दिव्यता के पथ पर : स्वामी देवबाहु
स्वामी देवबाहु को 1998 में ब्रह्मचर्य की दीक्षा मिली थी। वे यहाँ कुछ बहुमूल्य एवं हृदयस्पर्शी अनुभव साझा कर रहे हैं। अपनी बात वे उस समय से शुरू कर रहे हैं, जब उन्होंने सदगुरु को पहली बार देखा था और उन्हें कार चलाते देख कर ये विश्वास नहीं कर सके कि वे कोई गुरु होंगे।
लेख : दिसंबर 10, 2019
पहला प्रसाद
स्वामी देवबाहु: जब मैं बड़ा हो रहा था तब मुझमें दो असामान्य बातें थीं-
पहली - जब मैं 9 वर्ष का था तब से ही, 'गुरु' ये शब्द मेरे अंदर कुछ हलचल मचा देता था। चाहे किसी भी संदर्भ में मैं यह शब्द सुनूं, मैं उस पर ध्यान देता था। टेलीविजन सीरियल रामायण और महाभारत में जिन गुरुओं को देखता था, उनसे अत्यंत प्रभावित था और इसी विश्वास के साथ बड़ा हुआ कि इस योग्यता के गुरु हमारी पीढ़ी में हैं ही नहीं।
दूसरी - मैं कई बार त्रिची के मलाइकोविल मंदिर के पीछे जा कर अकेले बैठता था - चार चार घंटों तक भी। मैं वहाँ बस बैठता था, ज्यादा सोचता नहीं था और नीचे की सड़क को देखा करता था।
बाकी तो मैं बस युवा होते हुए आराम से जीवन जी रहा था, एक उग्र, खेलप्रिय और उत्साही तरुण था। मैरीन रेडियो ऑफिसर का पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद, कुछ समय के लिये, मैंने एक चावल मिल में लेखाकार की नौकरी कर ली। तीन भाईयों द्वारा चलाया जा रहा यह एक दूसरी पीढ़ी का पारिवारिक कारोबार था। पिता, तीनों बेटे और परिवार के कुछ अन्य लोग भी ईशा साधक थे। मैं कई बार सुबह में 'का, का, का' की आवाज़ें सुनता और सोचता, "ये किस तरह का योग है"? एक दिन उन्होंने मुझे उनके घर पर हो रहे एक छोटे से समारोह में शामिल होने के लिये आमंत्रित किया जो उनके घर उनको आशीर्वाद देने आ रहे गुरु के स्वागत के लिये था। एक बेटे ने मुझे बहुत ही उत्साह के साथ बताया "बहुत से लोग थे जो अपने घरों को उनसे आशीर्वाद दिलाना चाह रहे थे पर वे सिर्फ हमारे घर आने को राजी हुए"। उस दिन मैंने पहली बार सद्गुरु को देखा।
वे अंगवस्त्रम पहने हुए थे और मैंने सद्गुरु को उनकी टाटा सिऐरा कार खड़ी करते देखा जिसमें कुछ सूटकेस रखे हुए थे। विज्जी माँ और राधे भी उनके साथ थीं। "ये गुरु कैसे हो सकते हैं"? मैंने सोचा, "वे एक सामान्य आदमी की तरह दिखते हैं, जिनके साथ उनकी पत्नी और बेटी भी हैं और वे कार चलाते हैं"। मेरी कल्पना यह थी कि गुरु को भगवा परिधान में होना चाहिये - जैसे साधु संत होते हैं। तो वहाँ मैं तटस्थ भाव से खड़ा था, भीड़ से अलग, जो वहाँ गुरु का आशीर्वाद लेने के लिये इकट्ठा हो गई थी। परिवार द्वारा पाद पूजा किये जाने के बाद, बाकी सब सद्गुरु के चरणों में बारी बारी से झुक रहे थे। मैं भी वहाँ जा कर उनके सामने झुका। मैं वहाँ जाने वाला आखिरी व्यक्ति था, उनके आसपास ज्यादा जगह नहीं थी और मेरे पास अपना माथा उनके चरणों में स्पर्श कराने के सिवा कोई विकल्प नहीं था। जब मैं उठा तो मुझे लगा कि मेरे माथे पर चंदन लग गया था जो पाद पूजा के दौरान उनके चरणों में लगाया गया था। अब जब मैं वो बात याद करता हूँ तो मुझे लगता है कि सद्गुरु द्वारा मुझे दिया गया वो पहला प्रसाद था, यद्यपि वह भेंट उस समय मुझे परिणामहीन ही लगी थी।
