सद्गुरु की माँ - उनका अपने बच्चों और घर के प्रति जुडाव
सद्गुरु बताते हैं कि जब वे बड़े हो रहे थे तो उनकी मां उनके और उनके भाई-बहनों के ऊपर कितनी बारीकी से ध्यान देती थीं।
इन पंक्तियों में, सद्गुरु बता रहे हैं कि उनकी माँ बचपन में किस तरह सबका ध्यान रखा करती थीं
सद्गुरु: जब हम छोटे थे, तो मेरी माँ सारे घर की देखरेख करती थीं। वे घर का हर काम अपने हाथों से करतीं, जिनमें पर्दे और तकियों के गिलाफ सीने से ले कर, बिस्तर की चादरें बनाना और कढ़ाई करना शामिल था। अगर हम कहीं बाहर जाते, और हमें बाहर सोना होता, तो वे कहतीं, “बच्चे सूने गिलाफ पर सिर रख कर कैसे सो सकते हैं?” वे उसी समय अपना सुई-धागा निकालतीं और दो मिनट में गिलाफ पर कोई तोता या फूल काढ़ देतीं। मुझे आज भी वे हरे रंग के तोते अच्छी तरह याद हैं क्योंकि मैं उन्हें देखते-देखते ही सोया करता था। इतनी छोटी बातों पर भी कैसी नज़र: ‘बेख़्याली में तैयार किए गए, मशीनों से बने, दुकानों से लिए गए तकिए के गिलाफों पर बच्चे कैसे सो सकते हैं?’ ये बातें ही हमारे जीवन में बड़े अंतर लाती थीं। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि हमारे जीवन में इतना ध्यान रखने वाला, ऐसा समर्पण रखने वाला वह इंसान न होता, तो हमारा जीवन कैसा होता। यह कोई सक्रिय स्नेही संबंध की तरह नहीं था। बस आप उनके बिना अपने जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकते थे, ये स्नेह हर जगह, हर समय मौजूद रहता।
सद्गुरु: उस ज़माने के हिसाब से, मेरी माँ काफी पढ़ी-लिखी गृहिणी थीं। वे आजीवन, सुबह से ले कर शाम तक, सब कुछ व्यवस्थित रूप से संभालती रहीं। यहाँ तक कि आश्रम में भी, मैं उनकी मिसाल दिया करता हूँ। अगर वे अगले महीने के लिए राशन के सामान की सूची बनाने बैठतीं, तो बस एक बार में ही सारा सामान आ जाता। पूरे महीने में फिर किसी को भी बार-बार दुकान पर भाग कर सामान नहीं लाना पड़ता था। वे सब कुछ मन ही मन हिसाब लगा लेतीं - घर में कितना सामान रखा था, कितने मेहमान आने की उम्मीद थी और फिर वे देखतीं कि अगले माह के लिए कितने सामान की जरुरत होगी। सब कुछ कितना व्यवस्थित था।
सरल और छोटी चीज़ों मे भी उनकी पूरी उपस्थिति दिखाई देती। सुबह वे छह बजे के करीब उठ जातीं। हम सभी साढे सात बजे तक घर से निकल जाते - नाश्ता, नाश्ता, नाश्ता। हम सभी को भेजने के बाद, वे नहाने जातीं, अपनी पूजा करतीं और भोजन बनातीं। मेरे पिता जी दोपहर को ठीक साढे बारह बजे घर आते जब वे घर आते, तो वे हमेशा बालों में फूल लगाए, तैयार होतीं। जब आने वाले सालों में, वे बहुत बीमार हो गईं और चेहरे व टाँगों की सूजन की वजह से ज्यादा चल भी नहीं पाती थीं, तब भी वे किसी तरह बगीचे तक जातीं और नन्हा सा चमेली का फूल बालों में टाँक लेतीं।