सद्‌गुरु ने बड़े होकर एक मोटरसाइकिल ख़रीद ली, और उनके जोखिम भरे कारनामें पहले की तरह ही चलते रहे। ऐसे ही एक जंगल के दौरे के दौरान, उनकी मुलाकात स्वामी निर्मलानंद जी से हुई, जिनके बारे में सद्‌गुरु कहते हैं, ”इससे पहले कि मैं खु़द को जानता, वे जानते थे कि मैं एक योगी था।“

सद्गुरु: स्वामी निर्मलानंद जी कर्नाटक की बिलीगिरि रंगनाबेट्टा की पहाड़ियों में रहते थे। उनका एक लंबे अरसे तक, मेरे साथ नज़दीकी संबंध रहा - ”इससे पहले कि मैं खु़द को जानता, वे जानते थे कि मैं एक योगी था।“ वे अपने चार एकड़ के उस आश्रम में, चौदह साल तक मौनावस्था में रहे और आश्रम से पैर तक बाहर नहीं निकाला। हमारे बीच एक नाता सा बन गया था - इसके लिए कोई आध्यात्मिक वजह नहीं थी - जाने कैसे, एक-दूसरे को देखते ही हमारे मन खिल उठते।

मैंने कहीं सुना था कि वहाँ एक छोटा आश्रम है इसलिए मैंने वहाँ जाना तय किया।

जब मैं उन्नीस या बीस साल का था, तो मेरा बहुत सा वक्त पहाड़ों की चढ़ाई करने में ही बीतता। मैं अपनी मोटरसाइकिल जंगल में खड़ी कर देता और छह-सात दिन के लिए जंगलों में चला जाता। वे मेरे लिए रोमांच से भरे दिन थे और मन में ऐसी उमंग आते ही, मैं सीधा जंगल की ओर चल देता, भले ही मेरे साथ एक जोड़ी कपड़े भी न हों।

एक बार, ऐसे ही दौरे के दौरान, बहुत अच्छा वक्त बीता और हाथियों से, बहुत पास से आमना-सामना हुआ। उस समय इस इलाके में जंगली पशुओं की भरमार थी। फिर मुझे एक पेड़ पर ही क़रीबन चैबीस घंटे बिताने पड़े क्योंकि नीचे बैठा भालू मेरी ताक में था। तीन-चार दिन में मेरा सारा खाना ख़त्म हो गया, अक्सर मेरे साथ ऐसा ही होता था। दरअसल मैं अपने साथ सात दिन तक का खाना रखता था पर वह तीसरे दिन ही ख़त्म हो जाता और उससे ज़्यादा सामान उठाना, बोझ जैसा लगता था। इस तरह मैंने क़रीबन ढाई दिन जंगल में भूखे-प्यासे ही बिताए और मारे भूख के जान निकल रही थी। मानसून का मौसम था और झमाझम बारिश हो रही थी। मैं जंगल में सोने के बाद, सिर से पैर तक कीचड़ से लथपथ था।

मैंने वहाँ एक छोटे आश्रम के बारे में सुन रखा था इसलिए सोचा कि क्यों न वहीं जाया जाए। वह एक छोटी सी जगह थी और लगभग पंद्रह सीढ़ियाँ चढ़ कर, एक छोटी सी झोंपड़ी दिख रही थी। मैं मोटरसाइकिल को सीढ़ियों पर चढ़ा कर ले गया और उसे एक दीवार के सहारे टिका दिया। अंदर से लगभग पचपन साल के एक सज्जन बाहर आए, उनके कपड़े वैसे ही थे जैसे अक्सर भारतीय साधु-संत पहनते हैं। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान खिल गई। मैंने कहा, ”मुझे खाने के लिए कुछ चाहिए।“ वे मुझे देखते रहे और अचानक उनकी आँखों से आँसू बह निकले। वे आगे आए और मेरे कीचड़ से भरे जूतों का स्पर्श करते हुए, मेरे पाँव पकड़ लिए। यह सब देख मैं थोड़ा चकरा सा गया क्योंकि मैं अपने पूरे जीवन में कभी किसी के आगे नहीं झुका था, यहाँ तक कि कभी मंदिर में इस तरह माथा नहीं टेका था। पर उन्होंने तो सचमुच मेरे पाँव पकड़ रखे थे और मेरी हालत वाकई बहुत ख़राब थी। फिर मैंने ख़ुद को संभाला और कहा, ”मुझे खाने के लिए कुछ चाहिए और मैं आपको उसके लिए पैसे भी देना चाहूँगा।“ मैं हमेशा एक प्लास्टिक की पन्नी में कुछ रूपए लपेट कर रखता था। वह आडे़ वक्त के लिए मेरी पैंट में ही रखी रहती थी।