ब्रह्मचर्य की अग्नि
जब भी मुझे समय मिलता, मैं चावल मिल में लगी हुई सूखे धान की ढेरियों पर से फिसलने का आनंद लेता था। एक दिन जब मैं ऐसे ही मजे में फिसल रहा था तो उन तीन बेटों में से एक ने आ कर मुझे पूछा कि क्या मैं ईशा योग कक्षा में जाऊँगा? उसने कहा, "ये तुम्हारी अशांति को दूर कर देगा"। उसने मेरी कक्षा की फीस दी, फॉर्म भरा, 13 दिनों तक कक्षा में जाने के लिये मुझे अपनी मोटरसाइकिल का उपयोग करने दिया, और 13 दिन की वेतन सहित छुट्टी देना स्वीकार किया, और मैं कक्षा में जाने के लिये खुशी से राजी हो गया। और फिर, मेरा जीवन हमेशा के लिये बदल गया।
जैसे-जैसे कक्षा आगे चलने लगी, मैं ज्यादा से ज्यादा उल्लासित महसूस करने लगा, और अपनी भरपूर खुशी तथा उर्जात्मक अवस्था को अभिव्यक्त करने के लिये मैं माईक पर जा कर अपने अनुभव उत्साहपूर्वक साझा करता था। अंतिम दिन कुछ अद्भुत हुआ और गुरु पूजा के बाद मेरी आँखों से बरबस आँसू बहे चले जा रहे थे। कक्षा समाप्त होने के समय हमारे शिक्षक, जो स्वयं एक ब्रह्मचारी थे, हम सब को एक एक फूल दे रहे थे। मैं जब उनसे फूल लेने गया, तब मैंने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और उन्होंने मुझे उठा कर गले से लगा लिया। मेरे बहते आँसुओं ने उनके सफेद कुर्ते को भिगो दिया। सभी प्रतिभागी, जो अब तक मुझे एक जिंदादिल और उत्साही युवक के रूप में देख रहे थे, मेरी ऐसी अवस्था को देख कर चकित रह गये।
उन ब्रह्मचारी की ऊर्जा एवं उनकी रहने की पद्धति ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला था। मैंने सह शिक्षक से पूछा, "उनके जैसा बनने के लिये मुझमें कौन सी विशेष योग्यता होनी चाहिये"? सह शिक्षक ने पूछा, "आप का मतलब है, ब्रह्मचर्य के लिये"? यह जाने बिना कि ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ था, मैंने कहा, "हाँ"। "इच्छा", उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "यही सब कुछ है"। तब से मेरे जीवन का उद्देश्य ही ब्रह्मचर्य लेना हो गया।
मैंने पूरे जी जान से क्रियायें करने लगा। इसमें मुझे सवा घंटा लग जाता था पर अब मैं अपने काम में पहले से भी ज्यादा कुशल हो गया था और इसीलिये मुझे अब सूखे धान के ढेरों पर फिसलने के लिये ज्यादा समय मिलने लगा - जिससे मेरा मालिक ज्यादा निराश होता था। यद्यपि ये छोटी सी खेलवृत्ति कम नहीं हुई पर इस कक्षा के कारण मुझमें आये परिवर्तन पर सब का ध्यान जाता था।
फिर, एक ही महीने के अंदर, मैं आश्रम में विज्जी माँ आराधना सत्संग के लिये आया जो उनकी महासमाधि के 11 दिन बाद हुआ था। मैंने उनको अपने जीवन में सिर्फ दो बार देखा था - एक बार अपने चावल मिल मालिक के घर पर और दूसरी बार ईशा योग दीक्षा दिवस पर। बहुत से लोग उनके बारे में अपने अनुभव साझा करने के लिये आये और सत्संग समाप्त होने से पहले सद्गुरु ने कहा, "हम चाहे खून के रिश्ते में न हों पर हमारे बीच अलग प्रकार का संबंध है। कृपया यहाँ से जाने के पहले खाना खा लीजिये"। ये शब्द मेरे अंदर गहराई में उतर गये और मेरे निश्चय को अधिक मजबूत कर गये कि अब मुझे इसी मार्ग पर चलना है।
