ईशा लहर मई 2018 – सोशल मीडिया के नशे में धुत्त समाज
ईशा लहर के मई अंक में हमने सोशल मीडिया के हम पर पड़ने वालें प्रभावों की चर्चा की है। जानते हैं कि कैसे समाज सोशल मीडिया के नशे की चपेट में आ गया है, और क्या है इससे बचने का तरीका। पढ़ते हैं इस बार का सम्पादकीय स्तम्भ।
सत्रहवी सदी के अंत में एक ऐसी खोज हुई, जिससे इंसान के जीवन में एक बड़ा बदलाव आया और वह खोज थी अखबार की। तब लोग देश दुनिया से जुडऩे लगे। फिर अठारहवीं सदी में डाकघर की हुई शुरुआत ने लोगों के बीच के आपसी संपर्क को बहुत आसान बना दिया। उन्नीसवीं सदी आते-आते टेलीफोन और टेलीग्राम के आविष्कारों ने इंसान के जीवन में आपसी संपर्क को अद्भुत तरीके से बढ़ा दिया। फिर बीसवीं सदी ने जब रेडियो और टेलीवीजन का तोहफा दिया तो जैसे दुनिया की दूरियां सिमट गईं। लेकिन अब इक्कीसवीं सदी ने जो हमें सोशल मीडिया भेंट किया है, उसे लेकर अक्सर प्रश्न उठते हैं कि क्या इसने आपसी दूरियों को वाकई कम किया है या उसे बढ़ाया है? आज यह दृश्य बड़ी सहजता से कहीं भी देखा जा सकता है कि चार परिचित लोग साथ बैठे हैं और वे आपस में तो बात नहीं कर रहे, हां, दूर बैठे किसी अनजान व्यक्ति से अपने स्मार्ट फोन पर नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश जरुर कर रहे हैं।
तो क्या सोशल मीडिया वाकई आपसी रिश्तों में नजदीकियां बढ़ा रहा है? एक अनुमान के मुताबिक लोग स्मार्ट फोन पर बिताए जाने वाले अपने समय का अस्सी से नब्बे प्रतिशत हिस्सा सोशल मीडिया पर निरर्थक संदेशों को पढ़ने और उसे शेयर करने में बिताते हैं। मुश्किल से पांच से दस प्रतिशत संदेश किसी काम के होते हैं। हालत यह है कि लोगों के पास संदेशों की प्रामाणिकता पर विचार करने तक की फुर्सत नहीं है।
Subscribe
तो क्या सोशल मीडिया हमारे जीवन का एक बहुमूल्य समय यूं ही हमसे छीन रहा है? शायद हां। सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारी युवा पीढ़ी और यहां तक कि स्कूल जाने वाले बच्चे भी अपना बहुमूल्य समय सोशल मीडिया को भेंट चढ़ा रहे हैं। क्या बच्चे और कम उम्र के युवा इतने योग्य और विचारशील हैं कि वे उचित और अनुचित में अंतर कर सकें? ऐसे में सोशल मीडिया पर बिना सोचे-समझे परोसे जाने वाली चीजें उन पर नकरात्मक प्रभाव डाल सकती हैं।
सोशल मीडिया का नशा
अगर किसी बच्चे को किसी तरह के नशे की लत लग जाए, तो मां-बाप परेशान हो जाते हैं, लेकिन अफसोस और आश्चर्य यह कि सोशल मीडिया एक नशे से भी खतरनाक तरीके से पूरे समाज को अपनी गिरफ्त में ले रहा है और हमें इसकी परवाह भी नहीं है। सवाल है कि आखिर उपाय क्या है? क्या हम इसे पूरी तरह नकार सकते हैं? अगर नहीं, तो कैसे हम अपने बच्चों को, युवा-शक्ति को, बड़े स्तर पर कहें तो पूरे समाज को इसके दुष्परिणाम से बचा सकते हैं? सद्गुरु ने समय-समय पर बहुत ही खूबसूरत तरीके से हमें इन पहलुओं पर समझाने की कोशिश की है। इस बार के अंक में हमने इन्हीं पहलुओं की विवेचना और समाधान को समेटने की कोशिश की है। इस कामना के साथ कि आप सोशल मीडिया को अपने भीतरी आयामों में विकसित करने का एक माध्यम बना लें, यह अंक आपकी सेवार्थ पेश है।
- डॉ सरस
ईशा लहर प्रिंट सब्सक्रिप्शन के लिए इस लिंक पर जाएं
ईशा लहर डाउनलोड करने के लिए इस लिंक पर जाएं