चींटियों के साथ भोजन


सद्‌गुरु: मेरी परदादी अक्सर अपनी नाश्ते से भरी थाली बाहर ले जातीं और उसमें से अपने आसपास रहने वाले सभी जीवों को भोजन देतीं, जिनमें चींटियाँ, चिड़ियाँ, गिलहरियाँ और चूहे....वगैरह शामिल थे। उनके खाने से पहले ही, करीबन तीन-चैथाई भोजन इसी तरह चारों ओर बिखरा दिखाई देता। जब वे सभी जीवों के लिए खाना रखतीं तो अक्सर उनसे बातें करती भी दिखाई देतीं - कई बार उनकी आवाज़ सुनाई देती तो कई बार वे उनसे मन ही मन बात कर रही होतीं। बेशक़ सभी उन्हें इस काम की वजह से सिरफ़िरी मानते थे पर मुझे ऐसा नहीं लगता। जाने क्यों, मुझे यह बात बहुत आकर्षित करती थी क्योंकि वह स्वयं का उन जीवों के साथ होना महसूस कर पाती थीं। यह मुझे तो बहुत ही सहज बात लगती थी - जिस तरह आप लोगों से बात करते हैं, उसी तरह वे उन प्राणियों से बातें साजाह करतीं थीं। यह उनके लिए एक आम बात थी और एक बच्चा होने के नाते, मेरे लिए भी यह एक आम बात थी - ‘ठीक है, हाँ, वे ऐसा करती हैं।’

कई बार वे अपना खाना खाती ही नहीं थीं और जब उनसे वजह पूछी जाती, तो वे कहतीं, ”मैंने चींटियों के साथ खा लिया था।“

वे उन्हें भोजन करवातीं जिससे उनका पेट भर जाता, उनके लिए यह सब एक सच था। यह कोई भावात्मक प्रतिक्रिया नहीं थी। सब कुछ उनके लिए असलियत थी। जब बहुत बाद में जा कर, मैंने भी बहुत सी चीज़ों को महसूस करना शुरू किया तो अचानक उनके द्वारा के गयी हर छोटी छोटी चीज़ के मायने मेरे लिए बहुत अधिक होते चले गए।