मार्च में मैंने सद्गुरु के साथ भाव स्पंदन कार्यक्रम किया। जैसे ही कोई भी प्रक्रिया शुरू होती, मैं जोर जोर से नृत्य करने या रोने लगता था, रोज ही अधिकतर प्रक्रियाओं में ये होता था। पहले दिन स्वयंसेवकों ने मुझे मेरे स्थान पर बैठाने का प्रयत्न किया पर फिर उन्होंने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया। बाद में मुझे पता चला कि सद्गुरु ने उनसे कहा कि वे मुझे नृत्य या जो कुछ भी मैं कर रहा था, करने दें।
भाव स्पंदन के बाद मैंने सद्गुरु के साथ मुलाकात की और पूछा कि क्या मैं शिक्षक प्रशिक्षण के लिये आऊँ ? तो उन्होंने कहा, "तुम शिक्षक प्रशिक्षण छोड़ो, मेरे पास तुम्हारे लिये कुछ और काम है"। आज तक मैं समझ नहीं पाया कि वो काम क्या था? उसी भेट में मैने उनसे ब्रह्मचर्य के लिये भी पूछा। शुरुआत में उन्होंने मुझे इसके लिये हतोत्साहित करने का प्रयत्न किया पर अंत में हाँ कर दी जिससे मैं बहुत खुश हुआ। एक महीने के अंदर ही मैं आश्रम में आ गया और अगले वर्ष, 1998 में, मुझे ब्रह्मचर्य की दीक्षा मिल गयी।
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गुरु का प्रेम
दीक्षा का दिन मेरे जीवन के सबसे ज्यादा खुशी वाले दिनों में से था - मैं इतने दिनों से इसकी प्रतीक्षा कर रहा था। दीक्षा के बाद हम उस स्थान पर बैठे थे जहाँ अब चंद्रकुण्ड है। वहाँ हमें केले के पत्ते पर भोजन परोसा गया। वो महाशिवरात्रि का दिन था और हमें पारंपरिक महाशिवरात्रि भोजन - टमाटर भात तथा शक्कर पोंगल - दिया गया। मैं सद्गुरु की बायीं तरफ बैठा था। जब तिरुपुर से आये हुए स्वयंसेवक पुन्नुस्वामी अन्ना सदगुरु को शक्कर पोंगल परोस रहे थे तो मेरे मन में विचार आया, "अगर आज विज्जी माँ जीवित होतीं तो वे अपने हाथों से हमें मिष्ठान्न परोसतीं"। सद्गुरु ने शक्करा पोंगल दो बार लिया और फिर पुन्नुस्वामी अन्ना मुझे परोसने के लिये मेरी तरफ बढ़े। जैसे ही अन्ना ने पोंगल का ग्रास भर कर उठाया तो सद्गुरु बोले, "उसे शक्करा पोंगल मत दो"। यह सुन कर मैं और अन्ना, दोनों आश्चर्यचकित रह गये और हमने सद्गुरु की ओर प्रश्नात्मक रूप से देखा। सद्गुरु ने अपने पत्ते पर से पोंगल का एक गोला उठाया और अपने हाथ से मेरे पत्ते पर रख दिया। मेरे गालों पर मेरे आँसू बह निकले।
उसी दिन आश्रम निवासी शिवा अन्ना को आश्रम में अलग अलग स्थानों पर सद्गुरु के साथ हमारे ग्रुप फोटो लेने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। मैं किसी एक फोटो में सद्गुरु के पास खड़ा रहना चाहता था पर मैं उनके पास पहुँच ही नहीं पाया। अंतिम फ़ोटो के लिये हम विज्जी माँ की समाधि के पास थे और मैंने निश्चय कर लिया था इस बार कैसे भी मैं सद्गुरु के पास घुस ही जाऊँगा पर मैं किसी चीज़ से गड़बड़ा गया और बहुत शीघ्र ही उनके पास के सारे स्थान भर गये। टूटे हृदय के साथ मैं अंत में खड़ा हो गया। अन्ना ने अपना कैमेरा ठीक जगह लगाया और वे फोटो लेने ही वाले थे कि अचानक सद्गुरु ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने मुझे बुलाया और अपने सामने बैठने को कहा। मैं अपने गुरु और उनके प्रेम के बारे में और क्या कह सकता हूँ?