उनके पास रोटी और शहद के सिवा कुछ नहीं था। उन्होंने मेरे लिए ताज़ी रोटी पकाई और शहद के साथ परोसी, मैं उसे गपागप निगल गया। जब खाना हो गया, तो मैंने उन्हें कुछ रुपए देने चाहे पर उन्होंने नहीं रखे। इस तरह हमारे बीच एक नाता सा बन गया।

 

कुछ महीने बाद, जब भी उन पहाड़ियों की ओर जाता, तो मैं अपने साथ केले या दूसरे कुछ फल रख लेता ताकि अपनी ओर से उन्हें दे सकूँ। वे हमेशा मुझे चार-पाँच लीटर शहद देते, जो उन्हें आसपास के क़बीले वाले दे जाया करते थे।

कुछ समय बाद, जीवन में बहुत कुछ घटा और मैं उनके बारे में तक़रीबन भूल ही गया। मैं पढ़ाने लगा और फिर दूर-दूर तक यात्रा पर निकल जाता। कई वर्षों बाद, शायद चौदह या पंद्रह वर्ष बीत गए होंगे, तब तक मेरा हुलिया बिल्कुल बदल गया था। मैं अपनी पत्नी विज्जी और बिटिया राधे के साथ उनके आश्रम में गया। हम वहाँ जा कर बैठे और उन्होंने हमारा स्वागत किया। वे बात नहीं कर रहे थे। वे तब भी मौन साधे हुए थे। पहले-पहल उन्होंने नहीं पहचाना क्योंकि मैं अब पहले जैसा नहीं रहा था। फिर मैंने मुस्कुरा कर कहा, ”आपने मुझे पहचाना नहीं?“ उन्होंने मुझे ग़ौर से देख कर कहा, ”बड़ूम...बड़ूम!“ मैंने कहा, ”जी हाँ!“ वे भूले नहीं थे कि मैं उनके आश्रम की सीढ़ियाँ अपनी मोटरसाइकिल से चढ़ कर आ जाता था। इसके बाद, हमारे बीच एक अलग तरह का संबंध पनपने लगा।

उन्होंने तय किया कि जनवरी 96 में, अपनी देह का त्याग करेंगे। फिर उन्होंने अपनी महासमाधि का ऐलान कर दिया।

उन्होंने तिहत्तर वर्ष की आयु में तय किया कि वे इस संसार से विदा लेना चाहते थे और फिर मुझे पत्र लिखा, ”मेहरबानी करके, मेरे पास आओ। तुमसे कुछ बात करनी है।“ जब मैं गया तो हमारे बीच बात होने लगी, वे प्रश्न लिख रहे थे और मैं उनसे बात कर रहा था। इस तरह की आपसी बातचीत कभी नहीं हुई। कभी किसी ने ऐसे सवाल नहीं पूछे थे और न ही कभी ऐसी बातचीत हुई। वे बहुत ही भले संत थे, एक सुंदर मनुष्य पर वे शरीर की तरकीबों को नहीं जानते थे, इसलिए वे उसके बारे में मुझसे बात कर रहे थे। जिस दिन विज्जी ने यह सब सुना, उसी दिन से उसकी साधना की शुरूआत हो गई।

उन्होंने तय किया कि जनवरी 96 में, अपनी देह का त्याग करेंगे। फिर उन्होंने अपनी महासमाधि का ऐलान कर दिया। इस बात से वहाँ हड़कंप मच गया। कर्नाटक के बौद्धिक समाज ने उनके खि़लाफ़ यह मुक़दमा दायर कर दिया कि वह आदमी आत्महत्या करने जा रहा था, इस तरह उनके आश्रम के बाहर दो कांस्टेबल बिठा दिए गए।

जब मैं वहाँ गया, तो वे मेरे गले लग कर रोने लगे, ”मैंने तो कभी किसी पौधे से फूल तक नहीं तोड़ा। मैं तो अपनी पूजा तक के लिए फूल नहीं तोड़ता और उन्होंने मेरे आश्रम में पुलिस को पहरे पर बिठा दिया।“ वे इस अपमान से बहुत दुखी थे। उन्होंने तो कभी पेड़ से फल तक नहीं तोड़ा था। वे पेड़ों को भी दुःख नहीं पहुँचाना चाहते थे। वे पेड़ों से गिरे फल ही खाते थे। वरना वे उन्हें हाथ से छूते तक नहीं थे। मैंने उनसे कहा, ”आप चिंता न करें। पुलिस आपका क्या कर लेगी?“ जब उनका विदा लेने का समय आया, तो वे बाहर एक छोटे से बेंच पर बैठ गए। आश्रम में दो कांस्टेबलों के अलावा करीब चालीस लोग और मौजूद थे। वे उन सबके सामने बैठे और अपनी देह त्याग दी।