इस महीने के ईशा लहर अंक में हम कर्मों के बारे में गहनता से विचार कर रहे हैं। हम कैसे जानें कि किस तरह का कर्म करना हमारे लिए अच्छा होगा? और जो कर्म अपने जीवन में हम आज तक कर चुके हैं, क्या उनके प्रभाव से बचा जा सकता है? आइये इस बार के अंक में इसे गहराई से समझते हैं...

संपादकीय:

कई दशकों से विश्व के अधिकांश देश तानाशाहों और निरंकुश शासकों से आजाद हैं। आजकल प्रजातंत्र का वर्चस्व है। विश्व के सभी देशों ने अपने-अपने संविधान बनाए हैं, जिसमें मानवाधिकार को प्रमुख स्थान दिया गया है। शासकों से आजादी तो मिल गई पर इंसान आज भी एक असहाय गुलाम है- अपने कर्मों का।

खुले आकाश में विचरने के लिए इतना तो तय है कि अपने कर्मों के पिंजड़े से निकलने के लिए आपको खुद ही अपने हाथ-पांव चलाने होंगे, लेकिन पिंजड़े के बारे में और उससे निकलने के कौशल के बारे में आपको जानकारी जरूर किसी योग्य गुरु से मिल सकती है।
इंसान पर कर्म का एक क्रूर शासन है। यह कर्म मानव के हरेक तंतु पर शासन करता है, यह तय करता है कि किसी तंतु, किसी अंग या किसी व्यक्ति को कैसे आचरण करना है साथ ही उसकी हरेक सांस, विचार और भावना को नियंत्रित करता है। इंसान तब वाकई नाउम्मीद हो जाता है जब उसे एक दिन यह पता चलता है कि उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि जिसे वह अपनी ‘स्वतंत्रता’ कहता है, वह उसके पूर्व कर्मों की मात्र एक गूढ़ अभिव्यक्ति है। उसकी उलझन, सर्वव्यापी कर्म के अदृश्य भंवर में, उसकी हरेक व्यर्थ कोशिश के साथ और गहरी ही होती जाती है। कितना जटिल है कर्म का यह भंवर! इंसान के लिए खुले और उन्मुक्त आकाश का आमंत्रण हमेशा से मुग्धकारी रहा है। पर वह खुद को अपने कर्मों के पिंजड़े में फंसा, असहाय सा महसूस करता है। वह बेबसी में फडफ़ड़ाता और कुलबुलाता रहता है।

सद्‌गुरु के शब्दों में,

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‘बच सकते थे तुम फंसने से
अपनी मधुकोष रूपी काया के
पिंजड़े में
पर तुम्हारी खुद की करनी
बन गई है खुद की फंसनी
नासमझी के घेरे से
निकलोगे नहीं जब तक
पिंजड़े से मुक्ति की
राह नहीं कोई तब तक

 

फंसने का एकमात्र कारण नासमझी ही है। इसी नासमझी को हम अलग-अलग नाम दे देते हैं, जैसे - माया, भ्रम, अज्ञानता...किसी इंसान की खुशहाली उसके रुपए-पैसे, पदप्रतिष्ठा, परिवार या हित-मित्रों द्वारा तय नहीं होती, यह तय होती है उसके कर्म के द्वारा। तो कैसे सुलझाएं कर्म की इस गुत्थी को, इसकी पकड़ को ढीला करने और मुक्त होने का क्या है मर्म? एक बहुत ही सुंदर कथा है। किसी कस्बे में एक भव्य मंदिर बनाया जा रहा था। वहां से थोड़ी दूरी पर बहुत सारे मजदूर मंदिर निर्माण के लिए पत्थर काट रहे थे। एक यात्री बगल के रास्ते से गुजर रहा था। बहुत सारे लोगों को पत्थर काटते देखकर यात्री के मन में कौतुहल पैदा हुआ और उसने एक आदमी के पास जाकर पूछा, आप पत्थर क्यों काट रहे हैं? उस आदमी ने जवाब दिया, ‘अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए।’ थोड़ा आगे जाकर वही प्रश्न उसने दूसरे व्यक्ति से पूछा। उस व्यक्ति का जवाब था, ‘यहां एक मंदिर बनाया जा रहा है उसी के लिए पत्थर काट रहा हूं।’ वही प्रश्न उसने तीसरे व्यक्ति के पास जाकर दुहराया। उस आदमी ने प्रफुल्लित मुद्रा में जवाब दिया, ‘मेरे गुरुदेव एक भव्य मंदिर बना रहे हैं, उस मंदिर में वह एक लिंग की प्राण प्रतिष्ठा करेंगे, मैं उसी के लिए पत्थर काट रहा हूं।’ उसकी आखों में चमक थी, शब्दों में ओज भरा था। तीनों लोग पत्थर काट रहे थे, पर तीनों के उत्तर इतने अलग क्यों थे? क्योंकि तीनों के भाव व संकल्प अलग-अलग थे।

इंसान तब वाकई नाउम्मीद हो जाता है जब उसे एक दिन यह पता चलता है कि उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि जिसे वह अपनी ‘स्वतंत्रता’ कहता है, वह उसके पूर्व कर्मों की मात्र एक गूढ़ अभिव्यक्ति है
आप क्या करते हैं यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, अहम यह है कि आप उसको किस संकल्प से, किस इरादे से, किस मंसूबे के साथ करते हैं। आपके संकल्प से बेशक आपके काम की प्रकृति न बदले, लेकिन उसका फल अवश्य बदल जाएगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई कर्म सचेतन व होशोहवास में किया जा रहा है या उसे अचेतन व विवश होकर किया जा रहा है। अचेतन में विवश होकर किया गया कर्म बंधन का कारण बनता है जबकि पूरी जागरूकता में किया गया सचेतन कर्म मुक्ति का द्वार बन जाता है। हम किसी काम को कैसे करते हैं यही बहुत बड़ा अंतर पैदा करता है। यही तय करता है कि हम मूढ़ ही रह जाएंगे या फि र आत्मज्ञान को प्राप्त होंगे, हम
बंधनों में असहाय उलझे रहेंगे या फिर उन्मुक्त होकर खुले आकाश में विचरण करेंगे। खुले आकाश में विचरने के लिए इतना तो तय है कि अपने कर्मों के पिंजड़े से निकलने के लिए आपको खुद ही अपने हाथ-पांव चलाने होंगे, लेकिन पिंजड़े के बारे में और उससे निकलने के कौशल के बारे में आपको जानकारी जरूर किसी योग्य गुरु से मिल सकती है। कुछ ऐसी ही जानकारियों को - कर्मों की उलझनों को सुलझाने वाली जानकारियों को, आपके लिए सहेज कर लाने की कोशिश की है हमने इस बार। इस कामना के साथ, कि आप कर्मों की अपनी बेबसी और अकुलाहट से मुक्त हो कर उन्मुक्त आकाश में उड़ान भरने की कोशिश कर सकें, हम यह अंक आपको सौंपते हैं।

 

 - डॉ सरस

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