कुछ भुलाये न जा सकने वाले क्षण
आश्रम में आने के कुछ महीनों के अंदर ही मुझे ध्यानलिंग निर्माण में लगने वाली सामग्री तथा आश्रम के लिये कुछ और जरूरी सामग्री खरीदने की जिम्मेदारी दी गयी। मुझे टाटा मोबाईल जीप दी गयी थी और कई बार ऐसा हुआ कि जब मैंने आश्रम से कोयंबटूर शहर के, एक ही दिन में चार चार बार चक्कर लगाये। पैसा बचाने के लिये ट्रक में भारी सामान चढ़ाने और उतारने का काम हम लोग स्वयं ही करते थे। हममें से कोई भी उस तीव्रता और संघर्ष को नहीं भूल सकता जिसके साथ ध्यानलिंग गुम्बद का निर्माण किया गया था।
मुझे याद है, एक बार, जब ध्यानलिंग के प्रवेश मेहराब का काम लगभग पूरा हो गया था, तब हमें पता चला कि मेहराब के चाप की दो भुजाओं को बीच से जोड़ने वाला पत्थर अन्य पत्थरों की अपेक्षा अलग माप और आकार का चाहिये था - और वो हमारे पास नहीं था। हमने तुरंत खदान प्रबंधक से फोन पर बात की और उसे निश्चित आकार और माप में पत्थर काटने को कहा। स्वामी देवस्तव और मैंने तय किया कि हम स्वयं खदान पर जा कर सुनिश्चित करेंगे कि काम समय पर हो जाये। हम रात को 10 बजे कुन्नाथुर के लिये रवाना हुए जो गोबिचेट्टीपलयम के पास है और वहीं रुके। जब हम पत्थर ले कर वापस आये तो सुबह के 4 बज रहे थे।
ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा एक ऐसी घटना है जो मेरी यादों में एकदम स्पष्ट है। प्राणप्रतिष्ठा का अंतिम भाग पूरा करने के पहले, लगभग 15 दिन, हम एकदम अनिश्चितता की स्थिति में थे। हर दिन सद्गुरु जाँच रहे थे कि परिस्थिति अनुकूल है अथवा नहीं ? चूंकि हमें पता नहीं था कि ये कब होगा, हम हमारी सामान्य गतिविधियों में लगे रहते थे।
24 जून 1999 के दिन मैं बाहर था, कुछ चीजें ख़रीदने के लिये मैं कोयम्बटूर गया था। जैसी कि मेरी आदत थी, मैंने 5.15 बजे आश्रम फोन किया, यह जानने के लिये कि क्या कुछ और चाहिये था? माँ गंभीरी ने फोन उठाया और कहा, "सम्भव है कि आज रात को प्राणप्रतिष्ठा की विधि हो जायेगी। सद्गुरु ने सभी ब्रह्मचारियों की 6 बजे बैठक बुलाई है। आ सकते हो तो आ जाओ"। मैं आर एस पुरम में बी डी रोड पर था। चूंकि मैं वो बैठक चूकना नहीं चाहता था, तो मैंने वाकई तेज़ गाड़ी चलायी और 35 मिनट में वापस आश्रम आ गया। मैंने कैवल्य कुटीर के पास गाड़ी खड़ी की और शिवालय वृक्ष के नीचे होने वाली बैठक में ब्रह्मचारियों के साथ बैठने के लिये दौड़ा।
कुछ मिनटों बाद सद्गुरु आराम से चलते हुए आये। वे जीन्स और सफेद कुर्ता पहने हुए थे। उन्होंने कहा, "प्राणप्रतिष्ठा के लिये आज का दिन अनुकूल लग रहा है"। फिर उन्होंने हमें कुछ निर्देश दिये कि हमें गुम्बद के अंदर कैसे रहना है। उन्होंने हममें से हरेक को जूही का एक फूल दिया। लगभग 30 मिनट बाद सद्गुरु शिवालय के पत्थर पर से उठे और बहुत धीरे से चलते हुए शून्य कुटीर की ओर गये। हम वहीं खड़े, उन्हें जाते हुए देखते रहे और फिर वे झुके