), उखरुल जिला, मणिपुर
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मणिपुर में एक गांव है लांगपी (या लोरी)। इसी गांव की हैं प्रेस्ली जो तांगखुल नाम की एक नागा जनजाति की हैं। लांगपी पत्थर के बर्तन बनाने की अपनी बहुत पुरानी कला - लांगपी हैमलाइ - के लिए मशहूर है। प्रेस्ली की खास बात यह है कि उन्होंने गांव की 16 दूसरी महिलाओं के साथ मिल कर सात साल पहले “लोरी हैमलाइ” नाम से एक विलेज पॉटरी कलेक्टिव का गठन किया था, जिसका काम इस कला की पॉटरी बनाना और उसकी मार्केटिंग करना है। लांगपी हैमलाइ कला से बने रसोई के बर्तन देश भर में लोकप्रिय हैं। ये बर्तन देश में लगभग हर जगह हस्तशिल्प की विशेष दुकानों में और यहां तक कि विदेशों में भी मिलते हैं।
इनके निर्माण के लिए कच्चे माल के रूप में दो तरह के चट्टानो का इस्तेमाल होता है। एक- मौसम और वायुमंडल के प्रभाव से क्षरित हुई चट्टानें(वेदर्ड रॉक) और दूसरी सर्पिल चट्टानें(सर्पेंटाइन रॉक)। स्थानीय निवासियों के मुताबिक ऐसी चट्टानें सिर्फ लांगपी में ही मिलती हैं। मिट्टी जैसा गाढ़ापन लाने के लिए इन चट्टानी पत्थरों को पीस कर उसको पानी के साथ 5:3 के अनुपात में मिला लिया जाता है। इस हल्के भूरे मिश्रण को पूरा दिन गूंथने के बाद शुरुआती स्लैब बनाने के लिए एक लकड़ी के तख्ते पर चपटा फैला लिया जाता है। अनोखी बात यह है कि लांगपी बर्तनों को कुम्हार के चाक पर आकार नहीं दिया जाता। हर बर्तन को सांचों और औजारों की मदद ले कर हाथ से ही आकार दिया जाता है। एक बार जब गढ़ी हुई मिट्टी सूख कर सख्त हो जाती है, तब उसको खुली भट्ठी में 1200 डिग्री सेंटीग्रेड से भी ज्यादा तेज ताप में 5 से 7 घंटे तक पकाया जाता है। बर्तनों को गर्म ही बाहर निकाल लिया जाता है और उनको माछी नामक एक स्थानीय पत्ते से घिस-घिस कर चिकना बनाया जाता है और खूब चमकाया जाता है। इस तरह तैयार बर्तनों में होते हैं स्लेटी-काले खाना बनाने के बर्तन और केतलियां, आकर्षक पतीले, मग और ट्रे, जिनके हैंडल और नॉब पर बढ़िया बेंत लगी होती है। वे देखने में सुंदर मटियाली, पर नायाब आधुनिकता लिए होते हैं।
लांगपी गांव का लगभग हर परिवार काले पत्थर के बर्तन बनाना जानता है। वे बेचें या न बेचें, पर वे अपने खुद के इस्तेमाल के लिए ये बर्तन जरूर बनाते हैं। यह एक ऐसी कला है जो सिर्फ इस गांव में ही अनोखे ढंग से फली-फूली है। प्रेस्ली ने खुद लांगपी हैमलाइ की कला अपने दादाजी से सीखी। जब वह एक छोटी-सी लड़की थी, तभी से वह अपने दादा-दादी को ऐसे बर्तन बनाते हुए देखा करती थी। ऐसा माना जाता है कि एल्युमिनियम के बर्तनों के चलन में आने से पहले तांगखुल नागा जनजाति के लोग मुख्य बर्तनों के रूप में काले पत्थर के बड़े-बड़े बर्तनों का ही इस्तेमाल करते थे। एक जमाने में इन बर्तनो को शाही बर्तन भी कहा जाता था, क्योंकि उस वक्त मणिपुर के अमीर और नवाबी ठाठ-बाट वाले लोग ही ये बर्तन खरीदने की ताकत रखते थे।
लांगपी हैमलाइ के बर्तन और कड़ाहियों का इस्तेमाल लकड़ी के चूल्हे या गैस स्टोव पर सीधे रख कर खाना पकाने के लिए किया जा सकता है। यह माइक्रोवेव के लिए भी सुरक्षित है। हालांकि इन बर्तनों में बहुत सारे सजावटी डिजाइन वाले हैं, पर उनको रोज खाना पकाने की जरूरतों को ध्यान में रख कर बुनियादी मजबूती के साथ बनाया गया है। ये बर्तन खास तौर से गोश्त और दालों जैसी चीजों को धीमी आंच पर घंटों धीरे-धीरे पकाने, उनको समरूप करने और गाढ़ा करने के लिए बहुत अच्छे हैं। बर्तन में रखा खाना चूल्हे से उतारने के काफी समय बाद तक गर्म बना रहता है। बर्तन में इस्तेमाल किए गए कच्चे पदार्थ बिलकुल कुदरती होते हैं और इनमें कोई रसायन इस्तेमाल नहीं किया जाता जिसकी वजह से उनमें बना खाना सेहत के लिए बिलकुल हानिकारक नहीं होता।