आध्यात्मिक खोज - सद्गुरु के साथ कार यात्रा का अनुभव
एक खोजी शेरिल सिमोन ने अपनी रोचक जीवन-यात्रा को ‘मिडनाइट विद द मिस्टिक’ नामक किताब में व्यक्त किया है। इस स्तंभ में आप उसी किताब के हिंदी अनुवाद को एक धारावाहिक के रूप में पढ़ रहे हैं। पेश है इस धारावाहिक की अगली कड़ी जिसमें वे सद्गुरु के साथ कार में यात्रा करने के अनुभव को साझा कर रहीं हैं।

एक खोजी शेरिल सिमोन ने अपनी रोचक जीवन-यात्रा को ‘मिडनाइट विद द मिस्टिक’ नामक किताब में व्यक्त किया है। इस स्तंभ में आप उसी किताब के हिंदी अनुवाद को एक धारावाहिक के रूप में पढ़ रहे हैं। पेश है इस धारावाहिक की अगली कड़ी जिसमें वे सद्गुरु के साथ कार में यात्रा करने के अनुभव को साझा कर रहीं हैं।
सद्गुरु की सभी से मुलाक़ात
लगभग आधा घंटे तक सद्गुरु एक-के-बाद-एक सबसे बातें करते रहे, शुभकामनाएं लेते-देते, मौज-मस्ती करते, बड़े ध्यान से सबको सुनते रहे।
उसी समय लगेज बेल्ट पर उनका सूटकेस आ गया। वे उसे लेने के लिए झुके तो मुझे लगा कि वे मेरा सवाल नहीं सुन पाये होंगे। सूटकेस उठाकर हम कार की तरफ चल पड़े। फुटपाथ पर उनके सूटकेस के पहिये खडख़ड़ाने लगे और कार की ओर जाते समय उनका शोर चमकदार रोशनियों वाले पार्किंग डेक की ईंटों वाली दीवारों से टकरा कर गूंजने लगा।
सद्गुरु कार चलाने के लिए तैयार हो गए
मैं जानती थी कि सद्गुरु जितने स्थिरता-पसंद हैं उतने ही गति-पसंद भी।
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उन्होंने कार चालू करने के लिए चाभी डाली और पैनी नजर डालकर मुझसे पूछा, ‘कितनी रफ़्तार से चलाऊं?’
पता नहीं उन्होंने मुझसे पूछने का कष्ट क्यों उठाया, फैसला मेरे हाथ में था ही नहीं! मैं जवाब देती भी तो जिस तरह से किलकारी मारते हुए वे पार्किंग गैराज से कार बाहर निकाल रहे थे मुझे सुन ही नहीं पाते।
तेज़ रफ़्तार से चलती कार
अटलांटा से पहाडिय़ों तक पहुंचने में आम तौर पर लगभग तीन घंटे लगते हैं।
मुझे भारत में सद्गुरु की कार चलाने की इस डरावनी शैली का बड़ा अनुभव था, इसलिए उनसे पूछने के लिए यह सवाल सही लग रहा था, ‘सद्गुरु, आपको इंजनों और रफ़्तार की ऐसी धुन क्यों है?’
‘ओह!’ वे मुस्कराते हुए बोले, ‘मैं जीवन की हर चीज का धुनी हूं, बस कार चलाना उन थोड़ी-सी शेष चीजों में है, जो दूसरे कामों और समय की कमी के कारण अब तक संभव नहीं हो पाया है।’
सद्गुरु का गाड़ियों से लगाव
उन्होंने बड़ी सावधानी से लेन बदलते हुए कहा, ‘मुझे बचपन से ही हमेशा हर तरह की गाडिय़ां पसंद रही हैं। पहले मेरा सबसे बड़ा सपना होता था एक साइकिल लेने का। जब वह मुझे मिली तो मैंने उसके साथ बहुत समय बिताया। मेरी बाइक में हमेशा नए टायर होते थे। वे थोड़ा भी खराब हो जाते तो मैं नए लगवा लेता। यह शान और तामझाम की बात नहीं थी। बाइक देखने में चाहे जैसी हो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था। नए टायर होने पर बाइक चलाने में एक अलग आनंद आता था और मुझे यही चाहिए था।’
‘मैं जानती हूं आप कैसा चलाते हैं, इसलिए मैं कल्पना कर सकती हूं कि आपने अपनी बाइक के लिए ढेरों टायर बदले होंगे। बार-बार नए टायर खरीदने के लिए आपको इतने पैसे कहां से मिल जाते थे?’ मैंने पूछा।
सद्गुरु खुद ही करते थे पैसों का इंतज़ाम
सद्गुरु ने हंसकर कहा, ‘बचपन में ही पैसा कमाने के लिए मैंने पक्का कर लिया था कि मुझे तरह-तरह के छुटपुट काम-धंधे मिलते रहें।’
‘पास में एक शोध केंद्र था जो अपने अहाते से जहरीले सांपों को बाहर निकालने के बहुत अच्छे पैसे देता था। वे कोबरा और वाइपर को बाहर निकालने के लिए उनके आकार के हिसाब से पैसे देते थे। मैं तोते भी पकड़ता था। मैं अपनी बाइक को हमेशा दुरुस्त रखना चाहता था और अपने बाइक अभियानों के लिए पैसे जुटाना चाहता था, इसलिए वह काम पाकर मैं बहुत खुश था। इसके अलावा कोई दूसरा आदमी शायद ऐसा काम कर भी नहीं सकता था। मैं खतरनाक समझे जाने वाले काम कर डालता था और रोमांच या पैसे के लिए मैं किसी भी चुनौती का सामना करने को तैयार हो जाता था।’