हुए पेड़ के बगीचे के पीछे चले गये। ऐसा लग रहा था जैसे वे सांध्य वेला में विलीन हो गये थे। सद्गुरु ने कहा था कि सम्भव है कि उन्हें प्राणप्रतिष्ठा की प्रक्रिया को पूरा करने के लिये अपने आप को ध्यानलिंग में विलीन कर देना पड़े। उस संभावना के बारे में सोचते हुए हममें से कुछ को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख पाना मुश्किल हो रहा था। पर अभी तो काफी काम करना था, अतः हम सब वहाँ से प्राणप्रतिष्ठा प्रक्रिया के लिये हमें दी गयी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये चल पड़े।
हममें से कुछ को पता था कि शायद सद्गुरु प्राणप्रतिष्ठा प्रक्रिया के दौरान बेहोशी में गिर पड़ें और उन्हें उठा कर उनके घर तक ले जाना होगा। मुझे ये जिम्मेदारी दी गयी थी। लगभग 6 बजे मैंने सद्गुरु को लंगोट पहने और सफेद शॉल ओढ़े शून्य कुटीर से बाहर आते देखा। उनके साथ, उनके दोनों तरफ दो ब्रह्मचारी जलती हुई मशालें ले कर चल रहे थे। पहले सद्गुरु विज्जी माँ की समाधि के पत्थर के पास गये जहाँ उन्होंने कोई प्रक्रिया की। जैसे ही मैंने उन्हें डोम की तरफ आते देखा तो मैं अंदर अपने स्थान पर जा कर बैठ गया। अंदर काफी अंधेरा था। सिर्फ अवुडियार (पत्थर जिस पर ध्यानलिंग स्थित है) तथा ध्यानलिंग पर हल्का प्रकाश था।
सद्गुरु अंदर आये और बिना किसी सहारे के, कूद कर अवुडियार पर चढ़ गये। फिर उन्होंने पानी माँगा पर मुझे वहाँ कोई बर्तन नहीं दिखा। मैं सोच ही रहा था कि अब क्या करूँ तभी एक ब्रह्मचारी ने जलसीमा में से हाथ में ही पानी ले कर सद्गुरु को दिया। सद्गुरु ने अपने चक्रों पर पानी लगाया और फिर प्रक्रिया शुरू की। उन्होंने ध्यानलिंग के सबसे ऊपर के चक्र से प्रारंभ किया और एक एक कर के चक्रों को बंद कर के वे इस तरह से उस चक्र का नाम, हमें सुनायी पड़े, इस तरह लेते थे। वे लगभग लुढ़क कर गिर ही गये जब उन्होंने 'अनाहत' कहा पर शीघ्र ही वे अपने पैरों पर खड़े हो गये। जब वे अंतिम तीन चक्रों को बंद कर रहे थे तब वे बहुत दर्द में थे। अंत में, आखिरी चक्र को बंद करने के बाद वे गिर ही गये।
यद्यपि मुझे तुरंत ही उनके पास पहुँच जाना था पर मुझे ऐसा लगा कि मैं बिल्कुल खाली था और अपनी जगह पर जम गया था। वे वहाँ अवुडियार पर आँखे बंद कर के पड़े थे और मैं कुछ क्षणों के लिये उन्हें बस एकटक देख रहा था। उसी क्षण हमने देखा कि उन्होंने हाथ से कुछ इशारा किया। तब मैं होश में आया और उन्हें उठाने के लिये दौड़ा। जब हम उन्हें ले जा रहे थे तब उनकी आँखें बंद थीं और वे कुछ आवाज कर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि उन्हें जबरदस्त दर्द हो रहा था।
हमने उन्हें ड्राइवर के पास वाली सीट पर बैठाया और मैं गाड़ी चलाने के लिये बैठ गया। जब मैं उन्हें शून्य कुटीर ले जा रहा था तो उन्होंने अपना सिर मेरे कंधे पर टिका दिया। जब हम उन्हें घर के अंदर ले जाने के लिये उठा रहे थे तब मेरी क़मीज़ गियर के डंडे में फंस गई। मैंने दोनों हाथों से उनके कंधे पकड़े हुए थे और मैं किसी भी तरह हाथ हटा कर क़मीज़ नहीं निकाल सकता था। तो बलपूर्वक खींच कर मैंने क़मीज़ फाड़ डाली। हम जब अंदर गये तो हम उन्हें उनके कमरे में ले जा रहे थे पर उन्होंने पूजा कक्ष की ओर जाने का इशारा किया, जहाँ वे कई प्रक्रियायें करते थे। वहाँ ले जा कर हमनें उन्हें फर्श पर बैठा दिया। जैसे ही हमनें उन्हें छोड़ा, वे दर्द से ज़मीन पर लोटने लगे। मुझसे उनकी वो अवस्था देखी नहीं जा रही थी। मैं आँसू भरी आँखों के साथ बाहर आ गया।
प्राणप्रतिष्ठा के बाद तीसरे दिन मुझे कहा गया कि मैं सद्गुरु को शिवालय पत्थर पर ले आऊँ। जब मैं उनके कमरे में पहुँचा तो उन्हें कुर्सी में बैठा देख कर मुझे बहुत राहत मिली। कमरे में कोई और नहीं था। जब मैं उनके पास गया, उन्होंने अपना हाथ उठाया और मेरे कंधे पर रख दिया। वो स्पर्श किसी विद्युत धारा से भी ज्यादा शक्तिशाली था और मैं बहुत तेजी से काँपने लगा। वे समझ गये और उन्होंने अपना हाथ नीचे कर लिया। मैंने उन्हें कमर से पकड़ कर उठाया और उनकी कार टाटा सियेरा के पास ले आया। मैंने जब ड्राइवर सीट पर बैठ कर गाड़ी शुरू की तो मुझे ये देख कर बहुत खुशी हुई कि वे कौतूहलपूर्वक उनकी कार को संभालने की मेरी प्रत्येक हरकत को देख रहे थे। ये शायद पहली बार था कि सद्गुरु अपनी ही कार में यात्री सीट पर बैठे थे।
उस दिन के बाद मैं मौन में चला गया। फिर मैंने उन्हें 7 दिन के बाद ही देखा जब वे सलेम में होने वाली एक बैठक में जाने के लिये निकल रहे थे। वे बहुत धीरे चल रहे थे, थके हुए दिख रहे थे और विश्वास न हो सके इतनी बड़ी उम्र के लग रहे थे - बस दस ही दिनों में उनकी दाढ़ी में सफेदी दिखने लगी थी। पर वे जीवित थे!
मजे के दिन
आश्रम में पूर्णकालिक आने के बाद, कुछ ही दिनों में, एक ब्रह्मचारिणी ने मुझे झाड़ू दे कर भोजन कक्ष साफ करने को कहा। मैंने आश्चर्यचकित हो कर उसकी ओर देखा - "क्या?? ये मुझे झाड़ू लगाने को कह रही है ! ये काम तो स्त्रियों का है, पुरुषों का नहीं" !! पर कोई चारा नहीं था और मैंने पूरे कमरे को साफ किया। कुछ ही दिनों में ये लिंगभेद मेरे दिमाग में से पूरी तरह से गायब हो गया और हम एक परिवार की तरह रहते थे। एक दूसरे को साथ, सहयोग भी देते थे और झगड़ते भी थे। मुझे अभी भी उन शरारतों को याद कर के मजा आता है जो मैं दूसरों के साथ करता था, और वो जो कभी कभी मेरे साथ भी हो जातीं थीं।
प्राणप्रतिष्ठा के कुछ वर्षों बाद मुझे सिंगनल्लूर कार्यालय में भेजा गया जहाँ मुझे लेखा विभाग देखना था। एक स्वामी जो वहाँ रह रहे थे, इस बारे में बहुत ध्यान रखते थे कि कोई मच्छर घर के अंदर न आने पाये। वे दिन में एक खास समय पर, नियम से, सारे घर में बिजली से चलने वाली मच्छर भगाने की मशीनें चालू कर देते थे। लेकिन उनका कोई खास फायदा नहीं होता था क्योंकि मच्छर तो हमें फिर भी काटते ही थे। मैंने एक दिन सभी मशीनों से दवा निकाल कर उनमें पानी भर दिया और उन्हें वापस बिजली के सॉकेटों में लगा दिया। अगले 3 महीनों तक स्वामी उसी उत्साह से उन मशीनों को चला रहे थे जिनमें पानी भरा हुआ था और जिस दिन उन्हें पता चला... तब मेरे साथ क्या हुआ वो मैं आप को बता नहीं पाऊंगा।
एक बार और मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ था, उन दिनों, जब मैं खरीददारी संभाल रहा था, कभी कभी अगर देर हो जाती थी तो मैं सिंगनल्लूर कार्यालय में रुक जाता था। स्वामी देवस्तव जो उस समय वहाँ पर रसोई का कामकाज संभालते थे मुझे कम से कम उपमा ज़रूर खिला देते थे, चाहे मैं कितनी ही देर से क्यों न पहुँचूँ! ऐसी ही एक रात के बाद, स्वामी ने सुबह मुझे पूछा, "क्या तुम आज के भोजन में कुछ खास खाना चाहोगे"? मैंने जवाब दिया, "नहीं, आप जो भी बनाना चाहते हैं, बनाईये"। लेकिन वे आग्रह करते रहे तो मैंने आखिर में कुछ बताया। कुछ घंटों बाद मैं इस उम्मीद के साथ, उत्साह में, भोजन कक्ष में गया कि आज मुझे मेरी पसंदीदा चीज़ खाने को मिलेगी। मैंने जब बर्तन का ढक्कन हटा कर देखा तो निराश हो गया क्योंकि उसमें फिर से उपमा ही थी, उबले हुए आलू के टुकड़ों के साथ। मैंने सोचा, "ठीक है, शायद वे बहुत व्यस्त होंगे", और चुपचाप मैंने थाली में उपमा ले ली। जैसे ही पहला ग्रास लिया, मुझे ये अत्यंत अविश्वसनीय लगा कि आलू कच्चे ही थे, बस थोड़े से ही पके थे। अगले आधे घंटे तक मैं उन आलू के टुकड़ों को उपमा से अलग करता रहा, जिससे मैं किसी तरह उपमा खा सकूँ। बाद में, एक बार फिर यही शरारत मेरे साथ हुई। ऐसी अनगिनत घटनायें थी जब हम एक दूसरे के साथ शरारत करते थे।
पंचभूत आराधना से कैलाश तक
वर्ष 2006 में, सद्गुरु ने मुझे अगले 4 वर्षों के लिये कामकाजी मौन में रख दिया। जिस दिन मैं मौन से बाहर आया, मुझे कहा गया कि मैं सद्गुरु के साथ एक बैठक में हिस्सा लूँ, जिसमें पहली बार शुरू होने वाली पंचभूत आराधना के बारे में चर्चा होनी थी। बैठक के दौरान सद्गुरु ने स्वामी नंदिकेशा से पूछा, "इसे कौन संभालेगा"? स्वामी ने मेरी तरफ इशारा किया। "स्वामी, क्या आप इसे संभाल पायेंगे"? सद्गुरु ने मुझसे ऐसे पूछा जैसे उन्हें यकीन नहीं था कि मैं ये कर पाऊँगा। मैंने स्वीकार किया और फिर पूरा प्रयत्न किया कि उनके निर्देशों का पूरी तरह से पालन हो। मंदिर की ये गतिविधि संभालने के लगभग 3 वर्षों बाद वर्ष 2013 में मैं अक्षय(रसोईघर) में काम करने लगा, और फिर 2015 में काष्ठकला विभाग में। वर्ष 2015 में माँ गंभीरी ने मुझे कैलाश यात्रा के दौरान सद्गुरु के दल के लिये रसोई व्यवस्था संभालने को कहा। जब हम ब्रागा में थे तब किसी ने मुझे बताया कि सद्गुरु को अब तक रसोई की गुणवत्ता अच्छी लगी है पर उन्हें नहीं लगता कि आगे, जब अगले कुछ दिनों में हम पहाड़ों पर चढ़ेंगे तब ये वैसी ही अच्छी रह पायेगी। मैंने अपने अंदर ही अंदर सद्गुरु को वचन दिया, "यदि मैं अगले 15 दिन जीवित रहा तो रसोई की गुणवत्ता अगर बेहतर न कर सका तो कम से कम इसे बनाये ज़रूर रखूँगा"। और सारी रसोई टीम ने यह करने के लिये वाकई कठिन परिश्रम किया।
यात्रा के अंतिम दिन मुझे ये जान कर बहुत ज्यादा खुशी हुई कि अंतिम सत्र के दौरान सद्गुरु ने भोजन की गुणवत्ता की तारीफ की थी। चूंकि अक्षय दल इस अंतिम सत्र में वहाँ नहीं था, सद्गुरु ने मुझे ये संदेश भेजा, "इस यात्रा के दौरान बहुत सी चीजें हुईं जो कभी कभी सबसे बढ़िया नहीं थीं, पर रसोई का काम हर समय बढ़िया था। स्वामी और उनके दल को आशीर्वाद"। एक बार फिर, मैंने महसूस किया कि मेरे गालों पर आँसू बह रहे थे।
पिछले साल मैंने सुना कि सद्गुरु ने अपने एक ब्लॉग में मुझे 'हमारे धन्य स्वामी' कह कर संबोधित किया था। यह सुन कर मेरी आँखें गीली हो गयीं क्योंकि मुझे याद था कि एक दिन ऐसा भी था जब सद्गुरु को पूरा विश्वास नहीं था कि मैं पंचभूत आराधना संभाल सकूँगा। उस दिन से इस दिन तक, जब सद्गुरु ने मुझे 'धन्य स्वामी' कहा - मेरे लिये यही मेरी आध्यात्मिक यात्रा है।
पिछले साल मैंने सुना कि सद्गुरु ने अपने एक ब्लॉग में मुझे 'हमारे धन्य स्वामी' कह कर संबोधित किया था। यह सुन कर मेरी आँखें गीली हो गयीं क्योंकि मुझे याद था कि एक दिन ऐसा भी था जब सद्गुरु को पूरा विश्वास नहीं था कि मैं पंचभूत आराधना संभाल सकूँगा। उस दिन से इस दिन तक, जब सद्गुरु ने मुझे 'धन्य स्वामी' कहा - मेरे लिये यही मेरी आध्यात्मिक यात्रा है।
सद्गुरु माँ हैं, पिता हैं, मित्र हैं - सब कुछ हैं। मैं शब्दों में नही कह सकता कि मैं उनके प्रति कितना कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने इतना शक्तिशाली प्राणप्रतिष्ठित स्थान बनाया है, जहाँ हम सब एक साथ विकसित हो सकें। यहाँ, वो हरेक व्यक्ति जिसके साथ मैं अलग अलग स्थितियों में बात करता हूँ - सेवादार, स्वयंसेवक, आश्रमवासी, ब्रह्मचारी - मेरे विकास में योगदान देता है।
अंतिम श्वास
दो वर्ष पहले, मैं कायांत स्थानम गया और वहां ब्रह्मचारी साधना के लिये मैंने एक दिन बिताया। हमेशा से, मुझे मृत्यु के बारे में एक सूक्ष्म भय था। तो वहाँ जाते हुए मैं सोच रहा था, "कैसे मैं मृत शरीरों को जलते हुए देखूँगा"? मुझे नहीं पता कि ये कैसे हुआ, पर मृत्यु के बारे में मेरा भय उस दिन के बाद गायब ही हो गया। मुझे समझ में आया कि एक जीवित व्यक्ति और एक मृत व्यक्ति के बीच एक ही अंतर है - अंतिम श्वास! मृत व्यक्ति के लिये, अंतिम श्वास ली जा चुकी है। बस यही है। उस दिन से मैं जागरूकतापूर्वक और खुशी से साँस लेता हूँ - अपनी अंतिम श्वास की प्रतीक्षा में !!
Editor's Note: Watch this space every second Monday of the month as we share with you the journeys of Isha Brahmacharis in the series, "On the Path of the Divine."